Faisal Anurag
संकट से जूझ रही कांग्रेस के लिए अहमद पटेल की मृत्यु एक बड़ा नुकसान है. यह नुकसान उस दौर में हो रहा है, जब कांग्रेस अपने नये अध्यक्ष के चुनाव की तैयारियां कर रही है और पार्टी के ही कुछ बड़े नेता मुखरता से पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठा रहे हैं.कांग्रेस में एक और नयी प्रवृति यह दिख रही है. कुछ सवालों पर क्षेत्रीय क्षत्रपों के एक नये किस्म का उभार हो रहा है. अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव कांग्रेस के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं. 2021 में असम,बंगाल,केरल,तमिलनाडु और पुडुचेरी में चुनाव होंगे.
पुडुचेरी में कांग्रेस की सरकार है, जबकि लोकसभा के 2019 के चुनावों में केरल में कांग्रेस ने जबरदस्त प्रदर्शन किया था. असम भी कांग्रेस के लिए एक बड़ी संभावना वाला राज्य है. असम में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले तरूण गोगोई की भी हाल ही में मृत्यु हुई है. इससे भी असम कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर कई तरह के संकट सामने आ सकते हैं. तमिलनाडु में कांग्रेस डीएमके का सहयोगी है, जबकि बंगाल में कांग्रेस किस के साथ तालमेल करेगी, इसे लेकर चुप्पी बनी हुई है.
अहमद पटेल न केवल सोनिया गांधी के राजनैतिक सलाहकार थे, बल्कि वे पार्टी के एक बड़े संकटमोचक भी माने जाते रहे हैं. 2014 में सत्ता से बाहर होने के बाद से कांग्रेस को चंदों के लिए भारी मुसीबत का सामान करना पड़ रहा है. अहमद पटेल पार्टी के कोषाध्यक्ष के रूप में चंदा एकत्रित करने में माहिर थे. कांग्रेस के लिए तो बिहार चुनाव के बाद जिस तरह का माहौल बना है, उससे बारगेन की क्षमता प्रभावित हो सकती है. अहमद पटेल की खासियत यह थी कि वे न केवल पार्टी के लिए धनसंग्रह करने में दक्षता रखते थे. बल्कि बड़े विवाद में पार्टी आलाकमान की ढाल बनकर खड़े रहते थे. साथ ही और केंद्र स्तर पर भी गठबंधन के लिए तालमेल करने में अनुभवी माने जाते थे. उनकी ज्यादातर भूमिका परदे के पीछे की होती थी. राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद उनका प्रभाव जरूर कम हुआ था.
2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव के समय भी अशोक गहलोत को प्रभारी बनवाकर राहुल गांधी ने अहमद पटेल को साइडलाइन किया था. गुजरात के विधानसभा चुनाव के समय टिकट बंटवारे में भी उनकी भूमिका सीमित की गयी थी. राज्यसभा चुनाव के समय अमित शाह की रणनीति को मात देकर अहमद पटेल ने चुनाव जीतकर अपने महत्व को साबित किया था. सोनिया गांधी मानती रही हैं कि अहमद पटेल कांग्रेस के इकलौते नेता हैं जो अमित शाह का मुकाबला कर सकते हैं.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह के उदय के बाद कांग्रेस को बुरे दौर से गुजरना पड़ा है. अपवाद में केवल पंजाब,छत्तीसगढ,राजस्थान ही है, जहां भाजपा के खिलाफ कांग्रेस जुटी हुई है. मध्यप्रदेश में उसे न केवल सत्ता गंवानी पड़ी, बल्कि उपचुनावों में बुरी हार का सामना भी करना पड़ा. राजस्थान के विवाद के समय सचिन पायलट को जिन नेताओं ने मनाने में बड़ी भूमिका निभायी थी, उसमें अहमद पटेल प्रमुख थे.
राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा के बाद अहमद पटेल की फिर प्रमुख भूमिका बनी थी. लोकसभा चुनाव के समय जिन नेताओं पर असहयोग का आरोप लगा था, उसमें अहमद पटेल नहीं थे. लोकसभा चुनाव के बाद उनका महत्व एक बार फिर बढ़ गया था.
बिहार चुनाव परिणाम के बाद तो कांग्रेस के तीन प्रमुख नेताओं ने जिस तरह के सवाल उठाये हैं, उससे आलाकमान परेशान है. कपिल सिब्ब्ल, गुलाम नबी आजाद और पी चिदंबरम पार्टी के चुनावी प्रदर्शन को लेकर न केवल असंतोष प्रकट किया. बल्कि पार्टी की कार्यशैली को लेकर भी सवाल उठाये हैं. पार्टी नेतृत्व ने इन आलोचनाओं पर चुप्पी साध लिया. लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने खुलकर पार्टी का बचाव किया. यही नहीं इन दोनों नेताओं ने अपने-अपने राज्यों में जिस तरह कमान संभाल रखा है. एक समय कांगेस के पास क्षेत्रीय क्षत्रपों का वर्चस्व होता था. कांग्रेस की ताकत भी यही थी.
गहलोत और बघेल की भूमिका कमोवेश उसी दौर की वापसी के संकेत की तरह है. जमीनी पकड़ के कारण ही क्षत्रपों का महत्व था. कांग्रेस की विडंबना इस समय यह है कि उसके पास न तो जमीनी पकड़ वाले मास लीडर हैं और न ही मेहनत करने वालों की फौज है. अहमद पटेल की तरह का नेता भी दूसरा नहीं दिखता है.
मुरली देवड़ा जरूर पार्टी के लिए आर्थिक स्रोत जुटाने के माहिर नेता थे. लेकिन 2014 में उकनी मृत्यु के बाद से पार्टी की पूरी निर्भरता अहमद पटेल पर ही थी. अहमद पटेल पार्टी के भीतर भी संतुलन बरकार रखने में दक्ष थे.
कांग्रेस के संकट का एक बड़ा कारण यह भी है कि अनेक ज्वलंत सवालों पर राहुल गांधी या प्रियंका गांधी चुप ही रहते हैं. अभी भाजपा ने लव जिहाद का सवाल खड़ा किया है. 2021 और 22 के चुनावों को ध्यान में रखकर इसे भाजपा हवा दे रही है. कांग्रेस में केवल गहलोत और बघेल ने ही इस पर हस्तक्षेप करते हुए टिप्पणी किया है. भाजपा ने बिहार चुनाव के अंतिम दौर में जिस तरह एनआरसी और लव जिहाद का सवाल खड़ा किया था. उसका जबाव कांग्रेस नहीं दे पायी. भाजपा जानती है कि उसे चुनाव में कियेस गये सवाल ही सफलता दिला सकते हैं. लेकिन कांग्रेस का भी भ्रम टूटता ही नजर नहीं आता है. पटेल की खासियत यह भी थी कि वे इस तरह के राजनैतिक सवालों का सामना करने की रणनीति कुशलता से बना लेते थे.