Walter Bhengra Tarun
रिटायरमेंट के पहले ही उन्होंने खूंटी में लोकेशन देखकर अपने लिए दस डिसमिल जमीन खरीद ली. मकान बनाने का काम भी जल्द ही शुरू हो गया. आनन्द चाहता था कि जिस महीना बैंक से वह रिटायर हो जाए, उसी समय वह गांव के अपने मकान में शिफ्ट हो जाए. सब कुछ आनन्द के मन मुताबिक होता गया. शांतिपूर्वक मकान बन भी गया. फिर जब वह सचमुच में रिटायर हुआ अपने बैंक की नौकरी से, तो सीधा अपने नए मकान में आकर रहने लगा. अभी छः महीने ही बीते थे कि एक बड़ी समस्या आ खड़ी हो गयी.
“भाई, आपकी बाउन्ड्री बाहर आ गयी है. आपने गांव के लोगों के आने-जाने के लिए रास्ता नहीं छोड़ा है.” एक दिन सुबह गांव के कुछ लोगों ने आकर आनन्द से कहा. “हमने तो जमीन मालिक से जितनी जमीन ली, उसी के तहत अपना मकान बनाया है. उस समय तो ऐसी कोई दिक्कत नहीं थी?” आनन्द ने लोगों से ही सवाल पूछ लिया. “ऐसा है, कि दो साल पहले बात कुछ और थी. अब, यहां से आगे तक की जमीन बिक गई. कई लोगों ने भी अपना मकान बना लिए. कुछ लोगों को अभी बनाना है. सबकी सुविधा के लिए आने-जाने का कम से कम पन्द्रह-बीस फीट चौड़ा रास्ता तो छोड़ना पड़ेगा ना!”
“अगल-बगल सबको अपनी जमीन का हिस्सा देना होगा.” दूसरे व्यक्ति ने कहा. “यह बात तो गांव-टोले के लोगों की बैठक में निर्णय होना चाहिए!” आनन्द ने दलील दी. “ठीक है आपकी बात! गांव टोले की पंचायत में ही हम बात रखेंगे. लेकिन, यह बात तो आपको माननी होगी कि आपने रास्ता के लिए जगह नहीं दी है.” आनन्द सोच में पड़ गया. वह अतीत की याद में बह गया उस क्षण. रिटायरमेंट अगले साल है, यह सोचकर आनन्द अपने भावी जीवन के बारे में सोचने लगा. हर चार-पांच साल में इस शहर से उस शहर तबादला होते रहने के कारण जीवन कभी स्थिर नहीं रहा उसका. सरकारी बैंक था, इसलिए हर शहर में उसे किराए
के फ्लैट की व्यवस्था हो जाती थी. जब तक बच्चे छोटे थे, तो उन्हें भी पत्नी के साथ शहर दर शहर घुमाते रहे. केन्द्रीय वि़द्यालयों के सहारे उनकी पढ़ाई बाधित नहीं हुई. लेकिन कॉलेज की पढ़ाई की बात पर पहले बेटी ने, फिर बेटे ने भी हॉस्टल में या पी.जी. में रहकर पढ़ाई करने का अपना निर्णय सुना दिया था. पत्नी साथ रही. लेकिन अब तो भावी जीवन की बात सामने थी आनन्द तोपनो की. सोचना भी था और निर्णय भी लेना था.
“प्रेमा” आनन्द ने अपनी पत्नी को आवाज दी. “चाय हम दोनों बालकनी में बैठकर पीते हैं.” “हाँ,ठीक है. आप फ्रेश होकर बैठिए. मैं चाय वहीं लाती हूँ.” प्रेमा यह कहकर किचन में चली गयी. अपार्टमेन्ट के सेकेण्ड फ्लोर पर उनका फ्लैट था पश्चिम की ओर! उधर ही मुख्य रास्ता का चौराहा भी दिखाई देता है. बालकनी में बैठकर रास्ते में चलते हुए लोगों को, सामने दूसरी ओर के मार्केट की दूकानों को निहारना, अच्छा टाइम पास हो जाता है. अक्सर दोनों अपनी बालकनी में चाय साथ मिलकर पीते.
“तो, आपने रिटायरमेन्ट के बाद कहां रहने का सोचा है?” प्रेमा ने पूछ लिया. “मैं तो वापस गांव की ओर लौटने की सोच रहा हूँ.” आनन्द ने कहा. “शहरों की भीड़-भाड़ वाली जिंदगी से मैं थक गया हूं. गांव के शांत वातावरण में बाकी जिंदगी काटने की इच्छा है.” “इतने वर्षों तक शहरों में रहकर अब गांवों में रह पाएंगे हम?… फिर विक्टर और सोनाली? दोनों बच्चे अब बड़े हो गये हैं. क्या वे दोनों गांव के वातावरण में रह पायेंगे?“ प्रेमा ने एक साथ अनेक प्रश्नों की -झड़ी लगा दी. आनन्द थोड़ा सोच में पड़ गया. चाय की चुस्की लेने के बाद उसे टेबल पर रखते हुए वह अपने चेहरे पर उंगलियां फिराते हुए उसने एक लंबी सांस छोड़ी.
“बात तो सही है. बच्चों के बारे में भी सोचना है. उनके फ्यूचर के बारे में भी कुछ तो करना ही पड़ेगा हमें.” आनन्द ने गंभीरता से कहा. “लेकिन, मैं अब शहरी जीवन से बिलकुल ही ऊब चुका हूं. इस तरह के लिमिटेड स्पेस में …अब दम घुटने लगता है. खुली-खुली जगह, स्वच्छ वातावरण, प्रदूषण मुक्त हवा में सांस लेने का जी करता है.” “आपकी बातों को मैं समझती हूं. लेकिन, इतने सालों के बाद इस उम्र में गांव में हम रह पाएंगे? वहां हमें बेसिक सुविधाएं भी नहीं मिलेंगी. शहरी जीवन के हम इतने आदि हो चुके हैं. वहां न अच्छी सड़कें हैं, न बिजली-पानी की सही सहूलियत. इंटरनेट का जमाना है. नेटवर्क के बिना, हमारे बच्चे तो सीधे ना कह देंगे. यह सोच लीजिए.” प्रेमा ने दलील दीं. “फिर भी…मेरा तो गांव की ओर ही मन लगा हुआ है.” आनन्द ने चाय की अंतिम चुस्की लेकर कहा. “सभी गांव से शहरों की ओर जा रहे हैं. आप हैं कि गांव की ओर जाने की सोच रहे हैं. हम कितने वर्षों से गांव नहीं गए हैं. जब तक मां-बाबा जीवित थे, हमारा आना-जाना साल-दो साल में हो जाता था. उनके गुजरने के बाद तो हमने गांव जाना ही छोड़ दिया. एक तरह से हमारा नाता ही टूट चुका है गांव से.
” प्रेमा बोली. “बच्चों की पढ़ाई और हमारी बैंक की नौकरी के कारण हम शहर में ही भटकते रहे. फिर सुसाना भाभी के व्यवहार ने भी दिल तोड़ दिया था उस समय हमारा. हम क्या करते?” “ठीक है. हालात उस समय बिगड़ गए थे. हमने दादा-भाभी की मदद तो हमेशा ही की. जितना हो सका हमसे. घर परिवार में थोड़ा बहुत ऊंच-नीच तो चलता ही रहता है. अब बेचारी सुसाना भाभी भी करती क्या उस समय? पौलुस दादा के पीने की आदत के कारण वह भी परेशान रहती थी.” दो बेटों में बड़े बेटे ने शादी करने के बाद अलग होकर दूसरी जगह अपना परिवार बसा लिया था. एक फौज में भरती हो गया. साल में एक बार गांव आता. “बहुत दिनों बाद याद आयी हमारी!“ सुसाना भाभी के स्वर में वही व्यंग्य थे अब भी. “आना तो चाहते थे,भाभी! लेकिन बच्चों की प-सजय़ाई और हमारा लगातार यहां से वहां ट्रांसफर होते रहने के कारण हम आ नहीं पाते थे.” आनन्द ने सिर –झुका कर जवाब दिया. “तो इस बार कितने दिनों तक रूकना है यहां? “ सुसाना भाभी ने सीधा-सीधा पूछ लिया.“ऐसा है, भाभी! हम अब हमेशा के लिए गांव आने की सोच रहे हैं. एकाध साल बाद मैं रिटायर हो जाऊंगा.” आनन्द ने कहा. “ओ…यह बात है. यहां आकर क्या करोगे?… जमीन जायदाद तो तुम्हारे दादा ने दारू के चक्कर में बेच-बाचकर खत्म कर दिए. रहोगे कहां? इस टूटे खप्परैल घर में, जिसे तुम्हारे आबा ने बनाया था.”
आनन्द का माथा घूम गया भाभी की बातों से. वह चुप रह गया उस क्षण. जवाब उसके पास थे भी नहीं. उसने कभी अपने आबा के मकान की स्थिति के बारे में सोचा ही नहीं! प्रेमा देवर-भाभी की बातें चुपचाप सुनती रही. वैसे भी वह भाभी के सामने कम बोलती रही है. इसके पीछे भी वह स्वयं कारण बनी थी. सुसाना भाभी ने अपने देवर आनन्द के लिए कोई लड़की पसन्द कर रखी थी. लेकिन आनन्द ने अपनी पसन्द से प्रेमा से शादी कर ली थी. इसलिए सुसाना भाभी कभी भी प्रेमा से खुश नहीं रही. तीन दिनों तक गांव में रहने के बाद वे दोनों शहर लौट आये थे. चुपचाप! उन्हें बहस नहीं करनी थी अपनी भाभी और दादा पौलुस से. उदास और निरूत्साहित हो गया था आनन्द. प्रेमा ने लौटने पर कुछ नहीं कहा उससे. बोलती भी क्या वह? आनन्द ने ही गांव जाने की बात की थी. वह तो राजी थी उसके साथ जाने के लिए. बचपन उसी गांव में बीता था आनन्द का. वह तो दूसरे शहर की थी. आनन्द के जीवन के प्रारम्भिक दिनों की यादें वहां थीं. गांव के बीचोबीच बड़ा सा आम का पेड़, उसकी छाया में बना गांव का अखड़ा, जहां गांव के जवान युवक-युवतियां नगाड़ों के तालों पर बांहों से बांहे जोड़े देर रात तक नाचते-गाते रहे. कितना मेल-प्रेम था उसके बचपन और जवानी के दिनों में उस गांव में. “इतने मायूस क्यों हो रहे हैं, आप?“
अगले दिन प्रेमा ने आनन्द के पास बैठ कर कहा. “गांव बदल रहे हैं. पहले की तरह वहां सब कुछ नहीं रहा. पड़ोसिन बहालेन काकी बता रही थी, कि कई तरह के उग्रवादी संगठनों का आतंक गांवों में फैल चुका है. गांव के अनेक नौजवान भी उन उग्रवादी संगठनों में चले गए हैं. नौकरियां नहीं मिल रही हैं. पुलिस और सुरक्षा बलों का आतंक सा है इन दिनों गाँवों में.
“वो तो मैंने भी अनुभव किया,प्रेमा! इसके बावजूद मेरा अंतःमन गांव की ओर ही जाने को कह रहा है.” लंबी सांस छोड़ते हुए आनन्द ने कहा. “हम खूंटी में अलग से जमीन लेकर अपना मकान बनाकर रहेंगें. वहां परिस्थिति काफी शांत है. नया जिला बनने से पुराना कस्बा शहर का रूप धारण करने लगा है. अन्य जगहों की तुलना में जमीन सस्ती है वहां. वहां से अपना गांव दूर भी नहीं है. रांची बिलकुल पास है, जहां से रेल और हवाई जहाज द्वारा कहीं भी आने-जाने में दिक्कत नहीं होगी. हमारे बच्चों के लिए भी ठीक रहेगा.” प्रेमा ने अपनी बात रखी आनन्द के सामने. “तुम्हें इन सब बातों की जानकारी कैसे मिली?” आश्चर्य से प्रेमा को देखते हुए आनन्द ने पूछा.“दो दिनों तक गांव में रहने के दौरान मैं कई लोगों से मिली वहां. फिर, आपके दिल को सुकून मिले, इसलिए मैं पूछताछ करती रही कि हम गांव में कैसे रह सकते हैं? लोगों ने बताया कि सुरक्षित रहने के हिसाब से दूर देहात के गांवों के बजाय खूंटी अधिक ’सेफ जोन’ रहेगा. “ आज गांव के लोगों के बीच स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगा था आनन्द. वह मानो बिलकुल अकेला हो गया था वहां. एक ओर वह अकेला था, तो दूसरी ओर गांव के अन्य लोग. क्या उसने शहर छोड़कर गांव आकर गलती की है? वह अपने ही सवालों में स्वयं को घिरा महसूस कर रहा था उस पल.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.