Jai Praksh Rai
केंद्र सरकार ने देश में जनगणना कराने की तैयारी शुरू कर दी है. 2026 में लोकसभा का परिसीमन होना है और जैसा कि माना जा रहा है अगले दो सालों में जनगणना कर ली जाएगी. उसी के बाद परिसीमन होगा. देश में इस समय जातीय जनगणना को लेकर भी काफी शोर-शराबा मचाया जा रहा है. इस बात की संभावना है कि भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र की सरकार जातीय जनगणना भी कराएगी. जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी का नारा इन दिनों खूब चलाया जा रहा है. वह स्लोगन दक्षिण के राज्यों को सुहा नहीं रहा है. इसका बड़ा कारण यह है कि देश के चार बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र को इस नए परिसीमन का बंपर फायदा लोकसभा की सीटों के मामले में मिलने जा रहा है. अगर जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी वाली बात लागू की गई, तो बिहार की 40 सीटें बढ़कर 79 हो जाएंगी. उत्तर प्रदेश का भी आंकड़ा 150 के पार हो सकता है. जबकि केरल जैसा राज्य जिसने आबादी पर जबरदस्त नियंत्रण रखा है उसकी एक भी सीट नहीं बढेगी. तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे राज्यों में भी दो चार सीटें ही बढेंगी. हाल ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने 16 श्रृंगार की तर्ज पर 16-16 बच्चे पैदा करने का जो आह्वान किया, वह इसी ओर इशारा करता है. वैसे राज्य जिन्होंने आबादी पर नियंत्रण रखा है, वे परिसीमन के बाद खासा नुकसान में रहेंगे. यहां एक बात दब जा रही है और वह है कि जिन वर्गों, जातियों,संप्रदायों ने भी आबादी पर नियंत्रण रखा है, उनको भी वहां भारी नुकसान होने वाला है. जिन धर्म की आबादी बढ़ रही है उनको जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी वाली राजनीतिक रणनीति का बंपर फायदा मिलेगा.
एक आंकड़े के अनुसार आजादी के बाद की गई जनगणना में यह बात सामने आई थी कि देश में 52 प्रतिशत पिछड़े हैं. यब आंकड़ा लगातार बढता ही जा रहा है. आज इन जातियों की राजनीति करने वाले इस आकड़ा को बढ़ा चढ़ा कर 90 प्रतिशत तक बताते हैं. इस साल संसद के बजट सत्र के आरंभ में हलवा परंपरा के दौरान लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने वहां मौजूद अधिकारियों की जाति का हवाला देकर काफी बवाल काटा. उनका कहना था कि 10 प्रतिशत आबादी वाले लोग 90 प्रतिशत आबादी की किस्मत तय करते हैं. राहुल गांधी की माने तो देश में 90 प्रतिशत पिछड़ी जातियां हैं. राजनीतिक लोग अपने-अपने हिसाब से जब मन करता है तो आंकड़ों को बढ़ाते हैं और जब लगता है कि यह आंकड़े उनकी राजनीतिक एजेंडा में फिट नहीं बैठ रहे तो उन्हें घाटा देते हैं .यह बहस का मुद्दा नहीं है. बहस का मुद्दा यह है कि जिन जातियों ने या जिन संप्रदायों ने आबादी पर नियंत्रण किया उनका क्या होगा? जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी भागीदारी वाली जो वयार इस समय बहाई जा रही है ,उसमें तो वे कहीं के नहीं रह जाएंगे. चूंकि इनको लेकर कोई वोट बैंक की बात नहीं करेगा, इसलिये ये हासिये पर चले जाएंगे. कुछ ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग भी हैं जो आज लुफ्त से हो गए हैं. पारसी समुदाय की चर्चा करना जरूरी है. वहां जन्म दर काफी कम है तो फिर ऐसे संप्रदायों की तो गिनती भी बंद कर दी जाएगी. देश में जो जितना बड़ा राजनीतिक बवंडर खड़ा कर सकता है या ठेठ भाषा में कहा जाए कि जिसका जितना अधिक न्यूसेंस वैल्यू होता है, उसकी उतनी पूछ होती है. जातीय जनगणना के मामले में भी या जाति की राजनीति करने वाले के मामले में भी यही बात सामने आती है. अब यह देखना दिलचस्प रहेगा कि वे लोग जो जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी वाली बात कर रहे हैं, परिसीमन पर उनका क्या स्टैंड रहता है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.