Faisal Anurag
मेजर जेनरल क्रिस डोनाहोए के सी-17 कार्गो पर सवार होते ही अमेरिकी सेना की वापसी पूरी हो गयी. 21 साल के लंबे संघर्ष की समाप्ति का एक दौर तो खत्म हो गया लेकिन क्या अफगानिस्तान वास्तव में पूरी तरह संप्रभु हो गया. दोहा वार्ता में अफगानिस्तान सुलह के लिए अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि ज़ाल्मय खलीलज़ाद ने कहा कि अफगान अब निर्णय और अवसर के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है. उनके हाथ में देश का भविष्य है. वे पूर्ण संप्रभुता में अपना मार्ग चुनेंगे. यह उनके युद्ध को भी समाप्त करने का मौका है. लेकिन न तो आशंकाएं कम हुई हैं और न ही अफगानिसतान में युद्ध की संभावना. ताबिलान जश्न जरूर मान रहा है, लेकिन जो चुनौतियां उसके समाने हैं, वे किसी भी युद्धकालीन दौर से कहीं ज्यादा पेचीदा हैं. यह तो साफ हो गया है कि अफगानियों के लिए लोकतंत्र और नागरिक आजादी का दौर खत्म हो गया है. तालिबान ने जिस अमीरात की कल्पना पेश की है, उसकी सूरत कैसी होगी इसे लेकर दुनिया और 20 सालों तक खुली हवा में सांस लेने वाले अफगान नागरिक दुविधा में हैं. चीन ने अमेरिका से कहा है कि वह तालिबान को मदद करने का सुझाव दिया है.
सवाल है कि अमेरिका जब वापस लौटा है और 20 सालों के लोकतंत्र के प्रयोग को नकार दिया गया है. अफगानिस्तान की हालत बेहद चिंताजनक है. दरअसल अफगानिस्तान की जो वैश्विक रैंकिग इन सालों में रही है, उससे यह तो जाहिर है कि अफगानियों के समावेशी विकास की दिशा में बहुत ज्यादा नहीं किया गया है. अमेरिका सहित विदेशी जो भी मदद आयी, उससे नागरिकों के आम जीवन में कोई बड़े बदलाव नहीं हुए हैं. 2020 का ही आंकड़ा बताता है कि अफगानिस्तान में विश्व समुदाय के बेशुमार खर्च के दावे ने विकास को ने कितना महत्व दिया है. सिर्फ महिलाओं की हालत ही देखें तो बहुत कुछ साफ है. यूएनडीपी 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, महिला बराबरी के मामले में अफगानिस्तान दुनिया के सबसे खराब प्रदर्शन वाले छह देशों में है. इसकी रैंकिग 157 हैं. इसी तरह मातृत्व मृत्यु दर में वह दुनिया के सबसे खराब 9 देशों में है. स्कूलों में नामांकित होने वाली लड़कियों के आंकड़े के मामले में वह 7वें सबसे खराब देशों में एक है. सेकेंडरी शिक्षा के आंकड़ों में वह दुनिया के सबसे खराब 12 मुल्को में हैं. आर्थिक सूचकांक तमाम आंकड़ों में अफगानिस्तान नीचे के सबसे खराब 10 प्रदर्शन वाले देशों में है. जीडीपी के सूचकांक में वह 113वें स्थान पर है.
तालिबान का संकट यह है कि उसके पास अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर कोई रोडमैप नहीं है. वह पुरातनपंथी ताकत है, जो अमीरात और शरीयत की बातें करती है. इससे जाहिर नहीं होता कि वह 20 सालों में आए बदलावों के साथ किस तरह का सरोकार बनाएगी. उसने अब तक जो भी फैसले लिए हैं, उससे इतना तो जाहिर ही है कि उसके पास नागरिकों की बराबरी,आजादी और विकास के समान अवसर का कोई इरादा नहीं है. अमीरातों का एक रूप तो अरब के देशों में मौजूद है, जहां सामंतों और बादशाहों ने लोकतंत्र,आधुनिकता और विज्ञान का गला घोट रखा है. सीरिया सहित अनेक देशों में जिस तरह के युद्ध के हालात हैं, उसके वैश्विक खतरे भी बने हुए हैं. इराक अपनी तबाही के बाद से ठीक से खड़ा नहीं हो पाया है. यूएई ने जरूर सामंती शासन और आधुनिक प्रगति के बीच समन्य स्थापित किया है. लेकिन इन अमीरातों में भी लोकतंत्र,महिला आजादी और आधुनिेक मूल्यों के लिए ज्यादा अवसर नहीं हैं.
अफगानिसतान के सवाल पर चीन,रूस,ईरान और पाकिस्तान के बीच एक साझा नजरिया दिख रहा है. यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र के अफगान सवाल पर ताजा प्रस्ताव पर रूस और चीन ने वोट से खुद को दूर रखा. हालांकि वीटो का भी इस्तेमाल नहीं किया. 15 दिन बीत जाने के बाद भी तालिबान राष्ट्रीय सरकार बनाने में कामयाब नहीं हुआ है. पंजशीर के विद्रोहियों से उसने बातचीत शुरू कर दिया है. अल्पसंख्यक जातीय समूहों के लोग खुद को असुरक्षित मान रहे हैं. इन पंद्रह दिनों में भी सुरक्षा का बोध पैदा नहीं किया जाना तालिबान की नाकामयाबी जैसी है. इन पंद्रह दिनों में एक बात तो तय दिख रही है कि आइएस खुरासान के साथ तालिबान का एक गृहयुद्ध तय है.
अरूण माहेश्वरी ने लिखा है, एक राष्ट्र के रूप में अफ़ग़ानिस्तान एक शानदार ऐतिहासिक दौर से गुजर चुका है. उसे फिर से लौटाने और सहेजने की लालसा निश्चित तौर पर वहां प्रबल रूप में मौजूद है, भले अभी वह सामने न दिखाई दे रही हो और यही बात आज वहां एक नई और स्थायी सरकार के बल्कि ज़्यादा सही कहें तो तालिबान के नेतृत्व में एक नए राष्ट्र के रूप में अफ़ग़ानिस्तान के उभार के रास्ते की एक अतिरिक्त बाधा भी है.
तालिबान को यह सबित करने की जरूरत है कि वह राष्ट्र के लिए एक समस्याओं को दूर करेगा. लंबे समय तक नागरिक आजादी के सवाल को नजरअंदाज करना तालिबान के लिए आसान नहीं होगा. अमेरिका के खिलाफ मिले तालिबान समर्थन का दौर खत्म हो चुका है. आजादी,महिला भागीदारी और विज्ञानसम्मत शिक्षा के रास्ते को ज्यादा देर तक रोके रखना तालिबान के लिए भी घाटे का सौदा साबित होगा.
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