Sanjay Kumar Singh
भारत के विकास को समझना है तो बैंकों का हाल समझना चाहिए. माल्या और मेहुल भाई जैसे लोग बैंकों का पैसा लेकर भाग गए. पीएमसी बैंक के खाताधारकों के पैसे डूबे भी और अब सर्वविदित है कि बैंक में आपका चाहे जितना पैसा डूबे, मिलेगा पांच लाख ही. मैं नहीं जानता कि बीमा ही कराना था तो यह पांच लाख का ही क्यों है. आप कह सकते हैं कि स्वास्थ्य बीमा पांच लाख का ही है और जनधन खाता वालों के मरने का बीमा भी पांच लाख का नहीं है और फसल बीमा योजना में तो किसानों को सौ रुपए से भी कम मिलते रहे हैं, तब आप बैंक में जमा रखने वाले ‘अमीरों’ की ही चिंता क्यों कर रहे हैं? दरअसल, मेरा मानना है कि बीमा एक धंधा है और आप प्रीमियम के बदले जरूरत पड़ने पर लोगों को बीमा राशि देते हैं. इसमें कमाई करते हैं.
ग्राहकों के लिए यह एक तरह का जुआ है और नुकसान की स्थिति में लॉटरी खुलने की तरह है. देश में जुआ खेलना गैर कानूनी है, पर इस सरकार के राज में बीमे का जुआ फल-फूल रहा है. प्रचारक बताते हैं कि पांच लाख का बीमा और कुछ लाख का जियो डाटा और ऐसे ही सब मिलाकर 15 लाख पूरे हो गए. आपको क्या मिला आप बेहतर जानते हैं. मैं यह जानता हूं कि कोरोना की दूसरी लहर में जब लाखों लोग मरे और सरकार ने तमाम सच-झूठ प्रचारित किया, तब भी यह नहीं बताया कि जनधन खाते और उसके बीमे से कितने लोग उपकृत हो गए या स्वर्ग सिधारने वालों के परिवार को कोई राहत मिली.
मुद्दा यह है कि बीमा का प्रीमियम होता है और बाकी सब के मुआवजे की तो जरूरत पड़ती रहती है, बैंक कहां डूबते हैं? इसलिए बैंक में जमा धनराशि का बीमा कम प्रीमियम में हो सकता है, होना चाहिए. यकीन न हो तो रेल यात्रियों से बीमे के लिए वसूली जाने वाली राशि देखिए. ऐसे में पूरी जमा राशि का बीमा नहीं कराने का मतलब यही है कि सरकार को उसकी जरूरत नहीं लगती है. प्रचारकों ने मोर्चा संभाल लिया है. इस तरह, बैंकों की साख का बाजा बजाने के बाद बीमा की गारंटी देने की भी जरूरत नहीं समझने वाली सरकार आपको क्या समझती है आप जानियें
आप जानते हैं कि बैंकों में कई तरह के शुल्क लगाये गये हैं और पुराने शुल्क बढ़ाये गये हैं. इसका कारण बताने की जरूरत नहीं है, जबकि तथ्य है कि कंप्यूटर और एटीएम के बाद बैंकों में कर्मचारियों की संख्या काफी कम हो गई है और इसलिए शाखा के लिए स्थान की जरूरत भी काफी कम हो गई है. बैंकों का मुख्य खर्च यही था बाकी तो निवेश है. इसके बावजूद, बैंक ने जो नए शुल्क लगाए हैं, उनके विस्तार में नहीं जाकर मैं सिर्फ यह बताना चाहता हूं कि पहले मुख्य रूप से दो तरह के खाते होते थे – बचत और चालू. बचत खाते में नहीं के बराबर शुल्क लगता था और पांच साल में पैसे दुगने हो जाते थे.
अब हालत यह है कि मेरे एक बचत खाते में 1800 रुपये के करीब पड़े हैं. खाता मैं नहीं चलाता लेकिन बंद भी नहीं किया है. पहले ऐसे खातों को इनऑपरेशनल मानकर बंद कर दिया जाता था और आप खाता बंद करें तो हिसाब ले लीजिए, नहीं करें तो आपका पैसा बैंक के पास है. बैंक अघोषित रूप से उस पैसे का उपयोग कर रहा है और आपको लाभ नहीं दे रहा है. अब आप खाता नहीं चलाएंगे तब भी बैंक आपका खाता नहीं बंद करेगा. कुछ मामलों में अपने पैसे काटकर खाता बंद कर दे या आपसे शुल्क या खर्चा मांगने लगे तो आश्चर्य की बात नहीं है. इसलिए मैंने अपने सारे खाते बंद कर दिए. जो एक चल रहा है, मतलब लेन-देन मैं तो करता नहीं और बैंक ने इनऑपरेटिव भी नहीं किया. उसमें जमा राशि का ब्याज मिलता है और बैंक अपना शुल्क लेता है. हर तीन महीने पर नियम से. ब्याज कम मिलता है और शुल्क ज्यादा है. इस तरह मेरे पैसे बैंक में रखे हुए भी कम हो रहे हैं. पहले ऐसा सुना था? यही अच्छे दिन है?
अगर आप कारोबारी हैं तो पुराने नियम के अनुसार आपको चालू खाता रखना होगा. इसमें ब्याज नहीं मिलता था और खर्चे लगते थे. अब दोनों में लगते हैं तो दो तरह के खातों का कोई मतलब नहीं है पर मतलब बनाए रखने के लिए चालू खातों का शुल्क बचत खातों के मुकाबले ज्यादा रखा गया है. नए नियमों के अनुसार मेरे (प्राइवेट) बैंक ने न्यूनतम बचत नहीं रहने के कारण एक महीने के 1500 रुपए काट लिए हैं. इस पर जीएसटी 270 रुपए और लगे हैं. यहां बात केवल शुल्क की नहीं है. मुद्दा यह है कि बैंकों के जरिए लेन-देन और डिजिटल लेन-देन के लिए कारोबारी का चालू खाता होना जरूरी है. चालू खाते में पैसे वही होते हैं जो कारोबार (या टर्नओवर) होता है. इसमें दिलचस्प यह भी है कि अगले महीने ज्यादा पैसे आए और खाते में रहे तो बैंक इसे वापस नहीं करेगा और ना ही ज्यादा पैसे रखने के कुछ देगा.
अगर किसी का टर्नओवर कम है (मेरा जो है उसी से घर चलता है और पूरी कोशिश के बावजूद कारोबार बढ़ नहीं रहा है) तो वह उसमें पैसे कहां से डालें और सिर्फ खाता मेनटेन करने के लिए 1500 रुपए महीने का शुल्क क्या जायज है? मैं तो चला लूंगा लेकिन पकौड़े बेचेने वाले? जिस महीने काम कम हुआ या पैसे कम आए उस महीने का महाजन हमारा बैंक ही होगा? माल्या और मेहुल भाई को भूलकर?
बात इतनी ही नहीं है, सरकारी नियम के अनुसार मेरा बैंक खाता होना जरूरी है, जो काम हुआ या जो पैसे कमाए वो खाते में आए. जो खर्च थे वो किया जो बचा (या नहीं बचा) वह कम है. इसलिए बैंक ने शुल्क लिया – यहां तक तो फिर भी समझ में आ सकता है. लेकिन इसपर 270 रुपए का जीएसटी क्यों? मैं कम कमाता हूं तो टैक्स देने के लिए चोरी करूं? या ज्यादा कैसे कमाऊं? कौन बताएगा, किसकी जिम्मेदारी है?
कायदे से आप बिना खाते का कारोबार नहीं कर सकते हैं, खाता खोलना भारी मुसीबत है. उसके लिए भी नियमित खर्च उठाना पड़ता है. जैसे ऑफिस हो, बिजली का कर्मशियल मीटर हो, कारोबार के नाम से फोन हो, पैन नंबर या ऐसा ही कुछ हो और उसमें छह सात लाख या दस लाख के कारोबार पर बैंक को खाते के लिए पैसे देने पड़ें, तो यह अलग से खर्च और परेशानी है, जो नहीं कमाने वाले के लिए देना मुश्किल है. कहने की जरूरत नहीं है कि कमाने वाले से टैक्स लेना तो समझ में आता है. पर, जो कमाता ही नहीं है और जिसे सरकार काम/नौकरी नहीं दे सकती है, उसे काम देना सरकार की पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए या वसूली? बात इतनी ही नहीं है, इस तरह कमा या वसूल कर बैंक अपने कर्मचारियों को कितने पैसे और भत्ते दे पाएंगे. बैंक कर्मचारी अच्छा वेतन पाने वालों में रहे हैं. पर लगता है, उनके भी अच्छे दिन आने वाले हैं.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं