Gladson Dungdung
27 सितंबर 2025 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सौ साल पूरा हो जायेगा, जिसकी स्थापना भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने हेतु की गई थी. संघ जल्द से जल्द अपना मिशन पूरा करना चाहता है, इसलिए संघ के नेता निरंतर बोलते रहते हैं कि भारत में रहने वाले सभी “हिंदू” हैं. इन्हें मालूम है कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए देश के संविधान को बदलना पड़ेगा, जो आसान नहीं है. यही वजह है कि संघ प्रत्येक व्यक्ति के दिमाग में यह बात डालने की कोशिश कर रहा है कि उसका मूल जड़ सनातन धर्म है, ताकि हिंदू राष्ट्र के निर्माण में कोई रोड़ा न बने. इसमें सबसे बड़ा रोड़ा आदिवासी हैं, जो दावा करते हैं कि वे भारत के प्रथम निवासी और मालिक हैं, इसलिए संघ परिवार आदिवासियों को हिंदू कहता है, लेकिन मूल प्रश्न यह है कि क्या आदिवासी जन्मजात हिंदू हैं?
संघ परिवार के दावे के विपरीत आदिवासी कहते हैं कि वे प्रकृति पूजक हैं, जिन्हें “सरना कोड” के रूप में अलग धार्मिक पहचान दिया चाहिए, लेकिन उनकी मांग को नकारा जा रहा है, जिसमें सरकार के साथ संघ परिवार सबसे आगे है. संघ प्रमुख मोहन भगवत कहते हैं कि आदिवासी हिंदू हैं, इसलिए उन्हें अलग धार्मिक पहचान की जरूरत नहीं है. वे दावा करते हैं कि सरना और सनातन एक ही धर्म है, क्योंकि दोनों की पूजा पद्धतियां मिलती-जुलती हैं. यदि इनके तर्क को माना जाये तो ईसाई, यहूदी और इस्लाम भी एक ही धर्म है, क्योंकि इन तीनों धर्मों की जड़ “बाईबल” है. लेकिन इनके तर्क में कोई दम नहीं है.
सनातन हिंदू धर्म का मूल आधार “वर्ण व्यवस्था” है एवं “जाति व्यवस्था” इसी का विस्तृत रूप है. इसका अर्थ यह है कि सनातन हिंदू धर्म को मानने वाला हरेक समुदाय “वर्ण व्यवस्था” का हिस्सा है. ऐसी स्थिति में क्या आदिवासी समाज “वर्ण एवं जाति” व्यवस्था का हिस्सा है? मानवशास्त्र एवं समाजशास्त्र के अनुसार नस्ल एवं जाति दोनों अलग-अलग हैं. आदिवासी लोग नस्लीय समुदाय से आते हैं, इसलिए “वर्ण एवं जाति” व्यवस्था से उनका कोई सरोकार नहीं है. बावजूद इसके भारत सरकार और संघ परिवार न सिर्फ इसे खारिज करते हैं बल्कि मुख्यधारा में लाने, हिंदू बताकर एवं “घरवापसी” के नाम पर उन्हें “वर्ण एवं जाति” व्यवस्था का हिस्सा बनाने हेतु कई दशक से प्रयासरत हैं.
भारत में वर्ण एवं जाति व्यवस्था के अन्तर्गत चार वर्ण, 3,000 जातियां एवं 25,000 उप-जातियां हैं, जिनमें से सिर्फ ब्राह्मण जाति को हिंदू धर्मग्रंथ पढ़ने का अधिकार है. यानी सिर्फ ब्राह्मण ही पुजारी बन सकते हैं. लेकिन देश के 705 आदिवासी समुदायों के अपने-अपने पुजारी हैं. इनके यहां मुर्गा के खून से शुद्धीकरण करने का रिवाज है, जबकि सनातन हिंदू शुद्धीकरण के लिए गंगाजल का उपयोग करते हैं. सनातन हिंदू पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं, जबकि आदिवासी मानते हैं कि मृत्यु के बाद आत्मा अपने घर में वापस लौटकर आता है. आदिवासियों का पूजास्थल सरना, जाहेरस्थान, देशाउली, इत्यादि है, जबकि हिन्दुओं का पूजास्थल मंदिर है. इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि आदिवासी “प्रकृति” की पूजा करते हैं, जबकि सनातन धर्म में भगवान के अनेक स्वरूप मौजूद हैं.
इस मसला को समझने के लिए जनगणना भी एक अहम कड़ी है. भारत में ब्रिटिश हुकूमत के समय 1871 में हुई प्रथम जनगणना से ही धार्मिक समूहों का पृथक्करण किया गया, जिसमें “एबोर्जिनल” के रूप में आदिवासियों को अलग पहचान दी गई थी, जो 1941 तक जारी था. अंग्रेजों ने आदिवासियों के धर्म को अलग मान्यता दिया था, लेकिन आजादी के बाद आदिवासियों के साथ बेईमानी की गई. 1951 में हुई प्रथम जनगणना में आदिवासी कॉलम को हिंदू कॉलम में समाहित किया गया. क्या यह आदिवासियों का धोखा से किया गया सामूहिक हिंदूकरण नहीं था?
हमें कानूनी प्रावधानों पर भी गौर करना चाहिए. हिंदू धर्म से संबंधित प्रमुख कानूनों में आदिवासियों को हिंदू नहीं माना गया है, इसलिए ये कानून उनपर लागू नहीं होते हैं, जबकि बौद्ध, जैन, सिख, प्रार्थना समाज एवं आर्य समाज के सदस्यों पर लागू हैं. हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा-2;2, हिंदू सक्सेशन एक्ट 1955 की धारा-2;2, हिंदू माईनोरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट 1955 की धारा-3;2 एवं हिंदू एडोप्शन एंड मेंटेनेन्स एक्ट 1956 की धारा-2;2 में स्पष्ट लिखा हुआ है कि इन कानूनों का कोई भी हिस्सा संविधान के अनुच्छेद 366;25 के तहत परिभाषित अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होगा. इन कानूनों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट ने आदिवासियों को हिंदू मानने से इंकार किया है. सुप्रीम कोर्ट ने डॉ. सूर्यामनी स्टेला कुजूर बनाम दुर्गा चरण हांसदा एवं अन्य ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 939 एवं झारखंड उच्च न्यायालय ने राजेन्द्र कुमार सिंह मुंडा बनाम ममता देवी एफ.ए. न. 186 ऑफ 2008 के मामले में फैसला देते समय आदिवासियों को हिंदू मानने से इंकार कर दिया था.
इसमें मूल बात यह है कि सनातन धर्म के धर्मग्रन्थों में आदिवासियों को असुर, दानव, राक्षस, शैतान, वानर इत्यादि कहा गया है यानी वे इंसान के रूप में वहां मौजूद ही नहीं हैं, फिर वे जन्मजात हिंदू कैसे हो सकते हैं? “आदिवासी” न धार्मिक समूह है और न ही यह “वर्ण एवं जाति” व्यवस्था का हिस्सा है, बल्कि यह एक अलग नस्लीय समुदाय है. इससे स्पष्ट है कि आदिवासी जन्मजात हिंदू नहीं हैं, बल्कि बड़े पैमाने पर उनका हिंदूकरण हुआ है जो अब भी जारी है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.