Surjit Singh
महामारी में तानाशाही बढ़ती है. सरकारें महामारी के बहाने मनमाने फैसले लेती है. लोगों की रक्षा के नाम पर उसे लागू करती है. भारत में भी पिछले साल यही हुआ और अब भी हो रहा है. राज्यों की चुनी हुई सरकार को धकियाने की भी कोशिश शुरू हो गई है. राज्यों के राज्यपालों से केंद्र सीधे बातचीत करने लगा है. यह अभूतपूर्व है. ऐसा पहले शायद ही कभी हुआ.
बुधवार को देश के उप राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने राज्यों के राज्यों के साथ बैठक की. हालांकि बैठक का विषय “कोरोना के टीके का प्रबंधन तथा उसकी रोकथाम के उपायों में सक्रिय भागीदारी” था. लेकिन इसे दूसरे नजरिये से भी देखने की जरुरत है. कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी सरकार राज्यपालों की संवैधानिक अधिकारों को प्रदेश के मुख्यमंत्री से ज्यादा ताकत देने की शुरुआत तो नहीं कर रही है. यही कारण है कि सवाल भी उठने लगे हैं. कहीं ऐसा को नहीं केंद्र की मोदी सरकार राज्यों राज्यपालों के माध्यम से राज्यों में प्रशासन के नीचे तक पहुंच बनाना चाह रही है.
अभी तक होता यह रहा है कि केंद्र की सरकारें विपक्षी दलों की सरकार वाले राज्यों को परेशान करती थी. प्रशासन के नियमित काम-काज में रुकावटें पैदा करती थी. लेकिन यह पहली बार हुआ है कि केंद्र सरकार सीधे राज्यपालों के साथ बैठक करने लगी है. सवाल उठने लगे हैं कि क्या दिल्ली की तरह ही राज्यों में भी राज्यपालों को ज्यादा तरजीह देकर मुख्यमंत्रियों को धकियाया जायेगा.
आशंकाएं और भी हैं. इसकी एक बड़ी वजह केंद्र की मौजूदा सरकार के शीर्ष नेतृत्व की एक्सपोज हो जाना भी है. बंगाल चुनाव में टीवी चैनलों ने वही किया जो मोदी काल में पहले के चुनावों में होते रहे हैं. सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की रैली और रोड शो को कवर किया. विपक्ष को नजरअंदाज किया गया. देश के करोड़ों लोगों ने यह सब देखा.
देखा कि यह दोनों दिल्ली में बैठ कर गाइडलाइन जारी करते हैं और खुद सुबह उठ कर चुनाव वाले राज्य में पहुंच जाते हैं. वहां भीड़ में बिना मास्क के रैली व रोड शो करते हैं. इससे लोगों में दोनों के प्रति नाकारात्मक छवि बनी. राज्यों की सरकारों की विपक्षी पार्टियों ने भी सवाल उठाये. तो अब केंद्र सरकार का शीर्ष नेतृत्व खुद सामने ना आकर, राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बदले राज्यपालों से बात करने लगी है. लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह एक अभूतपूर्व घटना है.