Baharagoda (Himangushu Karan) : एक वक्त था जब डोली (पालकी) शादी और फिल्म इंडस्ट्री की शान हुआ करती थी. दूल्हा डोली पर सवार होकर ससुराल जाता था और डोली पर ही अपनी दुल्हन को लाता था. फिल्मों में भी डोली पर ना जाने कितने हिट गीत लिखे गए. डोली पर कई हिट फिल्में भी बनीं. मगर आज वक्त ने करवट ली है. गांव में भी शहरी कल्चर प्रभावी हो गया है. डोली से दूल्हा के ससुराल जाने और डोली से दुल्हन लाने की प्राचीन परंपरा विलुप्त हो गई. फिल्म में भी अब डोली पर अब गीत बनने बंद हो गए हैं. इतना कुछ होने के बावजूद आज भी डोली जिंदा है. भले ही वह दर्शन की वस्तु बनकर पुरानी परंपरा डोली और कहार की याद दिला रही है. बहरागोड़ा प्रखंड के बामडोल गांव में नित्यानंद घोष के घर की दीवार पर सजी-धजी डोली लटकी हुई है. इसे अब प्रयोग में नहीं लाया जाता है. क्योंकि अब जमाना लग्जरी वाहनों का आ गया है.
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नई पीढ़ी नहीं समझ सकती डोली की अहमियत
जरा याद कीजिए 80 तक का दशक. जब डोली और कहार की खास मांग हुआ करती थी. कहारों की समाज में पूछ होती थी. डोली के बिना शादी फिकी लगते थी. तब शादी में डोली से संबंधित फिल्मी गीत गूंजते थे. मसलन, “चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई”, “डोली चढ़कर दुल्हन ससुराल चली”. डोली से जुड़ी कई फिल्में भी बनीं. डोली पर खूब शेर और शायरी भी होती थी. मगर आज डोली किसी काम के नहीं रही. लग्जरी गाड़ियों ने डोली की अहमियत को खत्म कर दिया. डोली और कहार की परंपरा विलुप्त हो गई. भला आज की यह नई पीढ़ी जिनकी माता और दादी डोली पर चढ़कर ही ससुराल आई थीं वह क्या जाने इस डोली की अहमियत.
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पूर्वजों की निशानी है डोली
बामडोल निवासी नित्यानंद घोष कहते हैं कि यह डोली उनके दादा के जमाने की बनी हुई है. तब शादी में दूल्हे डोली पर चढ़कर ही ससुराल जाते थे और डोली से ही अपनी दुल्हन को लाते थे. डोली को ढोने के लिए गांव में कहार भी हुआ करते थे. मगर आज यह टोली किसी काम की नहीं. इस धंधे से जुड़े लोग जमाने के अनुरूप अपना व्यवसाय भी बदल चुके हैं. वे कहते हैं कि पिछले वर्ष अपने भतीजा की शादी में इस डोली का प्रयोग हुआ था. यह डोली पूर्वजों की निशानी है. पुराने दिनों की याद दिलाती है. इसलिए इसकी मरम्मत और रंग रोगन कर घर के दरवाजे के पास दीवार पर सजा कर रखा गया है.