Pramod Pathak
हर वर्ष की तरह इस वर्ष के बजट पर भी चर्चा तो बहुतों ने देखी, सुनी या पढ़ी होगी. जागरूकता का दौर जो ठहरा. जानकारी ही जानकारी है. वैसे यह बात अलग है कि समझ कितनों को आयी बजट के मुद्दों की यह कहना मुश्किल है. दरअसल सूचना के इस दौर में समझ का ही तो अभाव है. लेकिन बजट पर कोई चर्चा करने से पहले एक बोध कथा. कहानी कुछ इस तरह से है कि मृत्यु के बाद एक सज्जन चित्रगुप्त के दरबार में पहुंचे. चित्रगुप्त ने उनके कर्मों का लेखा जोखा निकाला तो पाया कि उस व्यक्ति के जीवन में कर्मों का खासा संतुलन था. यानी उसके अच्छे और बुरे कर्म लगभग बराबर थे. चित्रगुप्त ने उस व्यक्ति से कहा कि भाई तुम्हें अगला जन्म पाने से पहले एक वर्ष का नर्क और एक वर्ष का स्वर्ग भोगना होगा. अब तुम्हारे पास एक विकल्प है. तुम पहले जहां भी जाना चाहो, चुन सकते हो. उस व्यक्ति ने इच्छा जताई कि वह पहले दोनों जगहों का मुआयना करना चाहेगा.
चित्रगुप्त ने इस काम के लिए एक यमदूत को लगा दिया. यमदूत पहले उस व्यक्ति को एक बड़े ही भव्य एवं सुसज्जित हॉलनुमा कमरे में ले गया. वहां सुख-सुविधा के सारे साधन थे. विदेशी मदिरा से लेकर अच्छे पकवान तक. सुंदर महिलाएं वहां उपस्थित लोगों की तीमारदारी कर रही थीं. मधुर संगीत बज रहा था. वातानुकूलित माहौल था. पांच सितारा होटल वाली सुविधाएं थीं. यमदूत ने कहा कि यह नर्क है. उससे काफी दूर ले जाने के बाद एक और भवन में प्रवेश कराया. पूरी तरह से ग्रामीण परिवेश था. लोग बिलकुल ही साधारण वेशभूषा में थे. कोई सुख सुविधा नहीं थी. कुएं से खुद ही कुछ लोग जल निकालकर स्नान कर रहे थे.
कुछ लोग खुद ही अंगीठी जलाकर भोजन बनाने की तैयारी कर रहे थे. सोने के लिए बिना बिस्तर लगे खाट थे. थोड़ी गर्मी भी थी और लोग खुद ही पंखा झल रहे थे. यमदूत ने बताया कि यह स्वर्ग है. यह सब दिखाकर यमदूत उसे फिर से चित्रगुप्त के पास ले गया. चित्रगुप्त ने उस व्यक्ति से पूछा कि वह पहले कहां जाना चाहेगा. उस व्यक्ति ने कहा कि यदि चित्रगुप्त उसका निवेदन मानें तो वह अपनी स्वर्ग वाली अवधि भी नर्क में ही बिताना चाहेगा. चित्रकूट में कहा कि उसके कर्मों के संतुलन को देखते हुए यह संभव तो है. परंतु एक बार निर्णय हो जाने के बाद कोई बदलाव नहीं होगा.
व्यक्ति सहर्ष मान गया. अब यमदूत उसे लेकर नर्क के मुख्य द्वार पर पहुंचा. बड़ा सा दरवाजा था. अंदर से कुछ चीखने चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं. दरवाजा खुलते ही अंदर का दृश्य देखकर वह व्यक्ति चौंका. लंबे तड़ंगे यमदूत हाथों में कोड़ा लिए वहां लोगों को प्रताड़ित कर रहे थे. कोल्हू चलाने से लेकर भारी पत्थर उठाने तक का काम करवा रहे थे. जो ऐसा नहीं कर पा रहे थे उनकी पिटाई हो रही थी और वही चीख रहे थे. माहौल काफी कष्टदायक था. उस व्यक्ति ने यमदूत से पूछा कि भाई उसे जो नर्क का स्वरूप दिखलाया गया था, वह तो बिल्कुल ही अलग था. यह तो धोखा हुआ. यमदूत ने कहा कि यह धोखा नहीं है. जो दिखलाया गया, वह तो यमराज का जनसंपर्क कार्यालय था.
बजट के मामले में भी अक्सर ऐसा ही होता है. जो होता है, वह दिखता नहीं और जो दिखता है वह होता नहीं. बजट की घोषणा होते ही बड़े-बड़े विशेषज्ञ अपने अपने तरीके से काम पर लग गए हैं. मीडिया के लोग भी अपने विवेक के अनुसार विश्लेषण कर रहे हैं. जिसको जो समझ में आया बोल रहा है. मगर जिसे समझना चाहिए, उसे अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा है. जैसे प्रत्यक्ष कर की ही बात करें. सात लाख तक की आय पर टैक्स छूट काफी लुभावना लगा. लोग गदगद हो गए. लेकिन बात अब समझ में आ रही है. वैसे पूरी बात तो अगले साल ही समझ में आएगी जब टैक्स देना पड़ेगा. मगर वास्तविकता यह है कि पूरी कवायद इस बात को लेकर है कि कैसे लोगों को पुरानी कर प्रणाली से हटाकर नई कर प्रणाली की तरफ ले जाया जाए. यहां एक और बात समझने लायक है.
कोशिश यह है कि लोग बचत कम करें और बाजार में पैसा ज्यादा लगायें. इसीलिए बचत का विकल्प अनाकर्षक बनाया जा रहा है. बचत करने पर करों में छूट रहने के चलते लोग बचत किया करते थे. लेकिन धीरे-धीरे वे छूट हटाये जा रहे हैं. भारत जैसे गरीब देश में जहां स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा तक में लोगों को अपनी पूंजी पर निर्भर रहना पड़ता है और जहां आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था कमजोर है, वहां यह करना थोड़ा ठीक नहीं. वैसे भी हमारी अर्थव्यवस्था में छोटे घरेलू बचत बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं. पूर्व के मंदी के दिनों में हम पर अपेक्षाकृत कम प्रभाव पड़ा तो उसका एक कारण यह भी था.
बचत से प्रोत्साहन हटाकर उपभोक्तावाद को बढ़ावा देना भारत जैसे देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत कारगर रणनीति नहीं है. हमारे लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था अब भी सही विकल्प है. पश्चिमी देशों के पूंजीवादी मॉडल हमारी संस्कृति और हमारे आर्थिक ढांचे से मेल नहीं खाते. जाने अनजाने कुछ अपवाद को छोड़कर हमारी नीतियों ने बड़े पूंजीपतियों को ज्यादा लाभ पहुंचाया है. जितनी ऊर्जा और जितना ज्ञान आम लोगों के जेब से पैसा निकलवाने में लगाया जा रहा है, उतनी कवायद यदि आम लोगों की आय बढ़ाने में की जाये तो परिणाम ज्यादा बेहतर मिल सकते हैं. बचत प्रोत्साहित करने से आर्थिक सुरक्षा की भावना बढ़ती है. इससे बाजार की मांग पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. सवाल नजरिए और मंशा का है. थोड़ा आम आदमी के विवेक पर भी छोड़ना चाहिए.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.