Faisal Anurag
भारतीय जनता पार्टी का एक प्रिय शब्द है ”मास्टर स्ट्रोक”. भाजपा के थिंक टैंक ने चुनावी मास्टर स्ट्रोक के बतौर नागरिकता संशोधन कानून को अजेय बताया था. बावजूद इसके असम और बंगाल में अपने चुनाव प्रचार में भाजपा अपने इस मास्टर स्ट्रोक की चर्चा से परहेज क्यों कर रही है. भाजपा इन राज्यों में इस मुद्दे को लेकर पूरी तरह भ्रमित दिख रही है. बंगाल में अमित शाह ने ममता बनर्जी पर तुष्टिकरण का आरोप जरूर लगाया है. तुष्टिकरण शब्द का प्रयोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाने और वोटों के ध्रुवीकरण के लिए करते रहे हैं.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह के भाषणों में कहीं भी नागरिकता कानून का जिक्र नहीं हो रहा है. असम में भी भाजपा के तमाम नेता इसे उठाने से बच रहे हैं. दिसंबर 2020 तक भाजपा दावा कर रही थी कि वह मार्च, 2021 से सीएए लागू करने का काम शुरू कर देगी. अमित शाह सीएए के सबसे बडे पैरोकार बन कर उभरे थे. फरवरी में मतुआ मतदाताओं को आकर्षित करते हुए अमित शाह ने कोलकाता में यह जरूर कहा कि कोविड टीकाकरण के बाद सीएए को लागू किया जायेगा. लेकिन बंगाल और असम चुनाव में उनकी वह आक्रामकता खो गयी है, जो उन्होंने लोकसभा में इस सीएए पर बहस के दौरान दिखायी थी.
बंगाल सहित पूर्वोत्तर के राज्यों में सीएए के खिलाफ जोरदार आंदोलन हुए थे. असम में तो भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का सड़क पर निकलना तक मुश्किल हो गया था. असम में सीएए का विरोध देश के अन्य राज्यों में हुए विरोध से थोड़ा अलग था. असम में तमाम बाहरी लोगों के खिलाफ माहौल है.
असम के लोग अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर सजग हैं और वे किसी भी तरह की घुसपैठ को इसके लिए खतरा मानते हैं. असम में घुसपैठियों की पहचान के बाद जो आंकड़े आये, उसने भाजपा की चिंता बढ़ा दी. भाजपा का असम में करोड़ों लोगों की घुसपैठ का दावा गलत साबित हुआ. भाजपा असम औऱ बंगाल में सीएए लागू करने को मुस्लिम विरोध के रूप में दिखाना चाहती रही है. असम में सीएए के विरोध में हुए आंदोलन का मुख्य कारण असम में हर तरह की घुसपैठ है.
विधानसभा में भाजपा के कई सहयोगी उससे अलग हो गये हैं. इसमें बोडो समुदाय की भी एक पार्टी है. भाजपा के गठबंधन की दरार सीएए के कारण भी हुई है. अमित शाह हों या नरेंद्र मोदी, नहीं चाहते कि इन चुनावों में सीएए की चर्चा प्रमुखता से उठे और वह चुनावी मुद्दा बने. वैसे भी भाजपा के जितने भी मास्टर स्ट्रोक कहे जाने वाले कदम रहे हैं, उन्हें कभी भी भाजपा मुद्दा नहीं बनाती है. 2017 के उत्तर प्रदेश चुनावों को याद किया जा सकता है. 2016 में नोटबंदी को नरेंद्र मोदी का साहसी मास्टर स्ट्रोक बताया गया था. लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनावों में नरेंद्र मोदी ने श्मशान और कब्रिस्तान की चर्चा तो की, लेकिन नोटबंदी का उल्लेख तक नहीं किया.
उत्तर प्रदेश में चुनावी जीत के बाद जरूर भाजपा ने उसे नोटबंदी की जीत बताया. भाजपा पूर्वेत्तर के राज्यों पर राजनीतिक नियंत्रण चाहती रही है. बावजूद अपने ही ट्रंपकार्ड को इस्तेमाल नहीं करना बताता है कि भाजपा राजनीतिक भ्रम से पीछा नहीं छुड़ा पा रही है. भाजपा तमिलनाडु और केरल में भी सीएए से बचने का प्रयास कर रही है. लेकिन द्रमुक ने अपने चुनाव घोषणापत्र में सीएए का उल्लेख किया है और कहा है कि वह सत्ता में आयी तो इसे राज्य में लागू नहीं होने देगी. केरल तो भाजपा सीरियन ईसाइयों और मुसलमानों के एक तबके में भी जगह बनाने की कोशिश कर रही है.
नागरिकता कानून बनने के बाद से ही देश भर में इसके खिलाफ कई शाहीनबाग उभर आये थे और दुनिया भर इसकी चर्चा हुई थी. दुनिया के अनेक नागरिक अधिकार संगठनों ने इस कानून को धार्मिक भेदभाव बताया था. सीएए में भारत आये गैर मुस्लिमों को नागरिकता देने की बात कही गयी है. भाजपा बंगाल में तो धार्मिक आधार पर वोट के ध्रुवीकरण के अनेक प्रयास कर रही है. बावजूद इसके वह नागरिकता कानून को लेकर स्पष्ट रुख क्यों नहीं ले रही है, यह एक बड़ा सवाल है. तो क्या भाजपा को भय है कि इस कानून की ज्यादा चर्चा उसकी चुनावी संभावना को रोक देगी. पिछले साल हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में भी शुरू में भाजपा के प्रचार में सीएए और घुसपैठ की चर्चा शामिल नहीं रही. लेकिन अंतिम दौर के चुनाव में भाजपा के आदित्यनाथ ने घुसपैठ को केंद्र में रख कर ही हमलावर रुख बपनाया. बंगाल में मतुआ वोटरों को आकर्षित करने के लिए भाजपा एक तरफ तो तुष्टिकरण की बात कर रही है, लेकिन दूसरी ओर वह सीएए की चर्चा से बचने का हरसंभव प्रयास कर रही है.