उत्तर प्रदेश के तीन नेताओं को मिली है झारखंड की चुनावी वैतरणी पार लगाने की जिम्मेदारी
प्रदेश में संगठन के 5 प्रमुख रणनीतिकारों में इकलौते बाबूलाल मरांडी ही हैं आदिवासी चेहरा
Satya Sharan Mishra
Ranchi: झारखंड की सत्ता का रास्ता राज्य की 28 जनजातीय सुरक्षित सीटों से होकर गुजरता है. वर्ष 2014 में एसटी के लिए सुरक्षित 11 सीटों पर जीत हासिल कर भाजपा ने बहुमत पाया था. 2019 में सिर्फ दो एसटी सुरक्षित सीट हासिल करने पर भाजपा सत्ता से बेदखल हो गयी थी. भाजपा की आदिवासी सीटों से पकड़ कमजोर होने के क्या कारण थे, यह जानते हुए भी एक बार फिर से पार्टी के शीर्ष नेताओं ने रणनीति तो तैयार की है, लेकिन आदिवासी नेताओं को दरकिनार कर गैर आदिवासी नेताओं को फिर से बड़ी जिम्मेदारी दी जा रही है. प्रदेश की चुनावी रणनीति बनाने का जिम्मा मुख्य रूप से पांच नेताओं पर है. इनमें प्रदेश प्रभारी, प्रदेश अध्यक्ष, क्षेत्रीय संगठन महामंत्री, संगठन महामंत्री और विधायक दल के नेता शामिल हैं. विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी को छोड़कर शेष चारों पदों पर बैठे नेता गैर आदिवासी हैं और सभी बाहरी हैं. उन्हें झारखंड और खास कर यहां के जनजातियों के बारे में कितनी और कैसी जानकारी है, यह तो आनेवाला समय ही बताएगा.
इसे भी पढ़ें–हजारीबाग: दो बहुचर्चित हत्याकांड का अब तक खुलासा नहीं, जांच जारी
तीनों नेताओं के लिए नया है राजनीतिक-सामाजिक परिवेश
मिशन 2024 की रणनीति बनाने के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने उत्तर प्रदेश से तीन पदाधिकारियों को झारखंड भेजा है. तीनों ही पदाधिकारी सवर्ण हैं और झारखंड का राजनीतिक और सामाजिक परिवेश इनके लिए बिल्कुल नया है. शुक्रवार को लक्ष्मीकांत वाजपेयी को झारखंड भाजपा का नया प्रदेश प्रभारी बनाया गया है. इससे पहले नागेंद्र नाथ त्रिपाठी को क्षेत्रीय संगठन महामंत्री बनाया गया था. दोनों नेता ब्राह्मण समाज से हैं. कुछ दिन पहले कर्मवीर सिंह को संगठन महामंत्री बनाकर भेजा गया था. सिंह जाट समाज से हैं. वहीं झारखंड भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश कायस्थ हैं.
यूपी में अच्छा प्रदर्शन, पर झारखंड में हैं ढेरों चुनौतियां
उत्तर प्रदेश से झारखंड भेजे गए तीनों नेताओं का यूपी में अच्छा प्रदर्शन रहा है. अपनी रणनीति से विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन कर पार्टी को बड़ी जीत भी दिलाई है. लक्ष्मीकांत वाजपेयी यूपी में भाजपा के बड़े ब्राह्मण चेहरा हैं. 2014 के चुनाव में वाजपेयी यूपी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष थे और पार्टी ने वहां लोकसभा चुनाव में 73 सीटें जीती थीं. इसमें कोई संदेह नहीं कि वाजपेयी समेत तीनों नेता अच्छे रणनीतिकार हैं, लेकिन यूपी और झारखंड का राजनीतिक माहौल और वोटरों का मिजाज बिल्कुल अलग है. झारखंड में इन नेताओं के सामने बड़ी चुनौतियां भी हैं. ये एक-दो दिन के चुनाव प्रचार में नहीं आ रहे हैं. इन्हें 2024 तक झारखंड के एक-एक बूथ तक संगठन को मजबूत करने की जिम्मेदारी मिली है.
इसे भी पढ़ें–अर्थ जगत से अच्छी खबर, डायरेक्ट टैक्स कलेक्शन 35 फीसदी बढ़कर 6.48 लाख करोड़ पहुंचा
आदिवासी कोटे से हो सकता है अगला प्रदेश अध्यक्ष
संगठन के चार प्रमुख पदों पर गैर आदिवासी नेताओं के काबिज होने के बाद यह कयास लगाया जा रहा है कि झारखंड भाजपा का अगला प्रदेश अध्यक्ष आदिवासी होगा. अगर गैर आदिवासी हुआ भी, तो सवर्ण नहीं होगा. दीपक प्रकाश का कार्यकाल जल्द ही समाप्त होने वाला है. चर्चा है कि उनके बाद केंद्रीय नेतृत्व बाबूलाल मरांडी को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेवारी सौंप सकता है. पिछड़ा वर्ग से रघुवर दास के भी नाम की चर्चा है, क्योंकि जोड़-तोड़ की राजनीति में रघुवर माहिर हैं. हालांकि 2019 के चुनाव में भाजपा की करारी हार के लिए उन्हें ही जिम्मेवार ठहराया जाता रहा है. दास खुद भी अपनी सीट से चुनाव हार गए थे. पार्टी के सीनियर नेता रहे सरयू राय से पंगा लेना उन्हें महंगा पड़ा था. रघुवर दास ने जमशेदपुर पश्चिमी से उनका टिकट कटवाया, तो राय ने उनके खिलाफ जमशेदपुर पूर्वी सीट से चुनाव लड़ा और रघुवर दास को चारों खाने चित्त कर दिया था.
आदिवासी चेहरे को आगे कर पर्दे के पीछे से सवर्ण बनाएंगे रणनीति
झारखंड में आदिवासियों के नाम पर राजनीति होती है. आदिवासियों के दिमाग में शुरू से यह भरने का प्रयास किया गया है कि झारखंड का नेतृत्व आदिवासी हाथों में ही रहे. गैर आदिवासियों के हाथ में सत्ता जाने से आदिवासी समुदाय की सभ्यता और संस्कृति को नुकसान होगा. रघुवर दास की सरकार में सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन, 1985 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति का निर्धारण समेत कई ऐसे फैसले लिए गए, जिससे आदिवासी समुदाय का अनुभव गैर आदिवासी मुख्यमंत्री के प्रति ठीक नहीं रहा. इसका खामियाजा भी भाजपा को भुगतना पड़ा और 2019 में रघुवर सरकार की विदाई के साथ जीती गई 9 एसटी सुरक्षित सीटें भी भाजपा को गंवानी पड़ी. सिर्फ खूंटी और तोरपा सीट से ही भाजपा को संतोष करना पड़ा. इससे सबक लेकर 2024 में भाजपा किसी आदिवासी चेहरे को ही सामने रखकर चुनाव लड़ेगी, लेकिन पर्दे के पीछे से काम करने वाले रणनीतिकार यूपी के सवर्ण ही रहेंगे.