Faisal Anurag
विपक्षी दल गठबंधन के बजाय एक दूसरे को ही नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते हैं. जेल,बीमारी और जमानत के ढाई साल बाद पटना लौटे लालू प्रसाद के बयानों ने इतना तो साफ कर दिया है कि आने वाले दिनों में विपक्ष के दलों के बीच गठबंधन के आसार प्रभावित होंगे. 1990 के बाद से कांग्रेस लालू प्रसाद के साथ रही है लेकिन अब वे पूछ रहे हैं गठबंधन क्या होता है यह कांग्रेस नहीं जानती है. विधानसभा चुनाव के समय भी राजद के साथ कुशवाहा,मांझी और साहनी के साथ चलने का वायदा टूट गया था.
उपेंद्र कुशवाहा ओवेसी और भीम आर्मी के साथ चुनाव मैदान में उतरे लेकिन खाता नहीं खोल पाए. थक हार कर नीतीश का दामन थाम लिया. इस समय राजद और वामदल जरूर करीब दिख रहे हैं. जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं उनमें भी विपक्षी दलों के साथ आने के बजाय अलगाव और दूरी के तत्व ज्यादा दिख रहे हैं. जिस ममता बनर्जी ने बंगाल में भाजपा को शिकस्त देने के बाद देश भर में भाजपा के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने की पहल की थी अब अकेली चलती दिख रही हैं. महाराष्ट्र में भी शिवसेना और एनसीपी के साथ कांग्रेस के तनावों की खबर आती रहती है. भारतीय जनता पार्टी के लिए यह राहत देने वाली खबर है कि विपक्ष गठबंधन बनाने के बजाय गठबंधन धर्म एक दूसरे को सिखाने की जद्दोजहद में ही उलझा हुआ है.
बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में पांच दलों का गठबंधन एनडीए के खिलाफ बना था. इसके पहले 2015 के चुनावों में विपक्षी गठबंधन का ही परिणाम था कि भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा था. फिर 2021 में ऐसा क्या हो गया कि कांग्रेस और राजद ने अपने पुराने संबंधों की नींव कमजोर करने की दिशा में कदम उठा लिया है. बिहार में राष्ट्रीय जनता दल सबसे बड़ी पार्टी है. उसका अपना प्रतिबद्ध जनाधार है. इस जनाधार में वह दूसरे दलों के सहयोग से राज्य की राजनीति में प्रभावी होती रही है. लेकिन दो उपचुनावों को लेकर राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन में कांग्रेस और राजद अलग अलग क्यों दिख रहे हैं.
जिस तरह का आक्रामक चुनाव प्रचार है वह तो दोस्ताना संघर्ष से बहुत कुछ ज्यादा है. क्या कन्हैया कुमार ही वह फैक्टर हैं जिन्हें लेकर राजद और कांग्रेस के बीच अनबन है. या फिर कांग्रेस ने भी अकेले चलने का मन बना लिया है. कांग्रेस के शीर्ष नेता तो इस पर खामोश हैं लेकिन बिहार,यूपी और गोवा से मिल रहे संकेत किसी राष्ट्रीय गठबंधन की संभावना के नजरिए से निराशाजनक हैं.
ममता बनर्जी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर के बयानों का संकेत भी यही है कि वे ममता बनर्जी को ही केंद्र में रख कर विपक्ष के दलों के बीच किसी भी गठबंधन की तैयारी कर रहे हैं. इसी मकसद से टीएमसी यूपी और गोवा में चुनाव लड़ने जा रही है. टीएमसी ने कांग्रेस के अनेक नेताओं को अपनी ओर आकर्षित किया है. असम और त्रिपुरा में टीएमसी भाजपा का विकल्प बनने की तैयारी में लगी है. लेकिन असम और त्रिपुरा की राह बंगाल की तरह आसान नहीं है. यह प्रशांत किशोर जानते हैं और इसीलिए कांग्रेस के नेताओं को तोड़ कर टीएमसी में लाने के मकसद से सुष्मिता देब को राज्यसभा में भेज दिया गया है. देब राहुल गांधी के करीब की नेता थी.
बिहार में लालू प्रसाद ने तल्ख और एक तरह से अपमानजनक शब्द का इस्मेताल कांग्रेस के नेता के लिए किया है वह सामान्य नहीं है. विवाद दो उपचुनावों को ले कर हुआ . 2020 के विधानसभा चुनाव में कुशेश्वर स्थान की सीट कांग्रेस को दी गयी थी. लेकिन इस बार राजद ने तारपुर और कुशेश्वर स्थान दोनों से ही अपने प्रत्याशी उतार दिए. कांग्रेस ने भी इसके बाद दोनों पर अपने प्रत्याशी उतारे. आमतौर पर उपचुनावों में इस तरह का दोस्ताना टकराव नया नहीं है. लेकिन नयी बात यह है कि कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल हाने के बाद से ही राजद की नाराजगी बढ़ी है. राजद के कई नेताओं ने कन्हैया कुमार को लेकर तल्ख टिप्पणियां की है. एक गठबंधन में हाने के बावजूद 2020 के विधानसभा चुनाव में कन्हैया और तेजस्वी कभी एक मंच पर नहीं आए. कांग्रेस में पहले से ही एक खेमा अकेले चलने का हिमायती रहा है.
लेकिन आलाकमान ने उसकी महत्वकांक्षाओं को कभी पनपने नहीं दिया. फिर अचानक ऐसा क्या हुआ है कि इस बार बिहार के केंद्रीय प्रभारी ही राजद पर हमलावर हो गए हैं. तय है कांग्रेस अपनी रणनीति पर मंथन कर रही है. लेकिन कन्हैया के कारण ही दूरी बढ़ी है. यह आधा सच है. पर्दे के पीछे की कहानी का सार्वजनिक होना अभी बाकी है.
कांग्रेस इस बात को जानती है कि अकेले दिल्ली दूर है लेकिन 2024 के पहले वह उन राज्यों में कांग्रेस में जान फूंकने का प्रयास कर रही है जहां लंबे समय से कांग्रेस सत्ता से बाहर है. बिहार में कांग्रेस 1990 के बाद से ही सत्ता से बाहर है.
राजद गठबंधन में जरूर वह सत्ता में आयी लेकिन एक छोटे सहयोगी के रूप में. यूपी में प्रियंका गांधी भले ही कांग्रेस को सत्ता नहीं दिला पाएं लेकिन पिछले पांच सालों से कांग्रेस ने एक लड़ने वाले विपक्ष की पहचान बनायी है. अब चुनावी प्रतीज्ञा के रूप में कांग्रेस उस एजेंडा पर कार्य कर रही है जो आज की राजनीति के लिए अजीबोगरीब है. एक नारा लड़की हूं लड़ सकती हूं इसका उदाहरण है. हो सकता है अखिलश यादव और कांग्रेस सीट तालमेल कर लें, लेकिन कांग्रेस ने विपक्ष होने की भूमिका को जिस तरह जिया है वह यूपी में चर्चा का विषय है. विपक्ष के दल जिस तरह चल रहे हैं उससे गठबंधन की संभावना बनती नहीं दिख रही है.