Ayodhya Nath Mishra
संसदीय चुनाव का बिगुल चंद दिनों में बजने वाला है. राजनीतिक दलों ने तो उसकी तैयारी अपने-अपने ढंग से महीनों पहले से प्रारंभ कर दी है. देश चुनावी मोड में आ गया है. सर्वेक्षणों के आधार पर लोग उम्मीदवारों एवं उनकी उपलब्धियों के बारे में अटकलें लग रहे हैं. ऐसे में फ्री एंड फेयर अर्थात निष्पक्ष और स्वच्छ अर्थात त्रुटि हीन चुनाव की अपेक्षा आम जनमानस करता है. जो मतदाता दलीय चारदीवारी में आबद्ध नहीं है, जो मतदाता चुनाव को सत्ता एवं व्यवस्था परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण प्रतीक मानते हैं, उनके लिए सद्भावपूर्ण, शांत चुनावी व्यवस्था बहुत मायने रखता है. भारत जैसे विराट लोकतांत्रिक देश में फ्री एंड फेयर चुनाव संपन्न कराना सर्वाधिक सशक्त चुनाव आयोग द्वारा भी एक चुनौती होता है. इस लोकहित की शाश्वत जनतांत्रिक व्यवस्था को प्रभावित करने के लिए कई तत्व ताक लगाए बैठे रहते हैं. इनमें धनबल, जनबल और तनबल को बड़ा कारक माना जाता है. यह परंपरा कोई नई नहीं है.
राजनीतिक दलों की नीतियों, कार्यक्रमों, अवधारणाओं के प्रति जब जन मानस में असंतोष व्याप्त होने लगा तो प्रकारान्तर से राजनीति ने इनका सहारा लेना शुरू कर दिया. आगे चलकर जो धनी वर्ग, शक्तिशाली वर्ग, बाहुबली समूह राजनीति को प्रकारान्तर से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करता था, वह स्वयं इस अखाड़े में कूदने लगा. राजनीतिक भाषा में कहें तो राजनीतिक दलों के सहयोगी ऐसे पूंजीपतियों एवं शक्तिशाली तत्वों ने राजनीतिक शुचिता को बहुत हद तक प्रभावित किया. इस नेक्सस ने एक अभिनव राजनीतिक संस्कृति को जन्म दिया, जिसके लिए जनहित धीरे-धीरे गौण होने लगा. जन समर्थन से जीतने वाले प्रतिनिधि दाएं बाएं से समर्थन का जुगाड़ बिठाने लगे. उसका परिणाम हुआ, राजनीति की जनप्रतिनिधि धारा बहुत हद तक प्रदूषित होने लगी. सबसे महत्वपूर्ण दुष्परिणाम हुआ कि चुनावी प्रक्रिया के प्रति कुछ मतदाताओं के भरोसे में कमी आने लगी. ऐसे में चुनाव आयोग के लिए भी फ्री एंड फेयर पोल कराना कम चुनौती नहीं रहा. यही कारण है कि आज भी चुनाव में कुछ लोग टीएन शेषन की याद करते हैं.
अपने हिसाब से चुनाव आयोग सतत प्रयोगात्मक ढंग से चुनावी शुचिता की व्यवस्था करता है, परंतु लोग उसमें भी मार्ग निकाल ही लेते हैं. धन बल तब तक प्रभावी होता रहेगा, जब तक लोगों में लालच और डर बना रहेगा. हर छिद्र बंद करने का प्रयास चुनाव आयोग करता है. चुनावी कार्यक्रम संतुलित हो, काले धन का कम से कम प्रवाह हो, डर भय आतंक का साया न हो, किसी प्रकार का दबाव या लोभ-लालच न हो, इसकी व्यवस्था करने में चुनाव आयोग सतत क्रियाशील रहता है. इसके बावजूद चुनाव की निष्पक्षता पर कहीं न कहीं लोग प्रश्न चिह्न खड़ा कर ही देते हैं. संभव है इसके लिए मानवीय भूल भी जिम्मेदार हो.
1952 से ही चुनावी प्रक्रिया में संशोधन एवं सुधार की बातें सामने आने लगी और आज भी कुछ न कुछ प्रतिषेधात्मक , निषेधात्मक बंधेज सामने आते ही हैं. सबसे बड़ा प्रश्न है कि चुनाव में काले धन के प्रवाह को चुनाव आयोग कैसे रोके? राजनीतिक दल विजय को ध्यान में रखते हुए डपोरशंखी आर्थिक घोषणाएं भी करते हैं. न केवल भाषणों में, संवाद में अपितु दलों द्वारा प्रकाशित घोषणा पत्रों में भी एक से बढ़कर एक कमिटमेंट उल्लिखित होते हैं. वोट के लिए “आकाश के तारों को तोड़ना ” भी इनके लिए आसान बात रहती है. अधिकांश घोषणाएं बिना आर्थिक-वित्तीय आधार के होती हैं! हाल ही में मुख्य चुनाव आयुक्त ने संकेत किया है कि दलों को ऐसी घोषणाओं से परहेज करना चाहिए, जिनके प्रसंग में वे वित्तीय आर्थिक उपबंध की बात करने से कतराते हों.
इसका मतलब यह हुआ की राजनीतिक दल बेसिर पैर की बातें बिना आर्थिक आकलन के चुनाव में उछाल देते हैं, आगे भगवान जाने! चुनाव आयोग ऐसी आर्थिक घोषणाओं के प्रसंग में आर्थिक-वित्तीय व्यवस्था की प्रतिबद्धता के लिए राजनीतिक दलों को बाध्य करें या निषेधात्मक कानूनी प्रावधान करें. चुनाव खर्च को सीमित किया जाना भी बहुत आवश्यक है. आज जो प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष चुनावी खर्च होता है, वैसी दशा में कोई सामान्य ,गरीब, राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध अभाव ग्रस्त उम्मीदवार आगे आने की हिम्मत नहीं करेगा! लोकतंत्र में शुचिता के लिए यह आवश्यक है कि सभी प्रकार के लोगों का प्रतिनिधि सभा में समावेश हो सके, लोक प्रतिनिधित्व मिल सके. तभी लोकतंत्र की परिभाषा चरितार्थ होगी.
इसी के साथ चुनावी संसाधनों के संसीमन पर भी विचार आवश्यक है. एक उम्मीदवार कितनी पब्लिसिटी करें, कितनी गाड़ियां दौड़ें, कितने लाउडस्पीकर बजें, कितने पंपलेट पोस्टर होल्डिंग्स लगें, सोशल मीडिया विज्ञापन, मीडिया में विज्ञापन आदि का विनियमन हो. अन्यथा होता यह है कि नामांकन के दिन से ही शक्ति प्रदर्शन, संसाधनों का भोंडा प्रदर्शन सामने आने लगता है. यद्यपि दुनिया का सबसे बड़ा हमारा लोकतंत्र क्रमशः सशक्त, निर्भीक और परिपक्व होता जा रहा है, फिर भी आदमी होता है तो गुण दोष युक्त ही. इसलिए चुनाव आयोग की भूमिका सर्वथा अहम होती है. अव्वल तो यह होगा कि कानूनी उपबंध के आलोक में राजनीतिक दलों की मशरूमिंग को निरुत्साहित किया जाए, चुनावी व्यवस्था के लिए इलेक्शन फंड सृजित किया जाए और दलों के ऊपर उपलब्धियां आधारित आवंटन किया जाए. इस फंड में सहभागिता के लिए व्यक्ति/संस्थानों को कानूनी उपबंध के तहत कर आदि में रिबेट देय हो. आदर्श तो यह होगा जब किसी भी दल को चुनाव में एक पैसा व्यय की अधिकारिता न हो. इसी के साथ निर्वाचित होने के लिए मतानुपात, एक से अधिक क्षेत्रों से उम्मीदवारी पर प्रतिबंध, बाई एलेक्शनल की दशाएं आदि विभिन्न विंदुओं पर संसदीय लोकतांत्रिक आदर्श हेतु ठोस कदम उठाने की चुनौती है. अपेक्षा है, चुनाव आयोग भविष्य में सरकार, राजनीतिक दल, मतदाताओं, विशेषज्ञों आदि के साथ सम्यक संवाद आधृत संस्तुति को बेहतर लोकतांत्रिक भविष्य के लिए स्वरूप दे.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.