Chandil (Dilip Kumar) : झारखंडी समाज बांदना और सोहराय की तैयारियों में मग्न है. पर्व को लेकर लोग अपने घर आंगन को सजाने-संवारने और उसको आकर्षक रूप देने का काम कर रहे हैं. इस अवसर पर घर, दीवार, आंगन को रंग-बिरंगे परंपरागत पेंटिंग से सजाया जा रहा है. इसमें रंग-बिरंगी मिट्टी और प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है. काली पूजा व दीपावली के साथ ही बांदना और सोहराई पर्व मनाया जाता है. यह एक प्रकार से पशुधन और कृषि उपकरणों के प्रति कृषक समाज का कृतज्ञता जताने का अवसर है. जीवन-यापन के लिए कृषि कार्य में विशेष सहयोग करने के कारण पशुधन और कृषि उपकरणों का आभार जताते हैं.
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इस अवसर पर समाज के किसान वर्ग के लोग अपने पशुधन और कृषि उपकरणों की पूजा करते है. पशुधन से सुख समृद्धि की कामना करते हैं. इसके साथ ही लोग अपने गांव, समाज और परिवार के साथ मवेशियों के सुख एवं समृद्धि के लिए पारंपरिक रीति रिवाजों के अनुरूप अपने आराध्य देव की आराधना करते हैं. चांडिल अनुमंडल क्षेत्र में इन दिनों चुनाव महापर्व के साथ बांदना व सोहराई का विशेष उल्लास देखा जा रहा है.
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बांदना में गरइआ पूजा का है विशेष महत्व
गरइआ पूजा बांधना पर्व का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. इस दिन घर के किसान दंपत्ति उपवास रहते हैं. घर-आंगन की साफ-सफाई के बाद महिलाएं चावल का गुड़ी कुटती हैं. फिर अलग से चूल्हा बनाकर उसे गाय के दूध से मिलाकर का पीठा छांकती हैं. किसान घर के खेती-बाड़ी में प्रयोग होने वाले हल समेत अन्य औजारों की पूजा घर के बाहर तुलसी ढीपा में करते हैं. इसके बाद गोहाल यानी गोशाला में गरइया पूजा की जाती है. इस दौरान कहीं-कहीं मुर्गा की बलि दी जाती है. इसके बाद चावल के गुड़ी को घोल कर चौक पूरा जाता है यानि आंगन में अल्पना अल्पना बनाया जाता है. इसमें सबसे पहले चौक के शीर्ष भाग में गोबर रखा जाता है। उसके ऊपर एक सोहराय घास देकर सिंदूर का टीका लगाया जाता है. इसके बाद एक बछिया से उसे लंघवाया जाता है. बांदना के अवसर पर किसान बैलों की पूजा करते हैं. पूजा के तीन दिन पहले से गाय व बैलों को अच्छी तरह से नहलाया जाता है. इसके बाद शाम को उनके सिंग पर सरसों का तेल लगाया जाता है. कार्तिक पूर्णिमा की शाम को बैलों की पूजन के साथ उनकी आरती उतारी जाती है.
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बांदना गीतों पर ढोल-नगाड़ों के साथ नचाए जाएंगे बैल
बांदना पर्व के अंतिम दिन पारंपरिक नृत्य व गोरू खूंटा का आयोजन किया जाता है. इसमें बैलों को आकर्षक रूप से सजा कर ढोल-नगाड़ों की थाप पर नचाया जाता है. वहीं, सोहराई पांच दिनों का त्योहार है, जो कार्तिक अमावस्या से प्रारंभ होकर पांच दिनों तक चलता है. पर्व के पहले दिन गोट पूजा किया जाता है. शाम को महिलाएं गाय बैलों का चुमावन करती है. इस दिन ढेंगवान के द्वारा ढोल, नगाड़े के साथ बांदना गीतों से गाय-बैलों को जगाया जाता है. दूसरे दिन दाकाई माहा में पूजा अर्चना की जाती है. जबकि तीसरे दिन गोरू खूंटा का आयोजन किया जाता है. इसमें आकर्षक रूप से सजाए गए बैलों को एक मजबूत खूंटे से बांधकर मांदर, ढोल व नगाड़े की ताल पर बांदना गीतों की धुन पर नचाया जाता है. चौथे दिन जाजले माहा और पांचवें दिन सोड़े माहा मनाया जाता है. बांदना पर्व के दौरान पशुधन के अलावा कृषि यंत्रों को धान का मोड़ यानी मुकुट पहनाया जाता है. धान की बाली से बने मोड़ पहनाने के पीछे का उद्देश्य होता है कि जिस अनाज को जिन गाय-बैल व कृषि यंत्रों की बदौलत उपजाया गया है, उसे सबसे पहले उसी के सिर पर चढ़ा कर उन्हें समर्पित किया जाता है.