Dr. Pramod Pathak
भले ही हम इसके प्रति उतनी चिंता ना जतायें, लेकिन मौसम का मिजाज मानवता के भविष्य के लिए ठीक नहीं दिख रहा. धरती माता का आक्रोश अब स्पष्टतया दृष्टिगोचर है. और यह ठीक भी है. हम लोगों ने धरती को उसकी क्षमता से ज्यादा प्रताड़ित कर दिया है. पर्यावरणविद की भाषा में इसे ‘कैरिंग कैपेसिटी’ कहा जाता है. हमने उससे बहुत ज्यादा बोझ धरती पर डाल दिया है. जाहिर है उसके संयम की सीमा है. दीवार पर लिखी इबारत स्पष्ट है- बदलो या नष्ट हो जाओ. अप्रैल और मई के महीने में जो तापमान हम लोगों ने देखा वह यही संकेत दे रहा है कि आने वाला समय और भयावह होगा. और यह अतिशयोक्ति नहीं है. वैज्ञानिक और भौगोलिक आकलन पर आधारित एक कटु सत्य है. जलवायु परिवर्तन का असर पूरी दुनिया पर दिख रहा है. जिन देशों पर प्रकृति मेहरबान थी और जो ठंडे देश माने जाते थे वहां भी गर्मी से लोग परेशान हो रहे हैं. कभी यूरोप के देशों में गर्मी से लोग अनभिज्ञ हुआ करते थे. अब वहां के लोग भी 35 और 40 डिग्री का तापमान झेल रहे हैं. खाड़ी देश जो गर्म देश थे, उनकी स्थिति और भयावह होती जा रही है. तापमान 50 डिग्री के इर्द-गिर्द घूम रहा है. भारत का जहां तक सवाल है तो यहां की समस्या तो और भी जटिल है.
बढ़ती आबादी और घटते जल के स्रोत एक बड़ी आपदा के संकेत दे रहे हैं. यानी अब जागरूकता काफी नहीं, त्वरित कार्रवाई चाहिए. ज्ञात हो कि आज से कोई पांच दशक पहले 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष पर्यावरण पर चिंता करने के लिए जुटे थे. भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी उसमें शामिल थीं. पर्यावरण की स्थिति आज उससे बहुत आगे निकल चुकी है और यथाशीघ्र कुछ ठोस करना होगा.विश्व पर्यावरण दिवस और पृथ्वी दिवस मनाना काफी नहीं होगा. प्रश्न है कि क्या होना चाहिए. सबसे पहले तो यह समझना होगा कि जलवायु परिवर्तन को रोकना कुछ थोड़े से पढ़े लिखे अभिजात्य वर्ग के लोगो के बश की बात नहीं. अब तो जनसमुदाय को जोड़ना होगा.
जनभागीदारी ही इसका एकमात्र समाधान है. बड़े-बड़े सेमिनार और शोध के दायरे से बाहर निकलकर हर आदमी को उसका दायित्व समझाना पड़ेगा. कार्बन ट्रेडिंग और ग्रीन टेक्नोलॉजी जैसे मुहावरे बहुत कारगर होंगे, इसमें संदेह है. आज आवश्यकता है उस आम आदमी को पर्यावरण के प्रति उसकी जिम्मेदारी का एहसास कराने की और उसे पर्यावरण बचाने का एक प्रतिबद्ध सिपाही बनाने की.
हमने पर्यावरण का क्या हाल बना दिया है, यह झारखंड के एक केस स्टडी से समझा जा सकता है. कभी झारखंड दक्षिण बिहार का पठारी क्षेत्र हुआ करता था और भूगोल की किताबों में इसके मौसम की चर्चा की जाती थी. उस समय के अप्रैल के मौसम और इस समय के अप्रैल के मौसम की तुलना करें समझा जा सकता है कि हमने प्रकृति का कितना विनाश किया है. बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी के रूप में स्थापित रांची में एक समय था जब गर्मी के दिनों में भी पंखा चलाने की उतनी आवश्यकता नहीं पड़ती थी. हर दो-तीन दिन पर बारिश और ओले मौसम को ठंडा बना देते थे. आज उसी रांची की, जो अब झारखंड की राजधानी है, क्या स्थिति है, हम देख रहे हैं. आखिर यह बदलाव कैसे आया. तो सबसे पहला कारण था हरियाली का नष्ट होना. झारखंड नाम के अनुरूप झाड़ झंखाड़ का प्रदेश हुआ करता था.
आज प्रदेश तो है, झाड़ झंखाड़ लुप्त हो रहे हैं. उनका स्थान कंक्रीट के जंगलों ने ले लिया है. बेतरतीब बनी ऊंची इमारतें अब सड़क के दोनों ओर दिखाई पड़ती है. और जो पेड़ पौधे और पुटुश के जंगल दिखा करते थे, वह लुप्त होते जा रहे हैं. इतना ही नहीं, अब उन इमारतों में पंखे से काम नहीं चलता. वातानुकूलित मशीन चाहिए. घड़े के पानी से काम नहीं चलता रेफ्रिजरेटर चाहिए. कमरे और पानी तो ठंडे हो गए, लेकिन वातावरण गर्म हो गया.यही वह दुष्चक्र है, जिसमें हम फंसते जा रहे हैं. गर्मी पड़ती है, हम उपकरण का इस्तेमाल कर राहत पाते हैं. पर्यावरण और गर्म होता है. हम और उपकरण लगाते हैं. यह सिलसिला अंतहीन है. यही नहीं पेयजलापूर्ति के लिए भी हम ऐसा ही कुछ कर रहे हैं. शुद्ध पानी पाने के लिए हम उपकरण लगाते लगाते हैं.
आरओ की प्रक्रिया से हम पानी शुद्ध करते हैं. लेकिन एक बोतल पानी शुद्ध करने के चक्कर में हम तीन बोतल पानी बर्बाद करते हैं. धरती के पानी के स्रोतों को भी हम बर्बाद कर रहे हैं.पानी निकालने के लिए हम बोरिंग करवाते हैं. भूजल नीचे जाता है. फिर हम और गहरा बोरिंग करवाते हैं. प्रक्रिया बदस्तूर चलती रहती है. हम यह भूल जा रहे हैं कि जल के स्रोतों के दोहन की सीमा है. आने वाले दिनों में पानी का संकट विकराल रूप लेने वाला है. दरअसल पर्यावरण की समस्या टेक्नोलॉजी से नहीं सुधरने वाली. लोगों का मनोविज्ञान बदलना होगा. संसाधनों के शोषण की जगह संरक्षण का मॉडल अपनाना पड़ेगा. अपने इर्द-गिर्द से शुरू करना पड़ेगा. रीसायकल, रीयूज और रीमैन्युफैक्चर यानी पुनरइस्तेमाल की प्रवृत्ति अपनानी पड़ेगी. संसाधनों की बर्बादी पर अंकुश लगाना पड़ेगा. हमारी छोटी-छोटी आदतें बड़ा बदलाव लाएंगी.
पानी बचाएं, बिजली बचाएं, भोजन बर्बाद न करें. पर्यावरण का स्वास्थ मानव के स्वास्थ्य की तरह ही है. जिस तरह मानव के स्वास्थ्य को दोषपूर्ण जीवनशैली से कई बीमारियां होती हैं, वही बात पर्यावरण पर भी लागू होती है. पर्यावरण की ज्यादातर समस्या मानव की दोषपूर्ण जीवनशैली के कारण है. इसमें बदलाव लाने की आवश्यकता है. एक छोटी सी नजीर काफी होगी. शादी विवाह की बड़ी-बड़ी पार्टियों में कितना भोजन बर्बाद होता है, यह किसी से छुपा नहीं है. क्या वह संसाधनों का दुरुपयोग नहीं है? दरअसल हम उपभोग की संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं. आवश्यकता है उपयोग के संस्कृति को अपनाने की.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.