Ranchi : गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले, कुपोषित और खेतिहर लोगों के लिए मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने विशेष कार्ययोजना बनाने की वकालत की है. हालांकि सीएम ने इससे पहले ऐसे लोगों की मनःस्थिति समझने को भी आवश्यक बताया है. सीएम ने ये बातें नीति आयोग की सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (एसडीजी) इंडिया इंडेक्स और मल्टीडाईमेंशनल प्रोवर्टी इंडेक्स विषय आयोजित कार्यशाला में कहीं. यह कार्यशाला राज्य सरकार के प्लानिंग एंड डेवलपमेंट डिपार्टमेंट द्वारा आयोजित की गयी थी. कार्यशाला में वित्त मंत्री रामेश्वर उरांव, मुख्य सचिव सुखदेव सिंह, विकास आयुक्त अरुण कुमार सिंह, मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव राजीव अरुण एक्का, मुख्यमंत्री के सचिव विनय कुमार चौबे, नीति आयोग की सलाहकार संयुक्ता समाना व अन्य उपस्थित थे.
खनन क्षेत्रों को लेकर भी सीएम ने रखे विचार
कार्यशाला में हेमंत सोरेन ने खनन क्षेत्रों को लेकर भी अपनी बातें प्रमुखता से रखीं. उन्होंने कहा कि कोल इंडिया के क्षेत्र में राज्य सरकार विकास का कार्य नहीं कर सकती. खनन प्रभावित क्षेत्र के लोग लाल पानी पीने को विवश हैं. यूरेनियम की खदान वाले क्षेत्र में बच्चे अपंग जन्म ले रहे हैं. ये वरदान है या अभिशाप. अगर इन सब का सही प्रबंधन हो तो इस राज्य को प्रगति से नहीं रोका जा सकता है.
सस्टेनेबल डेवपलमेंट पर फोकस जरूरी
सीएम ने कहा है कि पूर्व में केवल खनन और खनिज पर ही ध्यान केंद्रित किया गया. इससे दलित, वंचित और आदिवासी पीछे रह गये. योजनाएं और बजट तो बनी, लेकिन वास्तविकता आज कुछ अलग है. उन्होंने सस्टेनेबल डेवपलमेंट पर भी विशेष फोकस किया. कहा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, शुद्ध पेयजल, लोगों की आय में बढ़ोतरी, लैंगिक समानता जैसे विषयों पर आगे बढ़ना काफी चुनौतीपूर्ण है. सरकार के पास संसाधन सीमित हैं. ऐसे में सतत विकास से वर्तमान के साथ भविष्य की पीढ़ियों को भी सशक्त किया जा सकता है. सीएम ने नीति आयोग के अधिकारियों से कहा कि आज जरूरत ग्रामीणों के आर्थिक संसाधनों को बढ़ाने की भी है. जरूरी है कि सरकार इसमें सहयोग करे. सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप कार्य योजना बनाने पर आयोग विशेष ध्यान दें. साथ ही ग्रामीणों की क्रय शक्ति कैसे बढ़े, इसपर भी विचार करें.
मुख्यमंत्री ने कहा कि मनरेगा के तहत सबसे कम पारिश्रमिक झारखंड का है, जिससे ग्रामीण लोग योजना के तहत काम नहीं कर शहर की ओर रुख करते हैं. केंद्र सरकार द्वारा वनोउत्पाद का जो मूल्य तय किया गया है. वह बेहद कम है. आदिवासी सदियों से जंगल में रहते आ रहे हैं. जंगल उनकी आजीविका का साधन भी है. ऐसे में आदिवासी अगर वनोउत्पाद के साथ पाये जाते हैं तो पुलिस उनपर वनों को लेकर बनाये गए कानून के तहत कार्रवाई करती है, इससे उन्हें परेशानी हो रही है.