Nishikant Thakur
पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर पर लिखी किताब में वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय लिखते हैं कि ‘चंद्रशेखर वेश बदलने में यकीन नहीं करते. प्रधानमंत्री बनने पर उसी धोती—कुर्ता में उन्हें कहीं पाकर आम आदमी का आत्मबल बढ़ा. सार्क में उनका भाषण परंपरा के मुताबिक लिखा गया था. उसे उन्होंने एक ओर रख दिया. वे धाराप्रवाह बोले.’ इसका तो इस लेख के लेखक भी स्वयं साक्षी रहा है, जब पंजाब के पठानकोट में 30 सितंबर 2001 को एक सम्मेलन के दौरान उनके साथ मंच साझा करने का अवसर मिला था. उन्होंने पोडियम पर रखे सारे भाषण को एक ओर रख दिया और धारा प्रवाह भाषण देना शुरू किया. उनकी वाणी के ओज को देख—सुनकर सब दंग रह गए थे. बिल्कुल ग्रामीण वेशभूषा का व्यक्ति जब इस प्रकार श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर रहा हो, तो स्वाभाविक रूप से उनका आत्मबल बढ़ता है. बदले भेष में मंच पर या सांसद के किसी भी सदन में कभी किसी ने नहीं देखा. यही तो आज चर्चा का विषय है जिससे सत्तारूढ़ भाजपा में खलबली मची है. विपक्षी पार्टियों का कहना है कि यदि वर्तमान सरकार फिर से सत्तारूढ़ होती है, तो फिर देश में कभी कोई चुनाव होने वाला नहीं है. खासकर कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर काफी चिंतित है कि यदि यही सरकार फिर से सत्ता में आएगी, तो किस प्रकार सत्ता के बल पर विपक्ष को खत्म कर देगी और तानाशाही रवैया अपनाते हुए देश को उद्यमियों के हाथों में गिरवी रख दिया जाएगा, इसे कोई नहीं जानता.
आगे भविष्य में क्या होगा, यह तो अभी स्पष्ट रूप से कोई नहीं कह सकता, लेकिन इतना तो तय है कि जिस प्रकार छापेमारी के बल पर, सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स का डर दिखाकर देश को भ्रमित किया जा रहा है, ऐसा इससे पहले किसी भी सरकार ने नहीं किया. आजादी के बाद का इतिहास यदि देखा जाए तो किसी सरकार के कार्यकाल में समाज से इन सरकारी हथकंडों के बल पर धन उगाही नहीं की गई. अभी पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड को लेकर जो कुछ भी कहा, उससे तो यह बात साफ हो गई कि वर्तमान केंद्र सरकार ने तरह—तरह के नए—नए कानून बनाकर कालाधन को बढ़ावा दिया और अपनी पार्टी के लिए देश के लगभग हर जिले में अपना कार्यालय बनाया. यह सब जनता का दोहन ही तो है. अब आगे क्या होगा? इस बात को कहने के लिए विपक्ष सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों को उदाहरण के रूप में पेश करते हैं. पहला तो यह कि सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक करार दिया. दूसरा चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में कराए गए हेरफेर को. कहते हैं कि यह इलेक्टोरल बॉन्ड तो काले धन के रूप में अकूत सत्तारूढ़ दल के पास पड़ा है और चंडीगढ़ मेयर चुनाव के हेरफेर को यह कहकर बताते हैं कि यह चोरी तो आज पकड़ी गई, अन्यथा जबसे भाजपा सत्ता में आई है, तभी से सत्तारूढ़ दल द्वारा इसी अवैध तरीके से चुनाव लड़ा और जीता है.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस महागठबंधन को धता बताकर केंद्र में सत्तारूढ़ दल के साथ अपना पाला बदला, उससे तो लगने यही लगा था कि और बड़े—बड़े राजनीतिज्ञ अपना आकलन करने लगे कि अब महागठबंधन समाप्त हो गया. ऐसा इसलिए कि महागठबंधन तैयार करने में एक उनकी भी भूमिका महत्वपूर्ण थी और सच में उसके एक स्तंभ माने जा रहे थे, लेकिन किस राजनीतिक लोभ के कारण उन्होंने अपना पाला बदला, देश इसे लेकर अभी भी संशय में है. इसी प्रकार देश के कई जाने—माने नेताओं का पलायन या हॉर्स ट्रेडिंग शुरू कर दी गई, जिससे लगने लगा कि अब महागठबंधन समाप्त हो जाएगा. लेकिन, यह तो मात्र उन नेताओं को महागठबंधन में परखना था कि वे उनके साथ हैं या नहीं. ऐसे बेपेंदी के लोग डर से उसी तरह समुद्र में कूद पड़े, जिस तरह पानी में डूबते जहाज से चूहे कूद पड़ते हैं.
शायद इस नए गठबंधन से उनका भरोसा उठ गया अथवा वे नेता सत्तारूढ़ की इस धमकी से डर गए, जो सत्तारूढ़ की ओर से ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स का दिखाया जाता है. यह बात समझ में नहीं आती कि आखिर ये नेता चुनाव काल में ही इतने भ्रष्ट क्यों हो जाते हैं, क्यों विपक्षियों के घर या दफ्तर पर छापे पड़ने लगते हैं. इसका एकमात्र उद्देश्य केवल धन एकत्र करना अथवा समाज में उनको अपमानित करना ही है. अगर ऐसा नहीं है तो वह कौन सा कारण होता है कि चुनाव काल में ही सभी विपक्षियों के यहां छापे पड़ने लगते हैं. उसमें भी यह बात समझ में नहीं आती कि क्या सभी भ्रष्टाचारी विपक्षी दलों में ही हैं? सत्तारूढ़ दल का एक भी व्यक्ति या नेता भ्रष्ट नहीं है?
अब लोकसभा 2024 के चुनाव में यह देखना होगा कि देश की जनता तरह—तरह के पोज देने वाला वस्त्रादि बदलने वाले नेता को चुनकर अपनी गलती फिर से दोहराना चाहती है अथवा नए उत्साही, पढ़े—लिखे को अपना अमूल्य मत देकर अपने देश के विकास के मार्ग को प्रशस्त करना चाहती है. अब यह चुनाव होने में और देश का कायाकल्प होने का समय करीब आता जा रहा है, किसी दूसरे को भी देश चलाने का अवसर मिलना चाहिए. दस वर्ष तक गुमराह होकर सत्ता के प्रति विश्वास रखना अब खतरे के निशान को पार कर गया है. इसलिए देश में सत्ता परिवर्तन होना ही चाहिए. ऐसा इसलिए, क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया गया, तो सरकार निरंकुश हो जाती है. ऐसी निरंकुश शासन व्यवस्था कई देशों में देखी भी गयी है, लेकिन कहा यह भी जाता है कि एक—न—एक दिन बदलाव जरूर आता है, फिर चाहे सष्टि हो या सरकार, सबमें बदलाव अवश्य आता है. अब जनता अपने भारत में भी जुमलों को सुन—सुनकर आजिज आ चुकी है, इसलिए उसके मन में बदलाव की मानसिकता तो है, लेकिन यह तो जनतंत्र है. जब तक समाज का बहुमत नहीं होगा, किसी एक की सोच से कोई बदलाव होने वाला नहीं है. परिवर्तन के लिए लोकतंत्र में सामूहिक प्रयास तो आवश्यक है ही.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.