Faisal Anurag
क्या कांग्रेस आज की चुनौतियों से निपटने में सक्षम है ? पिछले सात साल से यह सवाल पूछा जा रहा है. कांग्रेस अपनी स्थापना की 137 वीं वर्षगांठ मना रही है. लेकिन इस कार्यक्रम को लेकर राजनीतिक हलकों में चर्चा नहीं के बराबर है. एक ओर भारतीय जनता पार्टी ने 2014 में केंद्र की सत्ता में आते कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह एक मशहूर जुमला भी है. इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के सबसे बुरे दिनों के बावजूद भाजपा किसी भी अन्य दल की तुलना में कांग्रेस,कांग्रेस के नेताओं और उसकी विरासत को खतरा मानते हुए उस पर सबसे ज्यादा प्रहार करती है.
इस आक्रमण का नतीजा तो यहां तक है कि न तो पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के योगदानों का वह वस्तुपरक मूल्यंकन करती है और न ही अभी 1971 के बांग्लादेश के समय के युद्ध में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम का उल्लेख तक करना प्रधानमंत्री मोदी ने गंवारा किया. राजनीतिक वंशवाद और विरासतों पर भाजपा के हमले का एकसूत्री मकसद नेहरू गांधी परिवार ही होता है. इससे जाहिर है कि कांग्रेस के नेहरू गांधी के विचारों में कुछ तो ऐसी बात है जिसे आरएसएस और भाजपा अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानती है. नेहरू की धर्मपिरपेक्षता की द्ढ़ता, विज्ञान सम्मत सामाजिक संस्कृतिक प्रवृति और लोकतंत्र के प्रति अटूट निष्ठा भाजपा की परेशानी का सबब है.
स्थापना दिवस पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति को मिटाने की कोशिश हो रही है. देश का आम नागरिक असुरक्षित महसूस कर रहा है. लोकतंत्र व संविधान को दरकिनार किया जा रहा है, ऐसे में कांग्रेस चुप नहीं रह सकती.नफरत और पूर्वाग्रह में बंधी विभाजनकारी विचारधाराएं और जिनकी हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में कोई भूमिका नहीं थी, अब हमारे समाज के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर कहर ढा रही है. यह वह वैचारिक नजरिया है, जिसे भारतीय जनता पार्टी और आएसएस बदलने की कोशिश कर रही है. कांग्रेस और आजादी के संघर्ष की विरासत उसकी राह में बार बार रोड़ा बन कर खड़ी होती है. राहुल गांधी ने जिस तरह हिंदू बनाम हिंदुत्व की बहस को पांच राज्यों के चुनाव के समय उठाया है उससे भी जाहिर होता है गांधी और नेहरू के सर्वधर्म सद्भाव- धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद के सहारे वह इस सांगठनिक संकट की घड़ी में पूरी ताकत के साथ उठाने के लिए तत्पर है.
दरअसल कांग्रेस इस समय जिन चुनौतियों से रूबरू है उसमें आंतरिक संकट कहीं ज्यादा प्रमुख है. कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं का ग्रुप 23 के विरोधी रूख और उनमें से कुछ के भाजपा मोह की हकीकत अब किसी से छुपी नहीं है. कांग्रेस जब कभी अपने बुनियादी वसूलों से हटी है, उसे नुकसान उठाना पड़ा है. 1977,1989 और 1996 इसे उदाहरण हैं. कांग्रेस ने वामोन्मुखी मध्यमार्ग का रास्ता बदलने का प्रयास किया और उसे चुनावी नाकामयाबियों का सामना करना पड़ा. 2014 के बाद के हालात तो इससे कहीं ज्यादा पेचीदा हैं, क्योंकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में संकीर्ण राष्ट्रवाद,सांप्रदायिकता और दक्षिणपंथी विकास का एक फ्यूजन बन गयी है. एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी धार्मिक प्रतीकों के सहारे चुनावी जीत की गारंटी की रणनीति को अंजाम देते हैं तो दूसरी ओर आर्थिक सुधारों के नाम नवउदारवादी नीतियों को अंजाम दे रहे है. यहां तक कि कृषि के सांस्कृतिक और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पूरी तरह बदलने पर आमदा दिखते हैं. एक ओर नरेंद्र मोदी विरासत विकास का रिश्ता लोगों को बता रहे हैं तो दूसरी ओर समाजिक विज्ञान चेतना को पुरातनपंथ की ओर भी धकेल रहे हैं
इस वैचारिक संघर्ष में कांग्रेस एक धुरी है. विपक्ष के वे नेता जो कभी कांग्रेस के हिस्सा रहे हैं, इस वैचारिक संघर्ष से पीछा छुड़ाते नजर आते हैं. लेकिन कांग्रेस की भी एक बड़ी दिक्कत है कि उसका एक तबका अब इतिहास,विरासत और वैचारिक दृढ़ता के बजाय व्यवहारिक बनने के लिए दबाव बना रहा है. कांग्रेस ने आर्थिक नीतियों में भी नवउदारवाद को चुनौती देने के बजाय उसका पिछलग्गू बनना चाहती है. निजीकरण,कारपारेट असमानता और नियंत्रण का विरोध करने के बावजूद उसके पास कोई ऐसा नजरिया नहीं दिखता जो इस वैश्विक नवउादारवादी संकट से निकलने का रासता बताए. जवाहरलाल नेहरू में उस दौर में मिश्रित अर्थव्यवस्था के सहारे सार्वजनिक उद्मों का जाल बिछाया, जिस समय दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की दुनिया आर्थिक एकाधिकारवाद की ओर जा रही थी.
1991 में जब इन नीतियों को पूरी तरह बदल गया उस समय कांग्रेस के ही नरसिंह राव और मनमोहन सिंह नेतृत्व कर रहे थे. 2019 में राहुल गांधी ने कहा था कि 1991 के आर्थिक सूत्र 2019 में अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं. लेकिन नया रास्ता और विकल्प तो गढ़ने में अभी तक वे कारगर नहीं दिखे हैं. दरअसल यही भ्रम और अंतरविरोध है जिसे हल किए बगैर कांग्रेस बाहरी और आंतरिक चुनौतियों का पूरी ताकत से शायद ही सामना कर पाए. धर्मपिरपेक्षता,सेंटर टू लेफ्ट अर्थनीति का नया संस्करण और सांस्कृतिक तौर पर एक विज्ञान सम्मत राष्ट्रवाद के बगैर कांग्रेस की दिक्कतें शायद ही कम हो सकेंगी.