Kanupriya
कश्मीर फिर अशांत हो गया, 370 हट गई, लॉकडाउन हो गया, दुनियाभर के पत्रकारों पर रोक लगा दी, कश्मीरी नेताओं को साल भर कैद रखा, क्या हुआ?
कश्मीरियों की कमाई मुख्यतः टूरिज़्म पर टिकी होती है, फिर भयंकर ठंड पड़ती है, तब इसी कमाई पर गुज़ारा चलता है, उनके टूरिस्ट महज एक उनके धर्म के ही नहीं होते, हर धर्म के लोग जाते हैं वहां, उनकी रोज़ी रोटी इन टूरिस्टों से चलती है, इसलिए उनका धार्मिक यक़ीन कुछ भी हो वो बेहतरीन मेहमान नवाज़ होते हैं. भले उनका धार्मिक ईश्वर कोई हो वो अपने कंधों पर टूरिस्टों को लादकर उन टूरिस्टों के धर्म की यात्राएं करवाते हैं क्योंकि ईश्वर का स्थान भी भूख के बाद है, भूखे भजन न होई गोपाला. इसलिए मेरी सामान्य बुद्धि में ये बात घुसती नहीं कि आतंक से आम कश्मीरियों को क्या लाभ होता है सिवा पेट पर लात पड़ने के.
घाटी में आतंक रोकने की जिम्मेदारी किसकी है? लोग कहते हैं पहले नहीं था, मगर अब तो कश्मीर भारत का हिस्सा हो गया न? क्या कश्मीर के साथ और उसकी जनता के साथ अब भी दोगला व्यवहार किया जाएगा? आतंक की जिम्मेदारी प्रत्यक्ष रूप से आतंकवादियों और अप्रत्यक्ष रूप से घाटी के सर ही मढ़ी जाएगी? क्या सेना की गुप्तचर सेवा में कमी है? सुना है कि बिन्द्रू की हत्या का अंदेशा पहले ही था. क्या सीमा पर घुसपैठ से सुरक्षा की कमी है? क्या वहां चप्पे-चप्पे पर सेना नहीं है? क्या हथियारों की ख़रीद में कमी है? या भारत सरकार ने सख़्ती में कोई कमी कर दी.
एक मूवी देख रही थी, उसमें एक अमेरिकी जो कभी इराक़ में तैनात था, अपना अनुभव बताते हुए कहता है कि जब तक हमारी पलटन वहां थी, एक भी अमेरिकी सैनिक नहीं मरा, फिर जब हम वापस आ गए और हमारी जगह नए सैनिक पहुंचे तो उन्होंने हमसे राय लेने की ज़रूरत नहीं समझी और एक महीने में 7 सैनिक शहीद हो गए. क्या अंतर था? हमने लोकल लोगों के साथ भरोसे और सहयोग का रिश्ता क़ायम किया था, जबकि उन्होंने हथियार और बल पर ज़्यादा यक़ीन किया.
कल एक महाशय यहां लिख रहे थे, वेश्या के कोठे से गया बीता है सेकुलर कोठा, कश्मीरी हिंदू सिखों के लिये उनके भीतर कोई दर्द नहीं, देखें राहुल अब कश्मीर के हिन्दू सिखों को गले लगाने जाते हैं या नहीं. ऐसे लोगों को अब जवाब देने का मन नहीं करता,तुरन्त अमित्र किया. मज़ेदार बात है कि सिखों के लिये दर्द महसूस करने वाले ये लोग पूरे किसान मूवमेंट को महज इसलिये खालिस्तानी कहते हैं कि उनमें सिख हैं. कश्मीरी पंडितों के दर्द का इन्होंने ही ठेका लिया हुआ है, जबकि पिछली बार कश्मीरी पंडितों के पलायन के समय भाजपा के जगमोहन ही राज्यपाल थे और अब जब पलायन हो रहा है तब सब कुछ इन्हीं के कंट्रोल में है.
कभी-कभी ये भी लगता है कि पाक समर्थक आतंकवादियों का भारत सरकारों से कोई अनकहा गठजोड़ है, हमेशा मौके पर ही चौका मारते हैं, जिसका फ़ायदा उन्हें तो जाने क्या मिलता है, कभी समझ नहीं आया, मगर सीधा फ़ायदा यहां की धार्मिक राजनीति को ज़रूर होता है.
कोविड की चिताएं ठंडी हो चुकी हैं, अब कश्मीर से बह रही हवा उत्तरप्रदेश की धार्मिक भावनाओं के शोलों को फिर जगाने के काम आएगी.
कल हरियाणा में बीजेपी सांसद की गाड़ी से फिर से रौंदे गए किसानों का ज़िक्र अख़बारों में नहीं है, उत्तरप्रदेश सुर्खियों से ग़ायब है, उसकी जगह फिर से कश्मीर ने ले ली है, उसमें भी 21 कश्मीरी मुसलमानों के मरने का जिक्र नहीं है, सिर्फ़ 3 हिंदू सिखों के मरने पर फ़ोकस है, सिखों की भावनाएं भी मैनेज की जा रही हैं.
कश्मीर उत्तरप्रदेश का चुनाव जितवा सकता है, आख़िर भारत एक है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.