Faisal Anurag
चिराग पासवान के बंगले में आग लग गयी है, लेकिन यह आग उन के चाचा और चचेरे भाई ने ही लगायी है. बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड को नुकसान पहुंचाने वाले चिराग पासवान इस बार नीतीश कुमार के खेल में फंस गए हैं. चिराग के छह में पांच सांसदों ने उन्हें ही पार्टी के तमाम पदों से हटा दिया है. नरेंद्र मोदी मंत्रीमंडल के विस्तार की संभावानाओं के बीच रामविलास पासवान की खड़ी की गयी विरासत के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है. चिराग पासवान के खिलाफ उनके ही चाचा पशुपति पारस ने मोर्चा संभाल रखा है. ये वही पारस हैं, जो रामविलास पासवान की छाया बन कर संसद और विधानसभा तक पहुंचते रहे हैं.
एक दलित नेता के बतौर रामविलास पासवान की पहचान रही है. बिहार की राजनीति में उनकी अहमियत को कभी नजरअंदाज नहीं किया गया. वे देश के बड़े राजनैतिक मौसम विज्ञानी के रूप में भी जाने जाते रहे हैं जो राजनीतिक हवा भांप कर राजनीति में दोस्त बनाने में माहिर माने जाते रहे. चिराग पासवान को पार्टी की विरासत रामविलास पासवान ने ही दिया था, लेकिन पशुपति पारस कभी भी रामविलास पासवान की छाया से दूर नहीं गए. यह पहला अवसर है जब वे मरने के बाद अपने भाई की विरासत को चुनौती दे रहे हैं.
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार भाजपा के दबाव से बाहर निकलने के लिए अपनी पार्टी का दायरा बढ़ाने में लगे हैं. उनके निशाने पर विपक्ष के विधायक और नेता हैं. राष्ट्रीय जनता दल तो उनके निशाने पर 2017 के बाद से ही है. लेकिन उसमें दरार डालने में कामयाब नहीं हुए हैं. बिहार की राजनीति में पूर्व समाजवादी जिस तरह का खेल कर रहे हैं, उसमें किसी राजनैतिक मूल्य की तलाश करना तो बेमानी ही होगी. दिल्ली की सरकार में नीतीश कुमार चाहते हैं कि उनके प्रतिनिधि को कैबिनेट मंत्री बनाया जाए. पिछली बार नरेंद्र मोदी कैबिनेट में उनके किसी प्रतिनिधि को लेने को तैयार नहीं हुए. तब नीतीश ने मंत्रीमंडल में शामिल होने से ही इंकार कर दिया था. अब संभावना व्यक्त की जा रही है, चिराग से अलग हुए पांचों सांसद जदयू में शामिल होंगे. इससे लोकसभा में जदयू की बारगेनिंग क्षमता बढ़ेगी और बिहार की राजनीति में भाजपा के दबाव को कम किया जा सकेगा.
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि रामविलास पासवान ने जिन दलितों का वोट बैंक बनाया था. क्या वे भी चिराग पासवान का साथ छोड़ देंगे. यह तभी संभव है, जब पशुपति पारस रामविलास पासवान का उत्तराधिकारी खुद को साबित कर पाएं. राम विलास पासवान ने अपने जीवन काल में ही अपने वोटरों के बीच उत्तराधिकारी के बतौर चिराग को स्थापित कर दिया था. इस समय चिराग अपने जीवन काल के सबसे बड़े राजनैतिक संकट में हैं. बिहार के पिछले चुनाव में उन्होंने नीतीश कुमार की लुटिया डुबोने का तो पूरा प्रयास किया.
लेकिन नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ नहीं बोले. यहां तक माना गया कि वे भाजपा की इच्छा के अनुकूल ही जदयू का विरोध कर रहे हैं. भाजपा और नरेंद्र मोदी के लिए कमजोर चिराग पासवान का महत्व नहीं के बराबर है. वे भाजपा में शामिल होने का दावं खेल सकते हैं, लेकिन यह भी उनकी राजनीतिक हार की ही होगी, क्योंकि नीतीश कुमार को नाराज शायद ही भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व करे. चिराग के आगे की डगर बेहद कठिन दिख रही है. सिद्धांत और मूल्यहीन सत्तादौड़ का हश्र कुछ ऐसा ही होता आया है.