Dr. Santosh Manav
बगोदर से सीपीआई-एमएल के विधायक विनोद सिंह को झारखंड के उत्कृष्ट विधायक का सम्मान देने की घोषणा हुई, तो महेंद्र सिंह की याद आई. गरीबों-दमितों के महेंद्र सिंह. ईमानदारी की प्रतिमूर्ति. लोकतांत्रिक मूल्यों को जीने व उसके लिए लड़ने वाले महेंद्र सिंह. सादगी के सिंह. आडंबर से दूर. सहज-सरल-साहसी. याद कीजिए कि कैसे भीड़ से हत्यारों ने पूछा- तुम सब में कौन है महेंद्र सिंह, तो सामने आकर बोले- मैं हूं महेंद्र सिंह. बोलो, क्या कहना है ? उन्हें पता था कि पूछने वालों का इरादा नेक नहीं है. वे चाहते तो भीड़ में गुम हो सकते थे. पर मौत के आगे भी उन्होंने सीना अड़ा दिया. उसी फौलादी साहसी राजनीतिक के सुपुत्र हैं विनोद सिंह-योग्य पिता के सुयोग्य संतान. बगोदर से तीन बार के विधायक. विनोद सिंह के बहाने न सिर्फ महेंद्र सिंह का स्मरण हुआ, यह सवाल भी कौंधा कि झारखंड में दूसरा महेंद्र सिंह क्यों नहीं है? क्या यह अब संभव हो पाएगा? क्या जिस व्यवस्था के हम आदि हो चले हैं, उसमें महेंद्र सिंह की कल्पना बेमानी है?
कुछ पीछे चलते हैं. जाड़े की ठिठुराती रात हो, झुलसाती गर्मी की शाम या टिपटिप करती बरसात की ढलती दोपहर महेंद्र सिंह कभी-कभार ही सही झुमरीतिलैया में मिल जाते. तब अपन 17-18 की कच्ची उम्र में पत्रकार कहलाने लगे थे. दिन तो कॉलेज में कटता, शाम कस्बे की सड़कों पर चहलकदमी में बीतती. कस्बे में तीन-चार छोटे होटल थे. एक था शीतलछाया, अब भी है. उसी होटल के बाहर चाय के ठेलों-टपरियों पर लाल सलाम वाले महेंद्र सिंह दिख जाते. कभी होटल की पहली मंजिल के किसी कमरे की चौकी पर. तीन-चार समानधर्मा साथियों के साथ. चाय का प्याला और गरमा-गरम बहस. लाल रंग की हीरो होंडा मोटरसाइकिल होटल के बाहर दिखे, तो समझते महेंद्रजी ही होंगे – होटल या आसपास. मिलते तो खास स्टाइल में लाल सलाम और चाय. लालच होता कि एक खबर बन जाएगी. खबर बनती थी. फिर बहस का दौर आया. धर्म-जाति-कुनबे की राजनीति. दमितों के सवाल. भय-भूख-बेईमानी. वे अपने से लगने लगे. आंखें ढूंढती. टपरियों पर शब्द झरते-महेंद्रजी बहुत दिनों से नहीं आए ? मोबाइल का जमाना नहीं था. दो-चार-छह माह में एक मुलाकात. वे कहते – आप जैसे युवा सामने आएंगे, तो समाज – देश बदलेगा. वे अपने साथ, पार्टी के साथ जोड़ना चाहते थे कदाचित. चार-छह मुलाकात के बाद वह गुमसाती गर्मी की शाम थी. मई की देर शाम. चाय की टपरी पर दिखे. हुलसकर मिले. बात हुई. बोले-आज रुकने की समस्या है. मैंने कह दिया-देख लीजिए. दिक्कत हो तो मेरे ठिकाने पर आ सकते हैं. घर से दो सौ मीटर दूर मेरा दो कमरे का ठिकाना/अड्डा था. अब भी है. एक चौकी पर बिस्तर है और एक खाली खटिया भी. फिर उनसे विदा ली. लौट आया. रात साढ़े दस बजे मोटरसाइकिल की आवाज. ढक-ढक—महेंद्र सिंह थे. साथ थे बरही के पत्रकार जावेद इस्लाम. जावेद और महेंद्र सिंह मसहरी लगी चौकी पर सो गए. अपन खटिया पर. गर्मी ने इस विधायक को परेशान नहीं किया. सुबह कुएं से खुद पानी खींच स्नान हो गया. मोटरसाइकिल की डिक्की से रेजर निकला. बिना क्रीम सेविंग हो गई. नौ बजे से पहले ही मोटर साइकिल खुल गई-ढक-ढक-ढक. महेंद्र सिंह चले गए. वह अंतिम मुलाकात थी. फिर वे नहीं मिले. 92 में शहर छूट गया.
बारह-चौदह साल बाद. नागपुर शहर. एक हिन्दी अखबार ‘लोकमत समाचार’ का दफ्तर. रात की शिफ्ट. खबर आई-झारखंड में विधायक की हत्या. पीटीआई की वह मनहूस खबर मेरे ही हाथ आई थी – ओह ! महेंद्रजी. 92 से अब तक आंखें निहारती है- कोई नेता वैसा मिल जाए, दिख जाए, कहीं किसी मोड़ पर. अफ़सोस. नेता तो मिलते हैं. महेंद्र सिंह नहीं मिलते. नेता सैकड़ों मिले. शराब ऑफर करने वाले. काली कमाई में अपादमस्तक डूबे मिले. खबर को दोस्ती का जरिया बनाने वाले मिले. राजनीति को व्यवसाय मानकर चलने वाले, न शील न संस्कार. ख्याल में भी जनता नहीं. जनता न हुई, प्रजा हुई. पैसे के जोर, जाति की सौगंध, धर्म की आड़, प्रचार के बल पर अपने खूंटे से बांध ही लेंगे. उनकी क्यों सोचा जाए!
हम जिस समय में हैं. हम जिस व्यवस्था में हैं, वहां सकारात्मक उमीद भी कैसे हो? विधानसभा के चुनाव में पांच करोड़ खर्च करने वाला महेंद्र सिंह होने की कैसे सोचेगा? जहां पार्टी का टिकट ही ‘घर’ गिनकर बांटी जाए, आर्थिक हैसियत देखकर दी जाए, बाहुबल आंक कर ऑफर की जाए, वहां महेंद्र कैसे होंगे? पर राजनीतिक दल ही क्यों, हम क्यों नहीं? हमारे वोट का आधार क्या है. पार्टी, प्रचार का बवंडर, जाति-धर्म की धुरी या और कुछ ? जब तक हम उम्मीदवार की ईमानदारी, काबिलियत को नजरअंदाज करेंगे, योग्य प्रतिनिधि कैसे पाएंगे. जनता के लिए संघर्ष किनारे कर जाति नाम केवलम होगा, तो प्रतिनिधि पा जाएंगे, योग्य प्रतिनिधि नहीं होंगे. लोग सवाल उठाते हैं कि विधानसभाओं में अब बहस नहीं होती, हंगामा होता है. महेंद्र सिंह जब बिहार या झारखंड की विधानसभा में बोलते थे, शांति होती थी, ऐसा कि सुई भी गिरे, तो आवाज सुनाई दे. अब ऐसा नहीं है. तर्क की जगह हंगामा है. आंकड़ों की जगह अकड़ है. विधायक पढ़ते ही नहीं. पढ़ने से एलर्जी है. जब नोट की माया में हों, तो पढ़ेंगे भी कैसे?
विनोद सिंह कहते हैं कि महेंद्र सिंह संघर्ष की उपज थे. वे एक लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए किसी से भी टकराने की हिम्मत रखते थे. संघर्ष का दौर खत्म नहीं हुआ है. इसलिए महेंद्र सिंह आएंगे या कहिए कि उनसे भी बेहतर नेता आएंगे. विनोद सिंह भी पिता की राह पर हैं. बगोदर की जनता उनमें महेंद्र सिंह का अक्श देखती है. उम्मीद है कि वे पिता के काम को आगे बढ़ाएंगे.