Dr. Prem Singh
करीब 15 दिन पहले मैंने एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र से कहा कि लोकसभा चुनाव को दो महीने भी शेष नहीं बचे हैं, राहुल गांधी तफरीह करते घूम रहे हैं. मित्र ने शायद कुछ नाराजगी से उत्तर दिया, वे तफरीह नहीं कर रहे हैं. हम दोनों के बीच इस विषय पर संवाद वहीं समाप्त हो गया.
हालांकि, मैं पूछना चाहता था कि तफरीह नहीं कर रहे हैं, तो क्या भारत जोड़ो न्याय यात्रा सचमुच लोकसभा चुनावों में सरकार बदलने की दिशा में एक प्रयास है? अथवा चुनाव जैसी तात्कालिक चीज से परे, भारतीय राजनीति का बिगड़ा नेरेटिव बदलने की दिशा में किया जाने वाला एक दीर्घावधि प्रयास है? इस यात्रा पर राहुल गांधी को शाबाशी देने वाले बुद्धिजीवी ही इस मुनासिब सवाल पर प्रकाश डालें तो बेहतर होगा. एक साधारण नागरिक और राजनीतिक कार्यकर्ता के नाते मुझे राहुल गांधी की यह यात्रा उपर्युक्त दोनों लक्ष्यों से पूरी तरह रहित नजर आती है.
गठन के पहले दिन से ही विपक्षी पार्टियों के इंडिया गठबंधन के पूर्व कांग्रेस-नीत उपपद (प्रीफिक्स) लगा हुआ है. यह कांग्रेस का कर्तव्य था कि वह पूरी जिम्मेदारी और ईमानदारी से गठबंधन के साथ चुनाव की तैयारी में लगती. लेकिन कांग्रेस ने हाल में सम्पन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में गठबंधन-धर्म का निर्वाह नहीं किया. केवल चुनावों में हुए नुकसान की बात नहीं है, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा चुनावों में सहयोगी दलों को भी शामिल कर लिया जाता तो उसका अखिल भारतीय स्तर पर एक प्रभावशाली संदेश जाता. एक मोमेंटम बन जाता, जो लोकसभा चुनावों तक उत्तरोत्तर तेजी पकड़ता जाता.
विधानसभा चुनावों के बाद भी कांग्रेस ने गठबंधन को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई. होना तो यह चाहिए था कि किसान संगठनों, मजदूर संगठनों और छात्र संगठनों को साथ लेकर साझा रैलियों का सिलसिला पूरे देश में शुरू कर दिया जाता. सभी भारतीय भाषाओं में गठबंधन के कार्यक्रमों के साझा पोस्टर, पर्चे, बैनर आदि पूरे देश में लगाए जाते. इसके चलते गठबंधन में शामिल पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच एकजुटता बनती और मतदाताओं में भाजपा-नीत एनडीए के खिलाफ एक मजबूत विकल्प होने का विश्वास पैदा होता.
इसे आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा कि राहुल गांधी ने विधानसभा चुनावों के बाद भारत जोड़ो न्याय यात्रा शुरू कर दी. मानो कांग्रेस के सामने 2024 का लोकसभा चुनाव कोई बड़ी चुनौती न हो. दूसरे शब्दों में, संवैधानिक मूल्यों, लोकतांत्रिक संस्थाओं और नागरिक अधिकारों पर आया अभी तक का सबसे गहरा संकट कांग्रेस के लिए वास्तविक चिंता की बात न हो.
यात्रा में उन राज्यों को भी शामिल किया गया जहां बीजेपी के खिलाफ गठबंधन में शामिल पार्टियों की मजबूती है. मानो कांग्रेस पूरे देश में अकेले चुनावी दिग्विजय की ताकत रखती हो. मजेदार यह है कि कांग्रेस की खाम-खयाली को बहुत-से प्रगतिशील बुद्धिजीवी और नागरिक समाज ऐक्टिविस्ट हवा देते रहे. कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ की जो राजनीति देश में चल रही है, नरेंद्र मोदी उसके अभी तक के सबसे बड़े खिलाड़ी हैं. कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ की राजनीति के पथ पर कब किसका इस्तेमाल करना है और इस्तेमाल के बाद कब किसको फेंक देना है–यह वे अच्छी तरह जानते हैं. दिवंगत नेताओं को भारत-रत्न देकर इस पथ को उन्होंने और प्रशस्त कर दिया है. कहने की जरूरत नहीं कि अचानक की गई भारत-रत्न पुरस्कारों की बौछार प्राप्त-कर्ताओं के प्रति सम्मान का प्रदर्शन नहीं, चुनावी युक्ति भर है.
भारत-रत्न की ‘महिमा’ है कि कर्पूरी ठाकुर का बेटा एक बार फिर एनडीए में चला गया है; चौधरी चरण सिंह का पोता दादा को मिले भारत रत्न के बदले चवन्नी की तरह पलट कर एनडीए के साथ हो गया है; नरसिम्हा राव की बेटी अपने पिता को गुमनामी से बाहर निकालने के लिए प्रधानमंत्री की धन्यवादी है. पुरस्कार देने वाले और वारिस होने का दावा करने वाले ये लोग इतने छोटे हैं कि सत्ता की हड्डी का एक टुकड़ा पाने के लिए पुरखों का सौदा कर रहे हैं. इन्हें देख कर संदेह होता है कि देश के सर्वोच्च अवॉर्ड से नवाजे गए इन नेताओं ने वाकई देश और समाज के लिए कुछ सार्थक किया था?
चौधरी चरण सिंह को मिले भारत-रत्न के अवसर पर संकेत उपाध्याय द्वारा किया गया राकेश टिकैत का एक इंटरव्यू देखने को मिला. संकेत उपाध्याय सहजता से गंभीर बात करने में माहिर हैं. राकेश टिकैत ने चौधरी चरण सिंह को भारत-रत्न देने का स्वागत किया, लेकिन कई किंतु-परंतु के साथ. उन्होंने पूंजीपतियों से आदेशित सरकार द्वारा फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) न देकर, बिल्डरों के लिए किसानों की जमीनें खरीदने की चाल से सावधान करते हुए कहा कि आने वाले दिनों में किसान आंदोलन अवश्यंभावी है. याद कर सकते हैं कि तीन कृषि कानूनों के खिलाफ हुए अभूतपूर्व किसान आंदोलन का सही राजनीतिक दिशा में उपयोग नहीं हो पाया. यानी कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ की राजनीति के विरोध में उठे उस आंदोलन की ऊर्जा उसी राजनीति में खप कर व्यर्थ हो गई. यह भी याद किया जा सकता है कि महेंद्र सिंह टिकैत के किसान आंदोलन को किशन पटनायक ने गंभीरता से लेते हुए ‘टिकैत की किताब’ शीर्षक पुस्तिका जारी की थी. हमारे जैसे युवाओं के लिए वह थोड़ा चौंकाने वाली बात थी.
1991 में वित्तमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने यह कहते हुए कि कोई अन्य विकल्प नहीं है, भारत की अर्थव्यवस्था को बजारवादी शक्तियों के लिए खोला था. किशन पटनायक ने उसी संदर्भ में ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ का सुचिंतित विचार देश के सामने रखा था. तब हम नहीं समझ पाए थे कि उन्होंने ‘टिकैत की किताब’ क्यों लिखी? हालांकि, अब उनकी बात अच्छी तरह हमारी समझ में आती है.
कॉरपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ की राजनीति हर पल नई सनसनी पैदा करते हुए आगे बढ़ती है. ताकि समाज विकल्प के विचार और संभावना के प्रति विस्मृति का शिकार बना रहे. यह बौद्धिक-वर्ग की भूमिका है कि वह ऐसा न होने दे.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.