Deepak Ambashta
केंद्रीय मंत्री और कद्दावर नेता नितिन गडकरी का कद अनायास नहीं घटा दिया गया. चेतावनी, संकेतों और निर्देशों से बेफिक्र गडकरी का यही हश्र होना था. नितिन गडकरी केंद्र में परिवहन मंत्री हैं और काम करने वाले मंत्री के रूप में उनकी पहचान है, वह गाहे-ब-गाहे प्रधानमंत्री मटेरियल के रूप में भी सामने आते रहे हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के चहेते भी हैं. फिर ऐसा क्या हुआ कि उन्हें भारतीय जनता पार्टी के संसदीय बोर्ड से बाहर होना पड़ा. ध्यान रखना होगा कि नितिन गडकरी नागपुर से आते हैं, जहां आरएसएस का मुख्यालय है. निर्विवाद रूप से संघ के करीब रहे गडकरी ऐसे राजनेता हैं, जिन्हें आगे लाने के लिए संघ ने अपने बेहद प्रिय प्रमोद महाजन के भी पर कतर दिए थे. फिर क्या हुआ कि गडकरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसदीय बोर्ड से हटा दिया तो समझ लें गडकरी जिस तरह बेलगाम टिप्पणियां कर रहे थे, उससे सरकार के साथ-साथ भाजपा और संघ की स्थिति भी बिगड़ रही थी. गडकरी के बयानों के माध्यम से विपक्ष संघ और सरकार दोनों की फजीहत कर रहा था.
कहा तो यह जा रहा है कि गडकरी के बयानों से सरकार से अधिक संघ ही असहज था. यही कारण है कि संघ की नजर में गडकरी की रेटिंग गिर गई और इशारा मिलते ही भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें किनारा करने की प्रक्रिया शुरू कर दी. समझा जाता है कि अगर गडकरी अभी भी नहीं रुके तो हो सकता है उनके खिलाफ आगे भी कार्रवाई हो. गडकरी अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं और यह कोई उनकी नई लत नहीं है. महाराष्ट्र मंत्रिमंडल में रहते हुए भी उनके बयान अक्सर अपनों को ही घायल कर दिया करते थे. उनका यह अंदाज कभी बदला नहीं, लेकिन परिस्थितियां बहुत बदल गई हैं इसे समझने में शायद गडकरी चूक गए हैं.
ध्यान होगा 2019 में भारतीय जनता पार्टी राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हार कर सत्ता से बाहर हो गई थी. नितिन गडकरी ने अपने एक तल्ख बयान से भाजपा और संघ दोनों को परेशानी में डाला था. उनका बयान तब आया था, जब विधानसभा चुनाव के परिणाम आए थे और लोकसभा चुनाव सिर पर थे. गडकरी ने कहा था कि जो राजनेता लोगों को सपने बेचते हैं, लेकिन उन सपनों को हकीकत में बदलने में विफल रहते हैं, उन्हें जनता द्वारा पीटा जाता है. उनके इस बयान को विपक्ष ने हाथों हाथ लिया था. खासकर कांग्रेस, जो इन राज्यों में सत्ता में लौटी थी. यह बयान ऐसा था, जिसे सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला समझा गया था. साथ ही, संघ की भी इससे किरकिरी हुई थी, क्योंकि समझा यही गया कि संघ की मर्जी से गडकरी के बयान हैं, पर ऐसा था नहीं.
तब भी गडकरी को समझाया गया था कि वह ऐसे बयानों से बचें, लेकिन गडकरी रुके नहीं. मामला तब और गंभीर हो गया, जब कुछ महीने पहले गडकरी ने कह डाला कि वह सोचते हैं कि अब राजनीति से किनारा कर लें, क्योंकि राजनीति अब जनसेवा का माध्यम नहीं रह कर केंद्रित शक्ति होकर रह गई है. यह बयान न तो संघ ने ही भाजपा को रास आया और न आ सकता था. हुआ भी वही. नतीजा था कि गडकरी संसदीय बोर्ड से बाहर कर दिए गए, लेकिन गडकरी रुके नहीं. उन्होंने फिर कहा है कि समय से फंड नहीं मिलता है. काम नहीं हो पाता. निर्णय लेने में अनावश्यक विलंब किया जाता है.
गडकरी की बातें, उनके बयान हकीकत के नजदीक हैं. इनमें सच्चाई भी है, लेकिन सवाल है कि ऐसी सच्चाई पसंद कौन करता है? फिर सरकारें अपना रवैया क्यों बदलें ? परिणाम यही है कि गडकरी जैसे योग्य मंत्री, अच्छे प्रशासक किनारे कर दिए जाएंगे. इससे किसी पार्टी, किसी सरकार का भला हो सकता है, लेकिन क्या इससे देश का भी भला होगा?