Sachin Kumar Jain
सरकार का बहुत बड़ा रणनीतिक सपना है कि हमारा किसान अंतर्राष्ट्रीय कृषि बाज़ार में जाकर प्रतिस्पर्धा करे और देश का विकास करे. न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकार के संरक्षण पर निर्भर न हो.
हम यह भूल जाते हैं कि भारत के किसान के पास पूंजी और संसाधन नहीं हैं. भारत में वर्ष 2016 में जोत का औसतन आकार 1.08 हेक्टेयर मात्र था. जोतें लगातार छोटी होती जा रही हैं, अतः इसी स्थिति को ध्यान में रख कर कृषि में सुधार करना होगा. देश में 1 हेक्टेयर से कम आकार की 12.59 करोड़ जोतें थी, जबकि 1 से 4 हेक्टेयर के बेंच के आकार की 1.93 करोड़ और 4 से 10 हेक्टेयर की 8.3 लाख जोतें थी. सरकार चाहती है कि किसान खेती छोड़ें, और उनकी जमीन इकठ्ठा करके बड़ी कंपनियों के हाथों में सौंप दी जायें.
इस सोच के साथ “सुधार” की नीतियां अपनायी जा रही हैं. इन सुधारों का सबसे अहम हिस्सा है, कृषि सब्सिडी यानी कृषि क्षेत्र में दी जा रही रियायतों को कम से कम करना.
जब रियायतें कम होंगी तो उत्पादन की लागत बढ़ेगी और बाज़ार में कीमतें भी. इसका असर व्यापक समाज पर पड़ेगा. अमेरिका और यूरोप जैसे देश कृषि पर भारत से 50 से 300 गुना ज्यादा सब्सिडी देकर उत्पादन लागत को कम देते हैं और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लेते हैं.
सब्सिडी की इस असमानता का प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कृषि उपज की कीमतों पर पड़ता है. कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की रिपोर्ट (2020-21) बताती है कि दूसरी तिमाही में भारत में गेहूं का थोक मूल्य 1909 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1925 रुपये क्विंटल था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में गेहूं 1639 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहा था.
भारत में जब जौ का थोक मूल्य 1518 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1525 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में जौ 742 रुपये प्रति क्विंटल के भाव में मिल रहा था.
भारत में धान का थोक मूल्य 1698 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1815 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में 2038 रुपये प्रति क्विंटल था.
मक्के के मामले में भारत अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में टिकता ही नहीं है. हमारे यहां मक्के का थोक भाव 1839 रुपये प्रति क्विंटल और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1760 रुपये प्रति क्विंटल है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में 1188 रुपये प्रति क्विंटल था.
भारत में ज्वार का थोक भाव 2373 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में इसके आधे से कम कीमत थी –1163 रुपये.
इसके दूसरी तरफ दालों का उत्पादन कम होता है और उसे आयात करना पड़ता है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में उसकी कीमतें ज्यादा होती हैं. भारत में चने का थोक मूल्य 4102 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 4875 रुपये प्रति क्विंटल था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में चने का मूल्य 5518 रुपये था. यही बात मसूर (भारत– 4800 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 5513 रुपये), अरहर (भारत –5800 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 4982 रुपये), उड़द (भारत –5174 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 6997 रुपये) के लिए भी लागू होती है.
भारत को खेती और खाद्य सुरक्षा के मामले में सबसे पहले अपनी जमीन, संसाधन और किसानों का हिता देखना चाहिए. खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भरता की सबसे पहला लक्ष्य होना चाहिए, बजाये मुनाफाखोरी को संरक्षण प्रदान करने के. ऐसा नहीं है कि कृषि में निजीकरण और कॉर्पोरेटीकरण करने के बाद भारत की सब्सिडी कम होगी; वस्तुस्थिति यह है कि सरकार बड़े व्यापारिक घरानों को सब्सिडी प्रदान करेगी.
भारत में कृषि सब्सिडी और विश्व व्यापार संगठन
भारत जैसे देशों की सरकारें डब्ल्यूटीओ में जाकर समझौता कर आती हैं और आम जनता को अपनी मजबूरी बताती हैं कि देखिए, अब हमें अपनी सब्सिडी कम करना ही होगी, नहीं तो डब्ल्यूटीओ में हमारे ख़िलाफ़ कार्यवाही होगी. इससे हमारी दुनिया में छवि ख़राब होगी और विदेशी निवेश नहीं आएगा. ऐसा करते हुए वास्तव में सरकार संसद और संविधान को एक किनारे रख देती है. डब्ल्यूटीओ में भारत का पक्ष क्या होगा, यह निर्णय संसद को पूरा विश्वास में लेकर नहीं होता है.
यह समझना जरूरी है कि सब्सिडी क्यों दी जाती है? कृषि क्षेत्र में सरकार रियायत इसलिए देती है ताकि उत्पादन लागत कम रहे और उत्पादन लागत कम होगी तो बाज़ार में कीमतें संतुलित रहेंगी. यही कारण है कि कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार तय करती है. यह माना जाता है कि जैसे ही सरकार का नीतिगत और आर्थिक दखल कृषि कीमतों पर सीमित होगा, बाज़ार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण उतना ही बढ़ेगा. किसान उनके सामने अपनी शर्तें रख कर व्यापार नहीं कर पायेगा क्योंकि उसे पास इतनी पूंजी नहीं है कि वह हर कृषि मौसम में कीमतों के सही स्तर पर आने का इंतज़ार करे या अपनी उपज का भंडारण खुद करके रख सके.
भारत में केंद्र और राज्य सरकारें मुख्य रूप से उर्वरकों, बिजली, सिंचाई के लिए रियायत देती हैं. इसके साथ ही किसानों को जो कृषि ऋण दिया जाता है, उस पर उनसे कम ब्याज लिया जाता है. तो ब्याज के प्रचलित मूल्य और किसानों से वसूल किये जाने वाले ब्याज का अंतर भी सब्सिडी ही होता है. इसके अलावा फसल बीमा की प्रीमियम के एक भाग का भुगतान भी सरकार करती है, वह भी रियायत की श्रेणी में आता है. और एक महत्वपूर्ण हिस्सा है मूल्य समर्थन का. न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदी करके सरकार आपातकालीन स्थितियों, खाद्य सुरक्षा, किसानों को संरक्षण और मूल्यों के नियंत्रण के लिए भण्डार सुरक्षित रखती है. इसके लिए भी कृषि सब्सिडी का इस्तेमाल किया जाता है.
15वें वित्त आयोग के लिए कृषि सब्सिडी पर कराये गये एक अध्ययन में लिखा है कि भारत सरकार उर्वरक (70 हज़ार करोड़ रुपये), ऊर्जा (91 हज़ार करोड़ रुपये), ऋण पर रियायत (20 हज़ार करोड़ रुपये), सिंचाई (17.5 हज़ार करोड़ रुपये), फसल बीमा (13 हज़ार करोड़ रुपये) और मूल्य समर्थन (24 हज़ार करोड़ रुपये) पर कुल मिलाकर 2.355 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी देती है. यह समझना होगा कि यह सब्सिडी आखिर में जाकर भारत में अनाजों की कीमतों को नियंत्रित रखती है, भारत में खाद्य सुरक्षा की स्थिति बना कर अंदरूनी खुशहाली और शान्ति का निर्माण करती है.
सरकार इस सब्सिडी को कम से कम करना चाहती है. क्योंकि कीमतों पर सरकार का नियंत्रण रहने से खुले बाज़ार और कॉर्पोरेट्स का नियंत्रण स्थापित नहीं हो पाता है.
क्या भारत में दी जाने वाली 2.355 लाख करोड़ रुपये (लगभग 36अरब डॉलर) की सब्सिडी बहुत ज्यादा है? जो भी विद्वान् यह तर्क देते हैं कि भारत कृषि सब्सिडी पर बहुत खर्च करता है, वे यह बात छिपा जाते हैं कि अमेरिका भारत से 302 गुना ज्यादा कृषि सब्सिडी देता है. यूरोपीय यूनियन 54 गुना ज्यादा कृषि सब्सिडी देते हैं.
अमेरिका में कृषि सब्सिडी और डब्ल्यूटीओ
अमेरिका में वर्ष 1862 में मोरिल अधिनियम के माध्यम से कृषि शिक्षा के लिए उच्च शिक्षा की व्यवस्था की गयी, 1887 में हेच अधिनियम के माध्यम से कृषि शोध और अध्ययन को सरकारी सहायता देना शुरू किया गया, वर्ष 1914 में स्मिथ-लीवर अधिनियम के माध्यम से कृषि शिक्षा को आर्थिक सहायता दी गई. इसके बाद वर्ष 1916 में केन्द्रीय कृषि ऋण अधिनियम के माध्यम से किसानों को क़र्ज़ देने के लिए सहकारी बैंक स्थापित हुए, जो बाद में कृषि ऋण और अनुदान व्यवस्था में तब्दील कर दिए गए.
अभी अमेरिका 100 फसलों के लिए 8.7अरब डॉलर बीमा सब्सिडी के रूप में खर्च कर रहा है. कृषि जोखिम और कीमतों की हानि को कवर करने के लिए क्रमशः 3.7अरब डॉलर और 3.2अरब डॉलर का प्रावधान है. जमीन के संरक्षण के लिए अमेरिकी सरकार 5अरब डॉलर की सहायता देती है. उत्पाद विपणन और निर्यात प्रोत्साहन के लिए के लिए 1.36अरब डॉलर, आपदाओं में सहायता के लिए 1.9अरब डॉलर, शोध और अन्य सहायताओं के लिए 3अरब डॉलर का प्रावधान किया गया.
अमेरिका में प्रति व्यक्ति औसत आय 83.143 डॉलर है, किन्तु कृषि परिवारों की औसत आय 1.18 लाख डॉलर (42 प्रतिशत ज्यादा) है. जबकि भारत में नाबार्ड के अध्ययन के मुताबिक़ प्रति किसान आय 1.071 लाख रुपये (रुपये 8931 प्रतिमाह), जबकि भारत के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक़ भारत की प्रतिव्यक्ति आय 1.35 लाख रुपये (26 प्रतिशत कम) है.
विश्व व्यापार संगठन में वर्ष 1995 में किये गए कृषि समझौते के मुताबिक़ यह तय किया गया था कि कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली सब्सिडी को धीरे-धीरे कम किया जाएगा. इसमें एक कुटिल सूत्र का इस्तेमाल किया गया. वह सूत्र था एग्रीगेट मेज़रमेंट आफ सपोर्ट (कुल समग्र सहायता/रियायत) का. यह सूत्र कहता है कि वर्ष 1986-88 में जो भी कृषि रियायत का स्तर था, उसे आधार माना कर सब्सिडी में कमी की जायेगी और उसी से तय होगा कि कौन सा देश कितनी कृषि सब्सिडी दे सकेगा. इसमें कुटिलता यह थी कि इस आधार वर्ष में विकसित देश पहले से ही ज्यादा सब्सिडी दे रहे थे, तो उन्हें सब्सिडी कम करने में उतनी समस्या नहीं रही, जबकि भारत जैसे विकासशील देश बहुत कम सब्सिडी दे रहे थे, तो इनके सामने संकट गहरा गया.
डब्ल्यूटीओ में जिस सब्सिडी को बाज़ार का माहौल खराब नहीं करने वाली सब्सिडी माना गया है, उसमें भी भारत अन्य देशों से बहुत पीछे है. ऐसे में क्या यह बताने की जरूरत है कि कौन सा देश बाज़ार को खराब करने वाली सब्सिडी दे रहा है? क्या यह साबित करने की जरूरत है कि डब्ल्यूटीओ में खाद्य सुरक्षा के लिए लोक भण्डारण की व्यवस्था भेदभाव और शोषणकारी है. डब्ल्यूटीओ की विसंगतिपूर्ण व्यवस्था के कारण वर्ष 2020 में एक किसान को अमेरिका में 7253 डॉलर की और यूरोपीय यूनियन में 1068 डॉलर, नार्वे में 22509, कनाडा में 7414, स्विट्ज़रलैंड में 9716 डॉलर, दक्षिण कोरिया में 547 डॉलर, बांग्लादेश में केवल 8 डॉलर, ब्राजील में 134 डॉलर, चीन में 109 डॉलर की प्रत्यक्ष सब्सिडी मिलेगी, जबकि भारत में एक किसान को केवल 49 डॉलर की सब्सिडी मिलेगी.
कुल मिलाकर हमें यह समझना होगा कि सरकार की दो तरफ़ा भूमिका है – एक तरफ तो किसानों को संरक्षण देना (न्यूनतम समर्थन मूल्य, उचित तकनीक, मार्गदर्शन और अच्छा बाज़ार) और दूसरी तरफ उसे खाद्य सुरक्षा ने नज़रिये से बाज़ार को शोषण से मुक्त करना होगा. फिर यह शोषण चाहे बिचौलियों करे या फिर बड़े कार्पोरेट्स;
सरकार की जिम्मेदारी है कि वह निजी क्षेत्र के मुनाफे को बढाने के लिए राजकीय संसाधनों का इस्तेमाल न करे, जैसी कि अभी कोशिश की जा रही है.
डिस्क्लेमर:ये लेखक के निजी विचार हैं.