Pramod Pathak
इक्कीसवीं सदी के इस समय को सूचना क्रांति का दौर कहते हैं. वैसे कुछ अति उत्साही लोग इसे ज्ञान के दौर का नाम देते हैं. शायद इस भ्रम में कि सूचना ही ज्ञान है. किंतु सच्चाई यह है कि सूचना और ज्ञान में बड़ा फर्क है. सूचना तक पहुंच सबके पास है. किंतु ज्ञान सबके पास नहीं. सूचना कई बार अज्ञान का भी कारण हो जाता है. हालांकि सूचना अज्ञान है या ज्ञान यह एक अलग बहस का मुद्दा हो सकता है. विश्व प्रसिद्ध विचारक फ्रांसिस बेकन ने शताब्दियों पहले कहा था कि ज्ञान ही शक्ति है. अब किस संदर्भ में या किस क्रम में ऐसा कहा था यह पता नहीं. लेकिन ज्ञान शक्ति है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि ज्ञान कितना उपयोगी या सार्थक है. शायद यही उपयोगिता या सार्थकता सूचना और ज्ञान का फर्क निर्धारित करती है. आज की स्थिति में सूचना की इतनी ज्यादा अधिकता है कि ज्ञान कहीं लुप्त हो गया है. यह सूचना क्रांति का नहीं, बल्कि सूचना भ्रांति का दौर है. इसीलिए पिछले कुछ वर्षों से सूचना अब केवल भ्रांति फैलाने के काम आती है. लोगों ने बाकायदा इसके लिए पेशेवर नियुक्त किए हुए हैं.
भ्रम फैलाने के लिए. इस सूचना भ्रांति का सबसे बड़ा माध्यम है सोशल मीडिया. इसी को ध्यान में रखकर कुछ एक वर्ष पहले ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने एक शब्द इजाद किया था ‘पोस्ट ट्रूथ’ यानी सत्य से परे और आज के दौर को परिभाषित करने के लिए इस शब्द का इस्तेमाल किया था. तो आजकल हम इसी दौर में हैं. सत्य से परे के दौर में सत्य दिखता नहीं, बल्कि जो दिखता है वही सत्य है. जाहिर है इस दौर में सत्य के दर्शन नहीं हो सकते. बल्कि सत्य तो अपने आप में मात्र एक दर्शन यानी फलसफा बन कर रह गया है, जिसकी दुहाई सभी देते हैं अपनाता कोई भी नहीं. इसी दौर की एक उपज है फेक न्यूज़ यानी झूठी खबर. अब यह कैसी विडंबना है कि खबर का असली अर्थ ही बदल गया है. खबर का मतलब समाचार. यानी जो घटित हुआ उसकी जानकारी देना. तो यह फेक न्यूज़ क्या हुआ? जो घटा ही नहीं, उसे घटित बना कर लोगों तक जानकारी के रूप में परोस देना. अघटित या काल्पनिक को घटित बना देने की कला. इसी की फैक्ट्री है सोशल मीडिया.
यह हमारे ही देश की नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की समस्या बन गई है. विकसित देश भी इससे परेशान हैं. किंतु हमारी दिक्कत है कि अपने देश में यह अधिक चिंताजनक है, क्योंकि हमारे पास इस पर अंकुश लगाने के विकल्प कम हैं. इसलिए सूचना क्रांति का यह दौर सूचना भ्रांति का खतरनाक रूप ले रहा है. कुछ दिनों पहले एक विश्वस्तरीय प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था सेज द्वारा प्रकाशित एक शोध में 138 देशों के आंकड़े जुटाए गए और बहुत से अपुष्ट जानकारियों की सत्यता की परख कई माध्यमों से की गई. उसका निष्कर्ष यह था कि सबसे ज्यादा अपुष्ट जानकारी का प्रचार प्रसार भारत में हुआ. गंभीर बात यह थी कि सबसे ज्यादा कुप्रभाव भी भारत पर ही पड़ा. कोरोना काल के दौरान हमने यह अनुभव भी किया. कई बार यह सोचने की जहमत भी नहीं उठाते कि सोशल मीडिया का पोस्ट संभावना की परिधि में आता है या नहीं. व्हाट्सएप के संदेश तुरंत फॉरवर्ड कर दिए जाते हैं. यदि केवल इसी में कमी आ जाए तो फेक न्यूज़ की समस्या काफी हद तक कम हो सकती है.
इस आलोक में हमें यह सोचना है कि क्या हम सोशल मीडिया को सोशल कह सकते हैं? सोशल मीडिया एंटीसोशल तो नहीं बन रहा, जिसका उद्देश्य कुछ निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए अभिप्रेरित सूचनाएं फैलाना है. आज यह एक गंभीर प्रश्न है कि सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे हैं खतरनाक और विघटनवादी सूचनाओं को हम कैसे रोकें? तमिलनाडु में कार्यरत बिहार के मजदूरों से संबंधित खबरें जिस तरह फैलाई गई थीं, उसका क्या प्रयोजन था, यह सोचने वाली बात है. गनीमत है कि तमिलनाडु और बिहार के मुख्यमंत्रियों ने इस पर त्वरित कार्रवाई की और कुछ तबकों द्वारा किए गए इस कुत्सित प्रयास को विफल किया. भाषा के नाम पर, धर्म के नाम पर, क्षेत्रीयता के नाम पर अशांति और अराजकता फैलाने के इस तरह के प्रयास सोशल मीडिया पर चलाए जाते हैं और कई बार शांति और सौहार्द प्रभावित होते हैं. अब इस तरह के प्रयासों पीछे उद्देश्य क्या है, इसके लिए किसी बहुत बड़े शोध या जांच की आवश्यकता नहीं. थोड़ी जागरूकता और थोड़ी समझदारी का इस्तेमाल किया जाए तो हम समझ सकते हैं कि सोशल मीडिया का यह प्रयोग किस आशय से किया जाता है. वैसे कई बार इस तरह के पोस्ट अति उत्साह में भी प्रसारित कर दिए जाते हैं.
कोई जरूरी नहीं है कि हर बार किसी बड़े राजनीतिक लाभ के लिए यह झूठ फैलाया जाए. लेकिन जरूरी है कि लोगों में यह जागरूकता बढ़ाई जाए कि सोशल मीडिया खबरों का माध्यम नहीं है, उसका उपयोग कुछ अलग है. यानी सोशल मीडिया पर चलाए जा रहे सूचना या अभियान को नजरअंदाज करना या उस पर कोई कार्यवाही ना करना अति आवश्यक है. भारत जैसे बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक, बहुभाषाई देश में सोशल मीडिया का दुरुपयोग समस्या पैदा कर सकता है. इसका सबूत यह है कि कई बार कुछ मौकों पर इंटरनेट सेवाएं बंद कर देने से बड़ी वारदात घटने से बच जाती है.
सोशल मीडिया की बातों को गंभीरता से लेकर खबर बनाने से पहले गहन विवेचना और चिंतन की आवश्यकता होगी. दरअसल दिक्कत यह है कि अखबार सोशल मीडिया को अपना प्रतिस्पर्धी मानने लगे हैं. वास्तविकता यह नहीं है. सबके बावजूद, तमाम लोकप्रियता के होते हुए भी सोशल मीडिया गैर सीरियस मीडिया के दर्जे में आएगा. अखबार एक गंभीर माध्यम है और आज भी जब विश्वसनीयता की बात उठती है तो लोग अखबार की तरफ ही ध्यान देते हैं. अखबार का काम सिर्फ सूचित करना ही नहीं, शिक्षित करना भी है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.