Premkuma Mani
भारत पर सोचना हर किसी के लिए आह्लादकारी और उत्तेजक रहा है. एएल बाशम और उनसे पूर्व सैंकड़ों दूसरे पश्चिमी विद्वानों ने जब भारत पर सोचा और जानकारियां इकट्ठी की, तब वह अपने स्तर से कुछ न कुछ आश्चर्यचकित हुए. बाशम ने भारत सम्बन्धी अपने अध्ययन की किताब का नाम ‘द वांडर दैत वाज इंडिया’ यूं ही नहीं रखा था. वेदों और उपनिषदों के पश्चिमी अध्येता मैक्स मुलर भी अपने समय में अपनी तरह से भारत पर मुग्ध हुए थे. लाइट ऑफ एशिया के रचनाकार एडविन अर्नाल्ड से लेकर हरमन हेस जैसे दर्जनों पश्चिमी लेखक-विद्वान ऐसे हैं, जिन्होंने भारत में गहरे उतर कर दिलचस्पी ली और इसकी सभ्यता-संस्कृति से किसी न किसी रूप में प्रभावित हुए. ब्रिटिश फौजी दस्तों और ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारी अफसरों को भले ही भारत सांप-साधुओं और हाथियों का देश लगा हो, रेनेसां और प्रबोधन काल से निमज्जित पश्चिम की दुनिया के लोगों ने जब भी इस मुल्क के सांस्कृतिक ऐतिहासिक अध्ययन किया, तब हैरान हुए. पुराने जमाने और मध्यकाल में भी अनेक विदेशी यात्रियों ने भारत यात्रा के अपने अनुभव साझा किए हैं और उन्होंने अपने-अपने तरीके से भारत को ढूंढने की कोशिश की है. मेगास्थनीज के इंडीका से लेकर बर्नियर के विवरणों में भारत की छवियां सुरक्षित हैं.
बीसवीं सदी में रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी के रूप में हमारा भारत विश्व-पटल पर अपनी पूरी विनम्रता, किन्तु उतने ही ओजपूर्ण रूप में प्रकट हुआ. इसकी लंबी और दिलचस्प कहानी है. नई पीढ़ी को यह सब जानना चाहिए, क्योंकि इसी पृष्ठभूमि पर हमें भविष्य का भारत गढ़ना है, निर्मित करना है. भारत या कोई भी देश एक भौगोलिक सीमा भर नहीं होता. वह वहां के निवासियों की धड़कन में बसा होता है. भारत का मतलब भी यहां की नदियां और पहाड़ भर नहीं होते, हालांकि वे हमारे भौतिक आधार तो होते ही हैं. असली भारत यहां के लोगों के जीवन जीने के अंदाज़ का नाम है, जो सदियों से एक निरंतरता में चला आ रहा है.
मैंने भारत-निर्माण की सांस्कृतिक पीठिका की संक्षिप्त चर्चा की है. लेकिन आज जिस भारत में हम हैं, उसका निर्माण उस राष्ट्रीय आंदोलन से हुआ, जिसका उलझा हुआ विस्तृत इतिहास है. इसकी जाने कितनी व्याख्या होती रही हैं, जिनमें से शायद कुछ से ही हम अवगत हैं. एक लम्बी ख़ामोशी के बाद उन्नीसवीं सदी में हमारे बुद्धिजीवियों ने एक बार फिर भारत की खोज आरम्भ की. इसका आरम्भ बंगाल से हुआ, जहां विवियन डेरोजियो और राजा राममोहन राय ने कुछ नए विचारों की प्रस्तावना की. डेरोजियो ने युवकों को संगठित-सम्बोधित और उत्साहित किया. राजा राममोहन राय ने सामाजिक क्रांति की एक रुपरेखा रखी. सती-प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा के खिलाफ एक अलोकप्रिय आंदोलन का आरम्भ किया. यह धारा के विरुद्ध जाना था. उन्होंने देखा-समझा था कि धारा के साथ जाकर तो हमने केवल गुलामी हासिल की है. मुक्ति तभी संभव है, जब गुलामी के आधार तत्वों को ध्वस्त किया जाय. ये आधार थे कि हम हिन्दुस्तानियों ने अपने ही देश के बड़े हिस्से को गुलाम बना कर रखा था. राममोहन राय ने यह अनुभव किया था कि स्त्रियों और शूद्रों की मुक्ति के बिना भारत- निर्माण संभव नहीं है.
बीसवीं सदी में बंग-भंग प्रतिरोध आंदोलन से ब्रिटिश उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन को एक नया स्वरूप मिला. इसके साथ ही भारत-निर्माण की प्रक्रिया भी अंतर्गुम्फित हो गयी. 1909 में आई दो कृतियों ने इसकी वैचारिक प्रस्तावना की. ये थीं रवीन्द्रनाथ ठाकुर का उपन्यास ‘गोरा’ और मोहनदास गांधी की किताब ‘ हिन्द-स्वराज’. गोरा बंगला में लिखी गई थी तो हिन्दस्वराज गुजराती में. हिन्दस्वराज में गांधी उस भारत की खोज कर रहे हैं, जो भारत के किसानों का हो. वह किसान नजरिए का भारत देखना चाहते हैं. गांधी के समान्तर कवि रवीन्द्रनाथ का मानस भी एक हिंदुस्तान की खोज कर रहा था. इसे उन्होंने अपने उपन्यास ‘गोरा’ में रखा है. गोरा में एक पात्र कहता है: ” मैं जो होना चाह रहा था और जो हो नहीं रहा था, वही आज हो गया हूं. आज मैं सारे भारतवर्ष का हूं. मेरे भीतर हिंदू, ख्रिस्तान, मुसलमान किसी समाज के प्रति विरोध नहीं है. आज इस भारतवर्ष में सबकी जात मेरी जात है, सबका अन्न मेरा अन्न है. देखिए मैं बंगाल के अनेक जिलों में घूमा हूं ,बड़े नीच घरों में भी मैंने आतिथ्य ग्रहण किया है, लेकिन कभी किसी के साथ बराबर होकर नहीं बैठ सका, अब तक मैं अपने साथ एक अदृश्य व्यवधान लिए ही घूमता रहा हूं, उसे किसी तरह पार नहीं कर सका.”
वह कौन-सी नक्काशी की व्यर्थ कोशिशें हैं, जिनकी तरफ रवीन्द्रनाथ इंगित करना चाहते हैं. वे कोशिशें हैं, हमारी कथित सांस्कृतिक परिपाटियां, जो मुर्दा हो चुकी हैं, लेकिन हमारी परंपरा के प्रवाह को बाधित कर रही हैं. भारत-निर्माण की सबसे बड़ी बाधा यही ला रही हैं. अतीत को संवारने की, उसकी नक्काशी करने की जो होड़ लगी है, वह हमारे राष्ट्र निर्माण की सबसे बड़ी बाधा है. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब “डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया” में कोई पांच हज़ार वर्षों के हमारे सांस्कृतिक प्रवाह का अवगाहन किया है, जो हमारा इतिहास भी है. इस किताब से गुजरते हुए हम उन वैचारिक चुनौतियों से साक्षात्कार कर सकते हैं, जो हमारे समक्ष आज भी हैं.
भारत कोई एक रोज में न बना है, और न एक रोज में मिट सकता है. यह स्वयं में एक विचार है, जिसने एक देश, एक राष्ट्र का रूप ग्रहण कर लिया है. पिछली शताब्दी में राष्ट्रीय आंदोलन के क्रम में हमारी उत्कट भावना ने इसे भारतमाता का रूप दिया, जो पहले अवनिंद्रनाथ टैगोर की एक पेंटिंग बंगमाता में जोगिन के रूप में चित्रित हुई और फिर बाघ पर बैठ कर कम से कम उत्तर भारतीय हिंदू समाज में स्वीकृत हुई. हमारी संविधान सभा में 22 जुलाई 1947 को यह विचार एक तिरंगे ध्वज के रूप में हमारी भावनाओं के मूर्त रूप में आ गया. यह एक ऐसा प्रतीक है, जो शांति, भाईचारे और समानता का सन्देश देता है. जो एक आश्वस्ति देता है. बाह्यबल की जगह आत्मबल-भीतरी रूहानी ताकत को रेखांकित करने पर इसका जोर है और इसी रूप में यह उपनिषदों और तथागत बुद्ध की भी याद दिलाता है. भारत-निर्माण के जो वैचारिक आधार भूतकाल में थे, वही वर्तमान में भी हैं और भविष्य में भी वही रहने वाले हैं. वे आधार हैं करुणा, मैत्री और आज़ादी के ख़याल की.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.