Ranchi : अधिवक्ता रश्मि कात्यायन के पेसा एक्ट के संदर्भ में जल,जंगल, जमीन, स्थानीयता, स्वशासन और संस्कृति पर आधारित पहचान के सवाल पर उनके अपने विचार हैं. खतियान आधारित स्थानीयता पर उनके दो टूक विचार हैं झारखंड में खतियान आधारित स्थानीयता और स्थानीय भाषा बनाम बाहरी भाषा का आंदोलन एक बार फिर उठ खड़ा हुआ है. रश्मि कात्यायन मशहूर वकील हैं और झारखंड आंदोलन के समय से ही झारखंड की स्थानीयता एवं
भू स्वामित्व के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सवालों पर विस्तार से बोलते-लिखते रहे हैं. “पांचवीं अनुसूची इलाके वाला झारखंड का खतियान सिर्फ जमीन का कागज ही नहीं ,आर्थिक -सामाजिक इतिहास का दस्तावेज है।”
प्रवीण कुमार ने रश्मि कात्यायन से ज्वलंत आंदोलन और उससे उठने वाले खतियान आधारित स्थानीयता के सवाल पर लंबी बातचीत की है. प्रस्तुत है अधिवक्ता रश्मि कात्यायन से बातचीत पर आधारित आलेख.
झारखंड में जो भू-सर्वेक्षण किया गया उसमें ना सिर्फ जमीन के आकार-प्रकार का रिकॉर्ड दर्ज किया गया, बल्कि उस जमीन पर रहने वाले लोगों के आचार-विचार और उनके अधिकारों का उल्लेख किया गया. बिरसा मुंडा के आंदोलन के बाद 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम यानी सीएनटी एक्ट बना.
इसी एक्ट में ”मुंडारी खूंटकट्टीदार” का प्रावधान किया गया . इस प्रावधान में यह व्यवस्था की गई जिसके जरिए आदिवासियों और मूलवासियों की जमीन को गैर आदिवासियों के हाथों में जाने से रोका गया. आज भी ”खतियान” यहां के भूमि अधिकारों का मूल मंत्र या संविधान है.
झारखंड में जो पहला लैंड रिकॉर्ड दर्ज किया गया, उसे तीन भागों में प्रकाशित किया गया
- “खेवट”- जिसमें भूमि के हर क्षेत्र के जमींदारों का, 1950-1955 के पहले तक, उन्हें रैयत को बंदोबस्ती करने का अधिकार एवं लगान वसूलने का अधिकार दिया हुआ था.बिहार भूमि सुधार अधिनियम के प्रावधानों के आधार पर यह अधिकार जमींदारी उन्मूलन के बाद हमेशा के लिए समाप्त हो चुका है. इसी बिहार भूमि सुधार अधिनियम,1950 के प्रावधानों के अंतर्गत आज की स्थिति में पूरे छोटानागपुर में सिर्फ मुंडारी खुंटकट्टी और भुईंहरी “खेवट” आज तक कायम है. जमींदारों के “खेवट” का आज के समय कोई कानूनी अस्तित्व नहीं है.
- ”खतियान” – जिसमें भूमि के मालिकाना हक के साथ-साथ सामुदायिक अधिकारों का रिकॉर्ड दर्ज होता है . इसे ”खतियान” ”पार्ट-2” के नाम से भी जानते हैं .
- ”विलेज नोट”- इसमें हर गांव के सामाजिक आर्थिक संरचनाओं का विश्लेषण किया गया था . प्रमुख की ड्यूटी क्या है, अधिकार क्या है किस जमीन पर पूरे गांव का हक है ये तमाम बातें इसी हिस्से में लिखी गई.
इन तीनों हिस्सों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है खतियान. जिसे आजादी के बाद से लगातार कमजोर किया जा रहा है.
आदिवासी भूमि को सीएनटी फ्री बनाने के लिए राज्य में मिटाये जा रहे रिकॉर्ड
राज्य में आदिवासी भूमि पर अतिक्रमण के मकसद से भूमि संबंधित जिसमें विलेज नोट,खेवट, और खतियान गायब करने का खेल राज्य में चल रहा है. रांची जिला के कई मौजा की जमीन के सभी मूल दस्तावेज सरकारी रिकॉर्ड से गायब करने का काम भी किया गया है. जिसमें मौजा हतमा, लालपुर, सिरल, पुंदाग, अरगोड़ा, हरमू ,हिन्दपीड़ी, डोरांडा, लोवाडीह,समलौग, सिमलिया जैसे मौजे के अधिकांश भूमि के अभिलेख सरकारी रिकॉर्ड को नष्ट करने का मामला भी सामने आ चुका है.
ऑनलाइन खतियान अस्तित्व मिटाने में कर रहा सहयोग
झारखंड के आदिवासियों – मूलवासीओं के जमीनों की खुलेआम लूटी जा रही है. काश्तकारी अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन कर सरकार के मुलाजिमों, वकीलों,जमीन दलालों और न्यायालयों के सुसुप्तता की वजह से भी झारखण्ड के इस सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था को इस ऐतिहासिक ‘खतियान’ की धज्जियां उड़ा कर तार-तार कर रखा है. और अब आजकल के प्रचलित नई नकली “ऑनलाइन खतियान” इस खेल में चार चांद लगा कर झारखण्ड राज्य के अस्तित्व को मिटाने में सहयोगी बन बैठा है.
1927-35 के दौरान हुआ था भू-सर्वेक्षण पुनरीक्षण
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस,बेंगलुरु की सामाजिक मानवविज्ञानी कैरोल उपाध्याय ने अपनी शोध में झारखंड में इसे विस्तार से लिखा है. आजादी से पहले झारखंड में कई बार भूमि का सर्वेक्षण हुआ. रांची जिले की बात करें तो साल 1902-10 के बीच भू-सर्वेक्षण किया गया. 1927-35 के दौरान इसका पुनरीक्षण किया गया. इस सर्वेक्षण में कई शब्दों का प्रचलन हुआ. जो आज तक कायम है . मिसाल के तौर पर ”गैर-मजरुआ”, ”गैर मजरुआ आम” और ”गैरमजरुआ खास ”. जमीन के उस टुकड़े को ”गैरमजरुआ खास” या मालिक कहा गया जिस पर कृषि कार्य नहीं होता था और ”गैर मजरुआ आम” भूमि के उस प्रकार को कहा गया जिसका इस्तेमाल सामुदायों या गांवों द्वारा किया जाता था. ”गैर मजरुआ आम” में कब्रिस्तान, हड़गड़ी, मसना, जाहेर, सरना, गांव की सड़कें, स्कूल,मंदिर,मस्जिद इत्यादि होती हैं. वर्तमान में इस तरह की भूमि का बड़ा हिस्सा झारखंड सरकार ने लौड बैंक में डाल दिया है.
सर्वेक्षण में झारखंड के हिस्से में सबसे ज्यादा आयी गैरकृषि भूमि और जंगल . इसे ही ” गैरमजरुआ खाता” कहा गया. गांव को भी अपने जरूरतों के लिए जंगल का हिस्सा मिला जो खतियान भाग-2 में दर्ज है. इसका अधिकार स्थानीय समुदायों या गांवों के पास होता है . मालिकाना हक जमींदार (जो आजादी के बाद खत्म हो गया) या मुंडारी खूंटकट्टीदार और भुईंहर के पास होता था, या है.
”खतियान” का ”पार्ट -2” बहुत महत्वपूर्ण होता है.
”पार्ट-2” में ही अलग-अलग समूहों या समुदायों या ग्रामीणों के विशिष्ट अधिकार का जिक्र है. गांव के परंपरागत ग्राम मुखिया (विलेज हेडमैन) के पास ये अधिकार होता है कि वो जंगल से पेड़,लकड़ी काटने, घर बनाने या खेती करने की इजाजत दे .
झारखंड के आदिवासी-मूलवासी के हको-हुकूक की बात लैंड सर्वे में है दर्ज
झारखंड में जमीन के मालिकाना हक और मूलवासी आदिवासी के हको-हुकूक की बात लैंड सर्वे में दर्ज हैं. ”खतियान” ना सिर्फ जमीन के मालिकान हक का दस्तावेज है बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक इतिहास का दस्तावेज भी है. इसलिए हर बार खतियान को लेकर इतनी जंग होती है .अंग्रेजों के सर्वे में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि मूलवासियों की सामाजिक आर्थिक गतिविधि में हस्तक्षेप नहीं हो. मिसाल के तौर पर सर्वे में गैर मजरुआ आम की जमीन का रिकॉर्ड दर्ज हुआ. जिसके जिसका इस्तेमाल पूरा गांव करता था चाहे वो खेल का मैदान हो या चारागाह या फिर सामूहिक नृत्य का मैदान. इस जमीन को उस वक्त ना जमींदार बेच सकता था और ना ही मुंडारी खूंटकट्टीदार या भुईंहर. इसी तरह कोल्हान में जमीन की लड़ाई और यहां किया गया सर्वे और दिलचस्प है. 1831-1833 कोल विद्रोह के बाद ”विल्किंसन रुल” आया . कोल्हान की भूमि ‘हो’ आदिवासियों के सुरक्षित कर दी गई . ये व्यवस्था निर्धारित की गई की कोल्हान का प्राशासनिक कामकाज हो मुंडा और मानकी के द्वारा कोल्हान के सुपरीटेडेंट करेंगे. इस इलाके में साल 1833 में लैंड सर्वे हुआ और इसी के बाद ‘मुंडा’ और ‘मानकी’ को हुकूकनामा से विशेष अधिकार मिला. आदिवासियों को जंगल पर हक इसी सर्वे के बाद लगातार मिलता गया.
1950 में बिहार लैंड रिफॉर्म एक्ट का हुआ था विरोध 1954 में किया गया था संशोधन
1950 में बिहार लैंड रिफॉर्म एक्ट आया. इसको लेकर आदिवासियों ने प्रदर्शन किया. साल 1954 में एक बार इसमें संशोधन किया गया और मुंडारी खूंटकट्टीदारी और भुईंहरी भूमि व्यवस्थाओं को इसमें छूट मिल गई.
कोल्हान इलाके में 1958-65 के दौरान फिर भू-सर्वेक्षण
कोल्हान इलाके में 1958-65 के दौरान फिर भू-सर्वेक्षण किया गया, लेकिन इस बार भी आदिवासियों द्वारा भारी विरोध किया गया. कई साल तक विरोध के बाद आदिवासी सरकार के इस आश्वासन के बाद नरम पड़े की उनके मौजूदा अधिकारों का हनन नहीं होगा. मगर हकीकत ये है की इसके बाद भी आदिवासियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा . जिस जमीन पर पहले मुंडा-मानकी का हक था उस पर सरकार का कब्जा हो गया. ये जमीन जीएम लैंड हो गया. इसे अनाबाद सर्व साधारण कहा जाने लगा. आगे चलकर अनाबाद बिहार सरकार और अब झारखंड सरकार की जमीन हो गई. अनाबाद बिहार सरकार की जमीन होने का मतलब है कि जिस जमीन पर पहले मुंडा-मानकी का हक था वो सरकार की हो गई. अब सरकार चाहे जैसे भी इस्तेमाल कर सकती थी.
लैंड बैंक के जरिये गांवों की आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों को तोड़ने का किया गया है प्रयास
लैंड बैंक बनाकर झारखंड की पिछली सरकारों ने पूरी तरह से गांवों की आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों को तोड़ दिया .खतियान को लेकर झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों के भावनात्मक लगाव को समझना जरुरी है. पहली बात तो ये की खतियान सिर्फ जमीन का अधिकार नहीं बल्कि उनकी पूरी सामाजिक व्यवस्था का दस्तावेज है.