Faisal Anurag
लवनीना बोरगेहाई. पूर्वोत्तर की यह लड़की एक सितारा बन कर उभरी है. मोहम्मद अली की तरह चैंपियन होने के सपने उसे एक चैपिंयन की तरह लड़ने और जीत हासिल करने के इरादे से इस्पात में बदल दिया. यह कोई समान्य उपलब्धि नहीं है. जिसे लवनीना ने हासिल कर लिया है. टोक्यो ओलंपिक में दो पदक और दोनों ही अब तक लड़कियों ने ही जीता है. लवनीना यदि गोल्ड जीत जाएं तो अचरज नहीं लेकिन एक पदक तो उसने अपने नाम कर ही लिया है. मीराबाई साइखोम चानू ने भारोत्तोलन में सिल्वर जीता है.
ओलंपिक वह मुकाबला है जहां सिर्फ वन टाइम वंडर यान सिर्फ एक बार चमकने वाला सितारा नहीं वही चैंपियन माना जाता है जो लगातार खेल के आकाश में जगमग करने वाला सूरज होना होता है. चानू और लवनीना उसी श्रेणी में हैं. ये दोनों ही पूर्वोत्तर से हैं और दोनों ने ही अपने दम पर उस पहाड़ को फतह किया है जो किसी भी एथलिट का सबसे बड़ा सपना और मकसद होता है. टोक्यो ओलंपिक में शुक्रवार को लवनीना ने वेल्टरवेट क्वार्टर फ़ाइनल मुकाबले में चीनी ताइपे की निएन-चिन चेन को हराकर सेमीफ़ाइनल में जगह बनायी. निएन-चिन चेन नाम की जिस खिलाड़ी के ख़िलाफ़ लवलीना ने जीत हासिल की है, वो पूर्व विश्व चैम्पियन हैं और अब तक के कई मुक़ाबलों में लवलीना उनसे हारती आई हैं. इसी से समझा जा सकता है कि लवनीना की जीत कितनी महत्वपूर्ण है. दीपिका क्वार्टर फाइनल से बाहर हो गयीं, लेकिन उन्हें संतोष होगा कि उनका प्रदर्शन शानदार रहा और उन्हें जिस कोरियन आन सुग ने हराया उनसे जबरदस्त मुकाबला किया. आन सुग तीरंदाजी में दुनिया की श्रेष्ठ खिलाड़ियों में हैं.
खेलों के अध्येता और जानकार पंकज मिश्र के अनुसार ””किसी भी तरह मर जी के ओलम्पिक क्वलिफाई कर लेना और ओलंपिक मैटेरियल होना दो बिल्कुल भिन्न बातें हैं. जैसे सिंधु, दीपिका, मनु भाखर, बजरंग पुनिया, विनेश, नीरज चोपड़ा, मीराबाई चानू, सौरभ चौधरी इंडियन मेंस हॉकी टीम ओलंपिक मेटेरिअल है”” . इनमें कुछ पदक जीत लेंगे और कुछ चूक जाएंगे. बावजूद इसके ये एथलिट दुनिया को दिखा चुके हैं की वे इस मैटेरियल से बने हैं. आंलंपिक वह मुकाबला है जिसमें जीत से कई बार ज्यादा उन खिलाडड़ियों को हासिल होती है जो हार कर भी चमकते हैं. भारत की दीपा कर्मकार भी ऐसी ही जिमनास्ट हैं जिनका जलवा ओलपिंक में अपना लोहा मनवा चुकी है.
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मेंस हॉकी ने 1980 के बाद जिस हुनर और इरादा का अब तक प्रदर्शन किया है वह उन गोल्डन दिनों की याद दिला रहा हैं जब भारत की बेताज बादशाहत थी. टोक्यो में गयी हॉकी टीम जिस टीम भावना से खेली है वह बेमिसाल है. उसका क्वार्टर फाइनल तक का सफर बताता है कि कम प्रसिद्ध खिलाड़ियों में गजब का जज्बा है.
टेनिस स्टार सानिया मिर्जा ने एक बार कहा था कि भारत का नाम रौशन करने वाले ज्यादातर ओलंपियन सरकारों या खेल संघों से ज्यादा अपने जज्बे, मेहनत और व्यक्तिगत स्तर पर अपना खर्च उठा कर तिरंगा लहराते रहे हैं. भारत के अनेक ओलंपियन किन हालतों ? में रहते हैं यह जान कर दुख ही होता है. रांची के जयपाल सिंह 1980 में भारतीय हॉकी की स्वर्ण पदक विजेता टीम के सदस्य हैं. आज उन्हें कितने लोग याद करते हैं. इस बात को बार बार चर्चा में लाने की जरूरत है कि खेल संघों का ढांचा न केवल तानाशाही भरा होता है, बल्कि वह अपने ही एथलिटों से भेदभाव करता रहा है. यदि आंलंपिक में भारत को पांच शीर्ष देशों में शामिल होना है तो उसे अपने पूरे खेल तंत्र और ढांचे को बदलना होगा.
भारत ने अब तक 28 पदक जीते हैं. भारत ने अब तक के ओलंपिक इतिहास में सबसे ज्यादा मेडल हॉकी में अपने नाम किए हैं. भारत ने हॉकी में 11 मेडल जीते हैं, जो सबसे ज्यादा हैं. हॉकी में भारत ने आठ गोल्ड, एक सिल्वर और एक कास्य पदक अपने नाम किया है. जबकि निशानेबाजी में चार पदक जीते हैं. भारत का इकलौता गोल्ड बिजिंग में अभिनव बिंद्रा ने 2008 में जीता था.पिछले चार मेडल जो भारत के नाम हुए हैं उन्हें महिलाओं ने जीता है.
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पूर्वोत्तर भारत का समाज एक मातृ प्रधानता वाला समाज है. दक्षिण भारत के समाज में भी मातृ ताकत की महत्ता सर्वविदित है. पीटी उषा, अंजु बॉबी जार्ज, सानिया मिर्जा, सानिया नेहवाल और पीवी सिंधु भी उन्हीं मातृ प्रधानता वाले समाजों ने निकली हैं. उन विशेषाताओं को समझने की जरूरत है जो एक मातृ प्रधानता के कारण सामाजिक संरचना को एक अलग तरह का अनुभव देता है. हिंदी पट्टी के लोगों और राजनेताओं को सोचना चाहिए कि आखिर सबसे ज्यादा जनसंख्या के बावजूद उनमें पदक विजेता जो आंलंपिक मेंटेरियल भी हो क्यों नही निकलते हैं. टोक्यो ओलंपिक यह सबक दे रहा है कि भारत को अपनी पूरी खेल नीति और उन सामाजिक अवरोधों के बारे में पुर्विचार करना चाहिए जो चैपिंयन बनने की राह में बाधा बन खड़ा हो जाते हैं. दरअसल यह एक सांस्कृतिक सवाल है जिसे संबोधित किए बगैर शीर्ष के तक का सफर मुमकिन नहीं है.