Premkumar Mani
ज्ञान क्या है? यह एक जटिल प्रश्न है. सामान्यतया इसे मनुष्य जाति के अनुभव का एक आगार या कोश कह सकते हैं, जो हर क्षण निरंतर विस्तारित हो रहा है. मनुष्य जाति के हजारों साल के विकास की कहानी ज्ञान के विकास की कहानी भी है. यह नहीं कहा जा सकता कि बुद्धि केवल मनुष्य जाति के पास है. जीव विज्ञान का सामान्य विद्यार्थी भी यह जानता है कि मछलियों से लेकर परिंदों और सभी स्तनपायी जीवों में सनातन या प्राकृतिक ज्ञान होते हैं. सामान्य क्रिया-कलाप से लेकर प्रजनन तक केलिए सभी जीव खुद पर भरोसा करते रहे हैं. अनुभवों के आनुवंशिक कायांतरण ने इसे निरंतर समृद्ध किया है. इसे ही सतत विकास कहते हैं. इस पृथ्वी और उसके जीवों की सृष्टि के बारे में दो तरह के ख्याल हैं.
एक ख्याल तो यह है कि किसी स्रष्टा, जिसे धरती के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग संज्ञाओं से अभिहित किया गया है, ने इसकी रचना की है. ये तमाम जड़ -चेतन उसकी रचना हैं. उसमें एक मनुष्य है, जिसे शायद उसने इत्मीनान से बनाया और कहा जाता है उसे अपनी छवि दी. दूसरा ख्याल विकासवादी सिद्धांत है, जिसका मानना है कि प्रायः रैखिक और कभी- कभार उछाल गति से इस दुनिया और उसके जीवों का विकास हुआ. उसकी एक अलग जटिल, खूबसूरत और प्रदीर्घ कहानी है. अमीबा से लेकर आदमी और फिर बुद्धिमान आदमी तक के विकास की कहानी काफी दिलचस्प है. ज्ञान का सतत विकास प्रकृति और मनुष्य के निरंतर हो रहे इस विकास का केन्द्र रहा है. इसलिए ज्ञान के सन्दर्भ में भी कम से कम दो स्थापनाएं तो हैं ही, जिनमें एक इसे ईश्वर की निर्मिति बताती है, तो दूसरा विकास का परिणाम. जब हम इसे ईश्वर की रचना या अवदान मान लेते हैं, तब इसमें समाज की कोई भूमिका नहीं होती.
लेकिन जब हम सृष्टि के विकासवादी सिद्धांत को स्वीकार करते हैं, तब यह एक सामाजिक उत्पाद बन जाता है और इसमें समाज की केंद्रीय भूमिका होती है.सृष्टि और ज्ञान के ईश्वरीय सिद्धांत पर यकीन करने वालों ने विभिन्न संस्थागत धर्मों की किताबों में वर्णित कथाओं द्वारा सृष्टि-रचना को समझा है. ये सभी धर्म बहुत पुराने नहीं हैं. यहूदी, ईसाई और इस्लाम की तारीखों के बारे में लोगों को पता है. पूरब के धर्मों के बारे में वे चाहे वैदिक, बौद्ध, जैन, ताओ या कुछ और हों, कमोबेश लोगों को जानकारी है. तमाम धर्मग्रंथों के बारे में, वह चाहे जेंद-अवेस्ता हो या ऋग्वेद या फिर कुरआन, दावा यही किया जाता है कि वे अपौरुषेय अथवा ईश्वरीय हैं और उन पर बहस नहीं की जा सकती. उन्हें आस्था से बांध कर पूजनीय बना दिया जाता है.
आस्था का यह ज्वार एक ख़ास प्रक्षेत्र में कैसे उठा, यह विचारणीय बिंदु होना चाहिए. हम जानते हैं कि इसराइल और अरब में यहूदी, ईसाइयत और इस्लाम का प्रादुर्भाव हुआ. ये सब भौगोलिक रूप से एशिया के हिस्से हैं. भारतीय ज्ञान परंपरा का आदि-स्थल भी यदि सिंधु-सभ्यता को स्वीकार करेंगे, तब हम देखेंगे कि पश्चिमोत्तर भारतीय भूभाग से लेकर अरब तक सृष्टि के दैविक सिद्धांत का विस्तार जोरदार ढंग से हुआ. मध्यकाल में इस भूभाग में हुए सामाजिक उथल-पुथल से जब कुस्तन्तुनिया का पतन हुआ और त्रासदी के शिकार वहां के बुद्धिजीवी निकट पश्चिम के यूरोपीय देशों में पहुंचे तब वहां चेतना का दौर आया, जिसे रेनेसां कहते हैं. चेतना का यह दौर विकास करता हुआ ज्ञान के आंदोलन के दौर में आया. इस दौर को प्रबोधन का दौर कहते हैं. ज्ञान का विस्तार विज्ञान में हुआ और फिर उसकी एक धारा टेक्नोलॉजी के विकास का हुआ, जिसने यूरोप में इंडस्ट्रियल-रेवोलुशन को जन्म दिया.
भारत में घटनाएं कुछ पृथक, किन्तु खासे दिलचस्प अंदाज़ में हुईं. इसके भौगोलिक और सामाजिक कारण हो सकते हैं. भारत की ज्ञान- परंपरा उसके क्रमिक सामाजिक विकास की एक प्रतिछाया जैसी प्रतीत होती है. यह मेरा दृष्टिकोण हो सकता है. लेकिन इसे सार्वजनिक करने में मुझे कोई संकोच नहीं है. इसके सूक्ष्म अध्ययन केलिए हमें मानव विकास के विभिन्न चरणों के परिप्रेक्ष्य में ही इसे देखना होगा. पत्थर-युग और धातु-युग से होते हुए मनुष्य जब कृषि-काल में आया, तब उसकी यायावरी थम गई. कृषि केलिए एक जगह टिकना जरूरी था. क्योंकि लगाए गए फसलों के पकने का इन्तजार करना होता था. फिर उसके प्रसंस्करण करने होते थे. संचय होता था. इसी प्रक्रिया में ग्राम बने और फिर नदियों के किनारे सभ्यताएं विकसित होने लगीं.
सिंधु घाटी की सभ्यता नगरीय सभ्यता थी. यह इस बात का प्रमाण है कि उसकी पृष्ठभूमि में एक समृद्ध ग्रामीण सभ्यता थी. नगरीय सभ्यता किसानों की नहीं, कारीगरों और व्यापारियों की सभ्यता होती है. मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के नगरों से बेबीलोनिया तक अबाध समुद्री रास्तों से व्यापार होते थे. इस पूरे दौर में केंद्रीय भूमिका ज्ञान की थी.
सिंधु घाटी की सभ्यता लगभग ईसा के 1750 साल पूर्व ख़त्म हो गई. उसके कारण रहे होंगे. एक कारण संभवतः ज्ञान का अविराम आवारा विस्तार रहा हो. अन्यथा नगरीय सभ्यता के बाद भारतीय भूभाग में कुछ समय तक नगरों से एक वितृष्णा-जैसी दिखती है. कालांतर में यहां वैदिक सभ्यता का विकास हुआ, जिसमें नदी, पहाड़, वनस्पतियां और प्रकृति के अभिराम दृश्य तो हैं, नगरीय परिदृश्य नहीं हैं. वैदिक ऋषि अधिक निर्मल मन हैं. कोई कलुष नहीं. वस्तुतः ऋग्वेद ज्ञानपिपासु अथवा जिज्ञासु ऋषियों का सामूहिक रूप से सृजित सामाजिक महाकाव्य है. उनके प्रकृति-प्रेम, भय और छोटी-छोटी आकांक्षाओं के विश्लेषण उस ज़माने के रहस्यों को खोलते हैं. ऋचाओं की अभिराम अभिव्यक्तियां ज्ञान की कोमल और निष्कलुष अंतश्चेतना से हमारा परिचय कराती हैं.
आदमी को सुकून चाहिए. ऋषि बस इसी की आकांक्षा करते हैं. यह सुकून चाहे सोमरस के पान से मिलता हो या उषा के अभिनन्दन से या फिर उर्वशी-पुरुरवा या यम -यमी के आख्यान से. दुनिया के अन्य भूभागों की तरह ईश्वर या परम सत्ता की तलाश हमारी ज्ञान-परंपरा में भी थी. ज्ञान पर अधिकार के संघर्ष ने राजनीतिक और सामाजिक उथल -पुथल को जन्म दिया. हमारी भारतीय ज्ञान परंपरा किसी सुपरमैन में विश्वास नहीं करती. जो श्रेष्ठ हैं, उन्हें सामान्य जनों केलिए समर्पित हो जाना चाहिए. बुद्ध ने बहुजन हिताय का स्वर बुलंद किया था.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.