Faisal Anurag
गल्प को इतिहास और इतिहास के तथ्यों को गल्प साबित करने की प्रवृति संसद की बहसों में फिर एक बार जगह बनाने में कामयाब हो गयी. आखिर विपक्ष को संजीदगी से लेने के बजाय उसे गल्पों का सहारा लेकर झुठला देने की प्रवृति किसी भी संवैधानिक लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती है. इतिहास हो या दर्शन या फिर आर्थिक विचार नेहरू-फोबिया से आक्रांत समूहों की प्रतिक्रिया किसी वैज्ञानिक सोच या नजरिए के बजाय एक ऐसी सुरंग बनाने की कोशिश की तरह दिखती है, जिसमें तर्क,तथ्य और पूर्ववर्ती के सम्मान को उपाहास की तरह प्रस्तुत किया जाता है. पिछले साल मई में बंगाल के लगभग 40 फिल्म,साहित्य और कला के सेलिब्रेटी कलाकारों ने एक वीडियो में गीत गाकर जिन वास्तविकताओं को देश के सामने रखने का प्रयास किया था. उसका निषेध सत्ता की राजनीति की प्रवृति का हिस्सा बन कर रह गया है. उस गीत में कहा गया था : आप पुराणों को इतिहास कहते हैं, इतिहास को मिथकीय पुराण. आप देश के बारे में कुछ नहीं जानते,आपको कुछ भी नहीं पता, सच ही देश को आप नहीं जानते.
राष्ट्रपति के अभिभाषण के जबाव में जिस तरह प्रधानमंत्री ने विपक्ष का उपहास उड़ाया. दरअसल भारतीय संसद के इतिहास में पहले कभी इसकी झलक भी देखने को नहीं मिली है. इन दिनों सोनी लाइव पर एक बेव सिरीज की धूम है. उसका नाम है रॉकेट ब्वॉय. होमी जहांगी भाभा और विक्रम साराभाई जैसे भारत के आधुनिक विज्ञान चेतना के महानायकों के जीवन संघर्ष में जवाहरलाल नेहरू के लोकतंत्र की कई झलक दिखायी देती है. खास की संसदीय बहसों में विपक्ष की आलोचनाओं को गंभीरता लेने का प्रकरण हो या फिर प्रधानमंत्री नेहरू के निर्णय को मिलने वाजली चुनौती से निपटने का लोकतांत्रिक तरीका. क्या आज इसकी कल्पना भी की जाती सकती है? जब प्रधानमंत्री का पद एक ऐसे तातकवर सम्राट के बतौर उभारा गया हो, जिसमें उसके किसी भी निर्णय को नकारने या चुनौती देने को देशद्रोह में बदल दिया गया है. संसद की बहस ने एक बार इतना तो रेखांकित किया है कि लोकतंत्र,संविधान,इतिहास को देखने का बहुलतावादी नजरिया और विरोध को स्वीकार करने का लोकतांत्रिक साहस आज के दौर में एक दुर्लभ परिघटना बन कर रह गयी है.
क्या एक प्रधानमंत्री देश के सबसे पुराने राजनैतिक दल जिसने आजादी कही लड़ाई का नेतृत्व किया हो और आधुनिक भारत के निर्माण की नींव ही नहीं बल्कि हो बल्कि उसे दिशा दी हो, इसके बारे में यह कह सकते हैं कि उसके डीएनए में ही फूट डालो और राज करो हैं. यह वही नरेंद्र मोदी हैं, जिन्होंने 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों से कुछ पहले अपने आज के सहयोगी नीतीश कुमार के डीएनए का भी सवाल उठाया था.
नरेंद्र मोदी ही जिस सरदार वल्लभ भाई पटेल की विरासत का दावा करते हैं, वे कांग्रेस के बड़े नेता नहीं थे. सोशल मीडिया पर पूछा जा रहा है कि क्या एक ऐसी पार्टी, जिसने आजादी के बाद 60 से अधिक सालों से देश का नेतृत्व किया हो और जिसने बांग्लादेश बनाने में बड़ी भूमिका निभायी हो और जिसने देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखा हो, उसके बारे में प्रधानमंत्री इस तरह की बात किन तथ्यों के आधार पर कर रहे हैं. यही नहीं टुकड़े-टुकड़े गैंग की वापसी कराते हुए नरेंद्र मोदी ने न केवल कांग्रेस या विपक्ष का उपाहास उड़ाया.
इसी भाषण में प्रधानमंत्री ने कोराना काल में आमजनों की मौत,तकलीफ और श्रमिकों के पलायन जैसी हकीकतों के लिए कांग्रेस को दोषी करार कर तथ्यों को मिथकीय गल्प यानी कल्पनामय अफसाना बनाने का प्रयास किया. प्रधानमंत्री के ही राज्य गुजरात के एक कवि परूल खख्खर ने तो यहां तक लिखा : एक साथ सब मुर्दे बोले ‘सब कुछ चंगा-चंगा’ साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा,ख़त्म हुए शमशान तुम्हारे, ख़त्म काष्ठ की बोरी,थके हमारे कंधे सारे, आंखें रह गई कोरी,दर-दर जाकर यमदूत खेलें,मौत का नाच बेढ़ंगा,साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा.
दुनिया में तीन ऐसे देश हैं, जो कोविड में बेहतर प्रबंधन का दावा करते हैं. लेकिन सबसे ज्यादा मौते इन्हीं देशों में हुईं. इसमें पहले नंबर पर अमेरिका है, जहां 9 लाख नागरिक मरे,दूसरे स्थान पर ब्राजील है, जहां मरने वालों की संख्या 6 लाख है और तीसरे पर भारत है. जहां 5 लाख से ज्यादा लोग मरे. प्रधानमंत्री ने गल्प की तरह कहा कि भारत ने कोविड में बेहतर प्रबंधन किया, वह कांग्रेस थी जिसने श्रमिकों को टिकट दे कर कोविड ‘स्प्रेडर’ की भूमिका निभाती रही. तो क्या अचानक घोषित लॉकडाउन एक बेहतर प्रबंधन का नमूना है. श्रमिक पलायन का कितना संबंध इस अचानक घोषित लॉकडाउन से है, इसे छुपा लिया गया. प्रधानमंत्री ने ही कहा आलोचना एक जीवंत लोकतंत्र का आभूषण है. लेकिन अंधा विपक्ष लोकतंत्र के लिए अपमानजनक है. ठीक ही तो कहा विपक्ष की आलोचनाओं का अंधनिषेध भी तो लोकतंत्र का ही अपमान होता है.