- महुआ व्यवसाय से जुड़ी महिलाओं को उनके परंपरागत पेशा से अलग करना सही नहीं
- कृषि खाद्य प्रणालियों में सकारात्मक बदलाव को लेकर संवाद का दूसरा दिन
Ranchi : कृषि खाद्य प्रणालियों में सकारात्मक बदलाव को लेकर दूसरे खाद्य प्रणाली संवाद के दूसरे दिन कृषि सचिव अबू बकर सिद्दिकी, विनोबा भावे के पूर्व कुलपति डॉ. रमेश शरण और ख्याति प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता प्रो ज्यां द्रेज मुख्य वक्ता के रूप में शामिल हुए. कार्यक्रम का संचालन बलराम ने किया. ज्यां द्रेज ने झारखंड सरकार की फूलो- झानो आशीर्वाद योजना पर सवाल उठाते हुए कहा- मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यह योजना पूरी तरह फेल होगी. कहा कि सरकार के नजरिये से देखें तो यहां महुआ वृक्षों की भरमार है और देश में झारखंड महुआ के लिए प्रसिद्ध है. लेकिन यहां की सरकार हड़िया व दारू के व्यवसाय से जुड़ी महिलाओं को उनके परंपरागत पेशा से अलग करने के लिए अलग से एक योजना चला रही है. लेकिन यह सफल नहीं होगी. सरकार क्यों नहीं इसके लिए नीतियां बनाकर इसे बाजार उपलब्ध कराती है. दुनिया के देशों में यह स्थापित हो चुका है कि जहां प्राकृतिक रूप से जो संसाधन उपलब्ध हैं, वहां के देशों ने उसी अनुरूप अपनी नीतियां को बनायी है.
यहां सैकड़ों वन उत्पाद, फिर भी कुपोषण की राजधानी कहा जाता है
प्रो ज्यां द्रेज ने कहा कि बच्चों के पोषण के मद्देनजर प्रत्येक दिन कम से एक अंडा का आहार के रूप में उपयोग सस्ता व सर्वसुलभ माध्यम हो सकता है. बिहार, झारखंड जैसे गरीब व पिछड़े राज्य को पूरी दुनिया में कुपोषण की राजधानी कहा जाता है. जबकि यहां सैकड़ों वन उत्पाद जैसे चिरौंजी, बेल, कुसुम, पलाश, इमली, आम, कटहल और न जाने कितने तरह के साग, कंद- मूल उपलब्ध हैं. इनको आहार के तौर पर लेने से कुपोषण जैसी स्थिति से काफी हद तक निजात पाया जा सकता है.
सिर्फ 20% क्षेत्रफल ही पूर्ण रूप से सिंचित- अबू बकर सिद्दिकी
इससे पहले कृषि सचिव, अबू बकर सिद्दिकी ने कहा कि राज्य में सिर्फ 28 लाख हेक्टेयर भूमि में ही कृषि कार्य संपन्न की जाती है, जबकि यहां का भौगोलिक क्षेत्रफल कुल 79.72 लाख हेक्टेयर है. जिसमें से 23.3 लाख हेक्टेयर वन भूमि है. कुल कृषि योग्य भूमि का सिर्फ 20% क्षेत्रफल ही पूर्ण रूप से सिंचित हैं . शेष जमीन में खेती करने वाले किसानों को पूरी तरह वर्षा के पानी पर निर्भर रहना पड़ता है. राज्य में अर्बन खेती को प्रोत्साहन देने के लिए भी सरकार ने सब्सिडी देने का प्रावधान किया है, लेकिन इसमें अभी अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई है. सिर्फ इतना ही नहीं राज्य में मत्स्य पालन, पशुपालन जैसी योजनाओं में भी कमजोर परिवारों की आर्थिक परिस्थिति के हिसाब से 40 से 90 फीसदी तक की सब्सिडी के प्रावधान है, जिस पर तेजी से काम हो रहा है. जलवायु परिवर्तन का असर भी तेजी से यहां के किसानों के ऊपर प्रभाव डाल रहा है, इसको ध्यान में रखते हुए कृषि विभाग क्षेत्रीय आधार पर कृषि विविधता का अध्ययन के लिए बजटीय प्रावधान कर रखा है.
जहां पानी की उपलब्धता, वहां कृषि प्रणाली में विविधता – डॉ. रमेश शरण
पैनल के दूसरे वक्ता सह पूर्व उप कुलपति डॉ. रमेश शरण ने कहा कि 1960 के दशक से ही ऊपरी जमीन, मध्यम और नीची जमीन में करीब 110 प्रकार की धान की किस्में लोगों के पास थी. जिनकी हरेक बारीकियों के बारे में किसानों को पूरी जानकारी थी. आज बाजार के दबाव में वो सारी किस्में लोगों के पास से खत्म हो गईं. बड़ी परियोजनाओं से विस्थापन भी यहां के कृषि को बर्बाद करने में एक बड़ी भूमिका निभाई है. वन विभागों की नीतियों से वनों का क्षरण ही होता रहा है, जिसके कारण जमीन का ऊपरी उपजाऊ मिट्टी तेजी से नदियों में समाहित होते चले गए. रासायनिक उर्वरकों के बेतहाशा इस्तेमाल से खेतों की और नदियों की मछलियां विनष्ट हो गई. कारखानों के दूषित पानी नदियों में छोड़े जाने से नदियों की मछलियां खत्म होती चली गई, जो कि लोगों के प्रोटीन का सुलभ श्रोत हुआ करती थी. राज्य में खाद्य प्रणालियों में विविधता कायम रहे, इसके लिए बेहद जरूरी है कि पानी के मुद्दे पर ज्यादा से ज्यादा बात हो . इस बात के पूरे प्रमाण हैं कि जहां पानी की उपलब्धता बढ़ी है, वहां कृषि प्रणाली में विविधता भी स्वत: बढ़ी है. कार्यक्रम में अधिकांश प्रतिभागी झारखंड, ओडीशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक से शमिल हुए.
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