Dr. Pramod Pathak
हिन्दुस्तान के लोगों को उलझाना बहुत आसान है. विशेषकर आज के इस दौर में जब बहुतों के हाथ में एक स्मार्ट फोन आ गया है और फालतू समय बहुत है. कश्मीर फाइल्स पर देश भर में चल रही बहस इसी का एक नमूना है. सच तो यह है कि कश्मीर फाइल्स भी एक फिल्म है और हर फिल्म की तरह इसका भी बुनियादी उद्देश्य वही है. लोगों को उलझाना, उनकी वाहवाही बटोरना, थोड़ा बहुत मनोरंजन करना या भ्रमित करना, कुछ आलोचकों की तारीफ की आशा रखना और बॉक्स ऑफिस पर सफलता पाकर पैसे कमाना. कुछ अवार्ड वगैरह मिल जाए तो और भी बेहतर. इससे ज्यादा और भी कुछ किसी फिल्म को नहीं चाहिए. हां अगर टैक्स फ्री हो जाए तो थोड़ा और नाम होगा. सोचने वाली बात है कि अगर फिल्में इतनी ही ज्यादा प्रभावशाली होती कि समाज को बदल सकती तो आज का समाज बहुत बेहतर होता.
फिल्मों से समाज सुधार की आशा व्यर्थ : मुझे जहां तक याद है हर किसी फिल्म के अंत में यही दिखाया जाता है कि आखिरकार बुराई पर अच्छाई की ही जीत होती है. मगर समाज में क्या ऐसा होता है. ज्यादातर तो इसके उलट ही होता है. फिर इस फिल्म पर इतनी हाय तौबा क्यों ? मगर लोगों को आज का सबसे बड़ा मुद्दा यही लग रहा है. सोशल मीडिया पर लोग फिल्म को ही सही गलत करने में व्यस्त हो गए हैं.देश में अभी रिसर्च का सबसे बड़ा विषय कश्मीर फाइल्स ही है. शायद यही वजह है कि इसके किरदार भी इस भ्रम के शिकार हो गए हैं कि वह दुनिया बदलने की क्षमता रखते हैं. अनुपम खेर भी एक कलाकार हैं. जरूर एक अच्छे कलाकार हैं. लेकिन इतने भी नहीं कि देश बदल सकें. उन्होंने तो कर्मा फिल्म में डॉ डेंग की भूमिका भी बड़े प्रभावशाली ढंग से निभाई थी. सिने कलाकार तो स्क्रिप्ट के अनुसार काम करते हैं. कुछ ऐसी ही स्थिति में फिल्म के निर्माता निर्देशक भी आ गए हैं. यानी दुनिया बदलने की कवायद में. लेकिन दुनिया तो बदलने से रही. हां कुछ राज्यसभा वगैरह मिल जाए तो बात अलग है. किंतु अभी फिल्म के पक्ष और विपक्ष में लोग गोलबंद हो गए हैं. वैसे इसके लिए लोगों को भी पूरी तरह से दोषी मानना सही नहीं होगा.
कश्मीर फाइल्स भी अन्य कई फिल्मों की तरह : जब प्रधानमंत्री से लेकर गृह मंत्री तक, विपक्ष के बड़े नेता से लेकर प्रदेशों के मुख्यमंत्री तक इस फिल्म को लेकर सीरियस हो गए हैं तो भाई आम लोग तो गंभीर होंगे ही. वास्तविकता यही है कि कश्मीर फाइल्स भी इस तरह की कई फिल्मों की तरह एक फिल्म है जो किसी एक कोण को एक कथानक की तरह विकसित कर फिल्म के रूप में लोगों तक पहुंचाती है. अब फिल्मों में जो दिखाया जाता है वह थोड़ा ड्रामाई अंदाज में प्रस्तुत किया जाता है. थोड़ा मिर्च मसाला, थोड़ा बढ़ा चढ़ाकर. भाई फिल्म को ग्राहक भी तो चाहिए. अब तीस साल की कहानी को दो-तीन घंटे में दिखाना है तो यह सब तो करना पड़ेगा. बिना वजह लोग परेशान हो रहे हैं.
वी पी सिंह से वाजपेई तक के कार्यकाल की घटना : यह फिल्म उग्रवादियों के अत्याचार पर बनाई गई उस वक्त की कहानी है जब देश में खुद को फकीर मानने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली जनता दल की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी सरीखे बड़े नेताओं के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से केंद्र पर शासन कर रही थी. उस वक्त राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस विपक्ष में थी. उस दौर में गृहमंत्री कश्मीर के ही नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद थे. उसके कुछ ही समय पहले कश्मीर में उग्रवाद को नियंत्रित करने में विफल रहे तब के मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला को इसके पहले की राजीव गांधी की सरकार ने बर्खास्त किया था और उस पर विपक्ष ने बहुत हाय तौबा मचाई थी.
कश्मीरी पंडितों के पलायन के बाद यह पहली फिल्म नहीं : कश्मीरी पंडितों के पलायन का सिलसिला उस वक्त की घटना है. और केवल वही नहीं बल्कि अन्य हिंदू और मुसलमान भी उग्रवादियों द्वारा प्रताड़ित किए गए थे. आज 30 वर्ष से ज्यादा बीत गए और इन 30 वर्षों में कई फिल्में बनी और देश में कई सरकारें भी बनी. मोटे तौर पर हिसाब करें तो कोई 15 वर्षों के करीब भाजपा या उसके समर्थन में चल रही सरकार थी और बाकी के 15 वर्षों में कांग्रेसी और उसके सहायक दलों की. उसी में इंद्र कुमार गुजराल और देव गोड़ा की भी सरकारों ने देश पर शासन किया मगर फिल्में बनने और जुबानी सहानुभूति के अलावा इस मुद्दे पर कुछ ठोस नतीजे नहीं मिले.
कश्मीर फाइल्स से राजनीतिक लाभ नहीं के बराबर : अटल जी की सरकार में फारूक अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला भी केंद्रीय मंत्री रहे. कुछ दिनों तक भाजपा के समर्थन से मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी महबूबा मुफ्ती भी जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री रहीं. तो कुल मिलाकर इसे फिल्म ही माना जाए तो बेहतर है और इस फिल्म का कितना राजनैतिक लाभ किसे मिलेगा, यह प्रश्न बहुत मायने नहीं रखता.
नोटबंदी पर भी बनी थी फिल्म, नहीं सुधरी अर्थव्यवस्था : जब 2016 में नोटबंदी हुई थी तो उसके तुरंत बाद नोटबंदी के अर्थव्यवस्था पर लाभ को लेकर एक फिल्म बनाई या बनवाई गई थी-कमांडो, जिसमें विद्युत जमवाल हीरो थे. मगर अर्थव्यवस्था तो बनी नहीं बल्कि अब तक बिगड़ी हुई है. इसलिए फिल्मों को फिल्म की तरह देखना और समझना चाहिए. कुछ लोग इससे राजनीतिक लाभ के लोभ से प्रेरित होकर देख रहे हैं तो कुछ लोग इसे राजनीति के लिए हानिकारक मानकर अपनी उर्जा व्यर्थ कर रहे हैं. सिर्फ फिल्म और सोशल मीडिया से चुनाव यदि जीते हारे जाते तो आम आदमी पार्टी या तृणमूल कांग्रेस की सरकारें दिल्ली, पंजाब और पश्चिम बंगाल में नहीं बनती. गीता ने बड़े साधारण ढंग से समझाया है कि कर्म किए जा फल की चिंता मत कर ऐ इंसान. जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान.
डिस्क्लेमर : लेखक स्तंभकार और आईटीआई -आइएसएम के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं, ये उनके निजी विचार हैं.