Kiriburu (Shailesh Singh) : सारंडा जंगल के पेड़ों को मत काटो. ये पेड़ व जंगल हमारी जीविकोपार्जन का मुख्य आधार है. उक्त बातें सारंडा जंगल क्षेत्र के कमारबेडा़, डिम्बुली आदि गांवों की महिला व पुरुषों ने लगातार न्यूज से बातचीत में कही. ये ग्रामीण अपने क्षेत्र के जंगलों को कटने के बाद गांव से लगभग 30-40 किलोमीटर दूर छोटानागरा थाना अन्तर्गत सारंडा के जंगलों में सियाली पत्ता अपनी जीविकोपार्जन हेतु तोड़ने आते हैं. इन जंगलों में आने के लिये बस या अन्य वाहन का सहारा लेना पड़ता है. एक तरफ का भाडा़ 20-30 रूपये देना पड़ता है. मुख्य सड़क से यह पैदल घने जंगलों में सियाली पेड़ की तलाश में जाते हैं एवं उसका पत्ता तोड़ते हैं. जंगल में हीं यह अपने साथ लाये खाना खाते हैं. इस दौरान विषैला जीव-जन्तुओं व वनप्राणियों का भी सामना करना पड़ता है.
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डिम्बुली निवासी सुमित्रा नायक, नकुल नायक, सुजीत नायक, सरीता नायक, कमारबेडा़ निवासी रशवंती दास, अनीता देवी, मुक्ता देवी, बालेमा मुंडा आदि ने बताया की वह रविवार को छोड़कर सभी दिन सुबह छः बजे से शाम छः बजे तक सियाली पत्ता तोड़ने का कार्य करते हैं. एक किलो सियाली अच्छा पत्ता के एवज में 25 रुपये तथा खराब पत्ता पर 20-22 रुपये मिलता है. एक आदमी एक दिन में 10 से 15 किलो पत्ता तोड़ते हैं. नक्सली या अन्य बंदी में हमारा रोजगार प्रभावित होता है. कभी कभी बस या अन्य वाहन नहीं आने पर जंगल में हीं आग जलाकर रात बिताते हैं.
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उल्लेखनीय है कि झारखण्डी विचारधारा एवं संस्कृति सदैव ही पर्यावरण प्रेमी रही है. हमारे पूर्वजों ने ऐसे नियम बनाये थे जिनके पालन से मनुष्य और प्रकृति का अटूट नाता बना. जब तक हम पूर्वजों के दिखलाए मार्ग का अनुसरण करते रहे तब तक सब ठीक-ठाक चलता रहा. लेकिन जब हमने नैतिक मुल्यों को ताक पर रख कर प्रकृति का दोहन प्रारम्भ किया तो उसने भी प्रतिशोध का मार्ग अपना लिया. सारंडा में बसे आदिवासी-वनवासीयों को प्रकृति ने भोजन, वस्त्र, आवास, पानी, शुद्ध हवा, वर्षा आदि समस्याओं का समाधान हेतु प्रकृति ने कदम-कदम पर साथ निभाया. आज उसके कारण हीं हमारा अस्तित्व शेष है. उसने हमें रोटी दी, हमने उसके पेड़ पौधे से दुर्व्यवहार आरम्भ कर दिया. उसने हमें जीना सिखाया, हमने उसी के अंगों अर्थात् भूमि, जल, वायु से खिलवाड़ किया. क्या यहीं हमारी मानवता है एंव झारखण्ड की संस्कृति है!
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आज जंगल काट कर अवैध रुप से बसे गांवों में विकास कार्य अवरुद्ध है. यह वैसे गांवों के लोगों तथा अन्य के लिये विशेष रूप से आत्ममंथन करने की जरूरत है. इतिहास गवाह है कि जब-जब देश में भीषण आकाल पडी़ है तब-तब तमाम जंगलों ने अपने यहाँ रहने वाले लोगों को भूख से मरने नहीं दिया. क्योंकि प्रकृति ने उन्हें हर मौसम में खाने व अन्य जरुरतों को पूरा किया. आज से चार-पाँच दशक पूर्व तक लोग खादानों या कल-कारखानों में काम या रोजगार मांगने नहीं जाते थे, अगर कोई जबरन ले जाता तो वह भाग कर वापस जंगल गाँव आ जाते थे. क्योंकि प्रकृति ने उन्हें खाने पीने के सारी संसाधन उपलब्ध करायी हुये थी. लेकिन जैसे-जैसे हम जंगलों अर्थात् प्रकृति का दोहन युद्ध स्तर पर करने लगे तब से हमारे सामने प्रकृति का भंडार जैसे फलदार वृक्ष, वन औषधियां, भूमिगत जल स्तर, वर्षा में भारी गिरावट, शुद्ध हवा, सूर्य का आग उगलना, प्राकृतिक जल श्रोत, नदी-नाले नष्ट होते गये एंव हमारे सामने तमाम प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होने लगी.
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इस कारण पर्यावरण एंव प्रदूषण एक समस्या नहीं बल्कि यक्ष प्रश्न बनकर सभी के सामने खडा़ हो गया. सरकार एंव वन विभाग ने सारंडा के गांवों के विकास के प्रति कृत संकल्प है, लेकिन सारंडा जंगल के विनाश की कब्र पर विकास की किरण की कल्पना करना बेईमानी होगी. पहले सारंडा में सड़कें, बिजली, स्कूल,चापाकल, यातायात आदि सुविधा नहीं थी लेकिन आज अनेक गाँव इन सुविधाओं से जुड़ गयी. सरकार एंव वन विभाग ने अनेक योजनाओं को चला लोगों को रोजगार से जोड़ने का कार्य कर रही है. सिचाई हेतु जगह-जगह चेकडैम आदि का निर्माण, स्वरोजगार एंव आत्मनिर्भरता हेतु मुर्गी पालन, पत्तल बनाने, धान कुटने, सिलाई की मशीन, व्यवसायिक प्रशिक्षण, कौशल विकास, महिला सशक्तिकरण व समूहों का गठन, बकरी-मुर्गी पालन आदि की व्यवस्था व प्रशिक्षण दिलाया जा रहा है. इसके बावजूद हम सारंडा की विनाश हेतु स्वंय या फिर लकड़ी तस्करों से हाँथ मिला उसका दोहन का निरंतर प्रयास में लगे हैं. दोनों कार्य अब साथ-साथ नहीं चलने वाला है. ऐसे में जंगल काट बसे लोगों को तय करना है कि वह सारंडा का कब्र खोदेंगे या फिर अपना व गाँव का विकास कराना चाहेंगे.