Baijnath Mishra
Ranchi: दीपावली अर्थात दीपों की कतार. दीपों का उत्सव. जब सूर्य अस्त हो जाते हैं और अमावस्या के कारण चंद्र भी क्षीण हो जाते हैं, तो हम अग्नि के सहारे स्वयं को जाग्रत रखने का उद्यम करते हैं. नन्हे दीपक सूर्य, चंद्र और अग्नि के प्रतिनिधि स्वरूप हमारे घर, पड़ोस और परिवेश को उजास से भर देते हैं. दीपकों की रोशनी की असंख्य नन्ही किरणें भगवती स्वरूपा होती हैं. भारतीय मनीषा में देवी का एक नाम रोचना यानी रोशनी भी है. हालांकि रोशनी फारसी शब्द है, किंतु रोचन संस्कृत है और रोचना का अर्थ दीप्ति या द्युति है. हमारा सनातन धर्म भारतीय नारी में तेज और दीप्ति की प्रधानता न केवल देखता है, अपितु उसकी उपासना भी करता है. हमारे यहां व्यक्तिवाचक नारी संज्ञाओं के साथ देवी शब्द जोड़ने की परंपरा रही है, जो अब काल बाह्य या आधुनिकता विरोधी हो गया है.
मार्कंडेय पुराण में सृष्टि की मूलभूत आद्या शक्ति महालक्ष्मी को ही बताया गया है. वह सत, रज और तम तीनों गुणों का समन्वय हैं. वह सृष्टि का मूल कारण भी हैं और चराचर जगत का स्वरूप भी. जयशंकर प्रसाद की कामायनी का आशा सर्ग ‘उषा सुनहले तीर बरसती जयलक्ष्मी-सी उदित हुई’ से प्रारंभ होता है और आगे की पंक्तियों- ‘वर्षा बीती हुआ सृष्टि में शरद विकास नये सिर से’ में यह संकेत भी है कि शरद सृष्टि के नये सिरे से विकास की ऋतु है. इसी में यह संकेत भी छिपा है कि शरद के प्रथम मास (कार्तिक) की अमावस्या को ही जयलक्ष्मी की आराधना क्यों की जाती है. हालांकि एक मान्यता यह भी है कि लंका विजय के उपरांत श्री राम के अयोध्या लौटने पर नगरवासियों ने दीपावली मनाई थी और उसी समय से हम भारतवासी दीपोत्सव मना रहे हैं. यदि गूढ़ अर्थों में कहें तो लंका विजय भी भोगवादी संस्कृति पर योगवादी संस्कृति की विजय का प्रतीक है. एक तरफ दशाननी (आनन भोगवादी होता है) संस्कृति थी तो दूसरी तरफ दाशरथी (दसों इंद्रियों को वश में रखनेवाली) संस्कृति. दशाननी संस्कृति के साथ यदि इंद्रजीत था तो दशरथी संस्कृति के साथ इंद्रियजीत लक्ष्मण ( नींद नारि भोजन परिहरई ) तथा हनुमान थे. लेकिन सनातन शास्त्रों के अनुशीलन से यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही आद्या शक्ति की उपासना होती रही है, चाहे वह शक्ति लक्ष्मी हों, काली हों या सरस्वती. इस प्रकार दीपावली हमारा मूल सांस्कृतिक, आध्यात्मिक त्योहार है.
दीपोत्सव के लिए तीन कारक प्रधान होते हैं. एक दीपक, दूसरा वर्तिका (बाती) और तीसरा स्नेह (तेल). आम तौर पर हम कहते हैं कि दीपक जलता है, लेकिन वस्तुतः दीपक जलता नहीं है, वह प्रकाश फैलाता है. जलती है बाती. इस वर्तिका की आत्माहुति से ही ज्योतिशिखा उत्पन्न होती है और दीप्तिधारी दीपक का नाम सार्थक होता है. वर्तिका के उत्सर्ग में सहायक होता है स्नेह (तेल). स्नेह आप्लावित उत्सर्ग ही प्रकाश का मूल आधार है. विवशता में बलिदान नहीं दिया जाता. श्रद्धा के बिना समर्पण फलदायी हो ही नहीं सकता. लोकभाषा का कवि जब कहता है कि नेह भरल रहे, पोढ़ बाती रहे, छाती दिया के हरदम फुलाइल रहे, तब वह यज्ञ भाव, अनासक्ति योग की कामना या प्रार्थना कर रहा होता है. इसे आध्यात्मिक दृष्टि से ‘इदं इन्द्राय न इदं मम’ का रूपांतर भी कह सकते हैं. भारतीय संस्कृति के भी तीन स्थायी भाव माने जाते हैं- क्रतु, काम और ऋत. क्रतु (आत्मदान, समर्पण, यज्ञभाव) और काम (इच्छा, भोग, आस्वादन) को जब ऋत (संयोजक) जोड़ता है, तो परस्पर विरोधी होते हुए भी क्रतु तथा काम परस्पर पूरक हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में भोग समर्पण को मधुमय, आह्लादकारी बना देता है, तो समर्पण भोग को दप दृढ़ और अवदमनहीन. ये जो ऋत है, वस्तुतः वही परमात्मा या आद्या शक्ति है. हमारे यहां एक बहुप्रचलित कहावत है- सदा दीवाली संत घर और संत के बारे में गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-संत हृदय नवनीत समाना.