Bermo: ईसाई धर्मावलंबियों के लिए बोकारो जिला के ढोरी माता मरियम के लिए आशीर्वाद लेने लाखों लोग पहुंचते हैं. बेरमो अनुमंडल के जारंगडीह स्थित माता मरियम का प्रतिरूप स्थापित है. प्रत्येक वर्ष के अक्टूबर महीने के अंतिम शनिवार और रविवार को झारखंड सहित दूसरे राज्यों के भी ईसाई धर्मावलंबियों का हुजूम आराधना के लिए यहां पहुंचते हैं. वैसे तो यहां माता मरियम की प्रतिमूर्ति है, लेकिन अन्य समुदाय के लोगों का भी आस्था इससे जुड़ी है.
बोकारो जिला मुख्यालय से करीब 35 किलोमीटर की दूरी पर ढोरी माता का तीर्थालय है. यहां पिछले कई वर्षों से लगातार ईसाई धर्मावलंबी माता मरियम के आशीर्वाद के लिए पहुंचते हैं. ढोरी माता का इतिहास भी कुछ अनोखी है. बताते हैं कि 12 जून 1956 के रूपा सतनामी नामक हिंदू कोयला कर्मी हर दिन की तरह ढोरी कोलियरी के भूमिगत खदान में अन्य मजदूरों के साथ कोयला का उत्खनन कर रहा था. गैता से लगातार कोयला का उत्खनन कर रहा था. उसी समय उसके सामने एक कोयला का ढेर सामने आकर गिरा. कुछ देर के लिए रूपा सतनामी डर गया लेकिन कुछ ही देर बाद उसे उठाकर किनारे दूसरी ओर रख दिया. इस दौरान उसे थोड़ी चोट भी लगी. रूपा ने उक्त ढेर को साफ किया तो एक मूर्ति के आकार में सामने आया. तब वह उसे अपने साथियों को दिखाई. मूर्ति मां काली जैसा प्रतीत हो रही थी.
मूर्ति पाकर खदान में कार्यरत सभी खनिक खुशी से झूम उठे. उसके तुरंत बाद मजदूरों ने उस मूर्ति को ढोरी स्थित कार्यालय में स्थापित कर दिया. साथ ही हिन्दू रीति-रिवाज से उसकी पूजा अर्चना की जाने लगी. काफी संख्या में लोग उसे देखने आने लगे. शीघ्र ही कुछ हिन्दू धर्म के पंडितों ने इस मूर्ति की पूरी तहकीकात करने के बाद घोषणा की कि खदान में पाई गई मूर्ति हमारे हिन्दू परंपरा की किसी भी प्रतिमा से मिलती जुलती नहीं है, न तो ये काली की, न ये दुर्गा की मूर्ति है. यह क्षेत्र उस समय बोकारो थर्मल पैरिश के अंतर्गत आता था. उस वक्त वहां के फादर अलबर्ट भरभराकन को इसकी सूचना दी गई. उन्होंने मूर्ति का अवलोकन किया और पाया कि यह मूर्ति माता मरियम की है. दरअसल उसके गोद में बच्चे की बनावट है और ऐसा माता मरियम को ही देखा सुना गया है. उन्होंने उस मूर्ति को ईसाईयों के हाथों सौंपने का अनुरोध किया. ढोरी के मजदूरों ने मूर्ति ईसाईयों के हाथों सौंप दी.
सन् 1957 के अक्टूबर माह में फादर अलबर्ट भरभराकन की अगुवाई में ढोरी माता की पवित्र मूर्ति जारंगडीह स्थित संत अन्तोनी गिरजाघर में रखी गई. 18 इंच ऊंची लकड़ी की इस मूर्ति को ऐतिहासिक परख के लिए रांची के इतिहास और पुरातत्व विभाग में ले जाया गया. पुरातत्वविदों ने बताया कि मूर्ति की बनावट भारतीय शैली में नहीं है, बल्कि यह पुर्तगाली या फ्रांसीसी शैली से बनी है. बताया जाता है कि मुगलकाल में कुछ पुर्तगालियों को कलकत्ता से दिल्ली की ओर बंदी बनाकर ले जाया जा रहा था. संभवत: यह मूर्ति उन्हीं लोगों द्वारा लायी गई होगी. देहरादून स्थित वन अनुसंधान के “वुड एनाटॉमी” में प्रतिमा का एक टुकड़ा भेजा गया, जहां जांचोपरांत यह बताया गया कि वह प्रतिमा कई सदी पुरानी कटहल की लकड़ी से बनी है. शोधकर्ताओं ने शोध करने के बाद पाया कि ये कटहल की लकड़ी की मूर्ति सैकड़ों वर्ष पुरानी है.
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शोधकर्ताओं को यह एक चमत्कार लगा कि सैकड़ों वर्ष भूगर्भ में रहकर भी इस लकड़ी की मूर्ति में किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ, जबकि भूगर्भ में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं और लकड़ी के बहुत सालों तक भूगर्भ में रहने पर ही कोयले का निर्माण होता है. पर इस लकड़ी के बहुत सालों से भूगर्भ में रहने पर भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ, जो आश्चर्यजनक ही नहीं बल्कि यह एक चमत्कार भी था. भक्तों का कहना है कि यह लकड़ी की मूर्ति ईश्वर की कृपा से ही सही सलामत रही. सन् 1971 में हजारीबाग और डालटेनगंज के नये धर्मप्रांत के पहले धर्माध्यक्ष जॉर्ज सोपेन ने अपना पहला धर्माध्यक्षीय पवित्र मिस्सा बलिदान जारंगडीह स्थित संत अन्तोनी गिरजाघर में ही अर्पित किया. ढोरी माता को नये धर्मप्रांत की संरक्षिका घोषित कर माता मरियम की प्रतिरूप ढोरी माता के आदर में एक तीर्थालय बनाने की सर्वप्रथम घोषणा की. इसके बाद से यहां हर वर्ष अक्टूबर माह के अंतिम शनिवार और रविवार को माता मरियम की अराधना और आशीर्वाद के लिए लाखों लोग पहुंचते हैं.
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