Lagatar Desk
केंद्र सरकार के लैंड टाइटलिंग प्रस्ताव को लेकर काफी आशंकाएं हैं. लगातार ने इस संबंध में 9 फरवरी को एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें छोटानागपुर और संथाल परगना में लागू टेनेंसी एक्ट के भविष्य को लेकर आशंका जतायी गयी थी. गुरुवार को अंग्रेजी अखबार टेलीग्राफ ने इस संबंध में एक लंबी रिपोर्ट छापी है. इसमें भी कई अन्य तरह की आशंकाओं की चर्चा है. इनमें सबसे बड़ी आशंका गरीबों की जमीन कॉरपोरेट और प्रमोटरों के पास जाने की है.
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तो फसल के साथ जमीन भी चली जायेगी
टेलीग्राफ के अनुसार केंद्र सरकार ने प्रस्ताव दिया है कि जमीन के मालिकाना हक के मामलों को एक समय सीमा के अंदर निबटाया जाये. लेकिन कई लोग इस प्रस्ताव की आलोचना कर रहे हैं. उन्हें डर है कि इससे गरीब लोगों की जमीन कॉरपोरेट सेक्टर और रीयल एस्टेट प्रोमेटरों के हाथों में चली जायेगी. केंद्र का यह कदम कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे किसानों की उस आशंका से मेल खाता है कि केंद्र सरकार फसल के साथ जमीन का मालिकाना हक भी कॉरपोरेट सेक्टर को सौंपने की तैयारी में है.
व्यावहारिकता पर सवाल उठा रहे विशेषज्ञ
ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत भूमि संसाधन विभाग के एक अधिकारी ने कहा कि किसान आंदोलन के कारण लैंड टाइटलिंग पर पायलट प्रोजेक्ट चलाने को लेकर कोई फैसला नहीं हो सका है. सिद्धांत रूप में सरकार के इस कदम का समर्थन करनेवाले भूमि मुद्दों के एक विशेषज्ञ इसकी व्यावहारिकता पर सवाल उठाते हैं. वह कहते हैं कि यह देश के करोड़ों भूस्वामियों को अपना अधिकार साबित करने की जटिल नौकरशाही प्रक्रिया में फंसाने देगा. इसके अलावा भूमि विभाग के अधिकारी अलग से कागजों के बोझ तले दब जायेंगे.
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लोगों को डराने और धमकाने वाला प्रस्ताव
अखबार कहता है कि एक आलोचक ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि यह प्रस्ताव लोगों को डराने और धमकाने वाला है, क्योंकि भारत में काफी लोगों के पास अपनी जमीनों के पर्याप्त सरकारी दस्तावेज नहीं हैं. वह कहते हैं कि यह बिल्कुल राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के बारे में व्यक्त की गयी आशंकाओं की तरह है, जहां नागरिक पर ही अपनी नागरिकता साबित करने का दायित्व डाल दिया गया है.
प्रस्ताव हकदार को निर्णायक अधिकार देगा – हक
प्रस्ताव तैयार करनेवाली समिति के प्रमुख टी. हक ने बताया कि देश की मौजूदा प्रणाली के तहत भूमि के अधिकार अंतिम नहीं हैं. इन्हें सिविल अदालतों में चुनौती दी जा सकती है. इस कारण कई भूखंड अदालती मामलों में फंसे पड़े हैं. हक कहते हैं- वर्तमान व्यवस्था किसी व्यक्ति को भूमि के किसी टुकड़े पर सिर्फ संभावित अधिकार देती है. कोई भी इसे चुनौती दे सकता है और मुकदमेबाजी चलती रहती है. एक निर्णायक अधिकार अंतिम अधिकार होगा. सामान्यतः इसे चुनौती नहीं दी जा सकेगी. यह भूमि को किसी भी अतिक्रमण से मुक्त बनायेगा और आर्थिक गतिविधियां अथवा निवेश करना सुविधाजनक होगा.
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फैसले को सिविल कोर्ट में चैलेंज नहीं किया जा सकता
जब किसी टाइटल को नौकरशाहों द्वारा सत्यापित कर दिया जाता है और विवाद को न्यायाधिकरण द्वारा तीन साल की निर्धारित समय सीमा में निपटा दिया जाता है, तो उसे दीवानी अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकती. इसे केवल उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में ही चुनौती दी जा सकती है, जहां फैसला आने में काफी वक्त लगता है.
केंद्र ने मांगी थी राज्यों से राय
एक वर्किंग कमेटी ने हक समिति की रिपोर्ट का अध्ययन करने के बाद नवंबर 2019 में एक मसौदा “मॉडल लैंड टाइटलिंग” शीर्षक से एक प्रस्ताव का मसौदा प्रस्तुत किया था. नीति आयोग ने जून 2020 में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इस मसौदे को भेजकर उनकी प्रतिक्रिया मांगी. इसमें यह शर्त भी जोड़ी गयी कि अगर उन्होंने सितंबर 2020 तक अपने विचारों से अवगत नहीं कराया, तो इसे राज्यों की सहमति मान लिया जायेगा. अधिकांश राज्यों ने अपने विचार नहीं भेजे.
हालांकि, हक ने स्पष्ट किया कि चूंकि भूमि रिकॉर्ड और भूमि निबंधन राज्य के विषय हैं, इसलिए इस संबंध में कोई भी केंद्रीय कानून राज्य में तभी लागू होगा, जब संबंधित विधानसभा इसकी पुष्टि कर देगी.
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क्या होगी प्रक्रिया
- प्रस्ताव के तहत, हर राज्य एक भूमि प्राधिकरण बनायेगा. इसमें एक टाइटल पंजीकरण अधिकारी (TRO) होगा. वह संभावित मालिकों और दावेदारों (यदि हो) से दस्तावेज़-आधारित दावों के आधार पर एक टाइटल रिकॉर्ड तैयार करेगा.
- उसके बाद प्राधिकरण हर उस भूखंड के उस संभावित स्वामित्व की सूची प्रकाशित करेगा, जिसके बारे में उसे आवेदन मिले हों. और उसपर अगर किसी का दावा हो, तो उससे एक निर्धारित समय सीमा के भीतर दावे आमंत्रित करेगा.
- टीआरओ अपने दस्तावेजों से संतुष्ट होने पर दावेदार या दावेदारों को भूखंड विशेष के स्वामी के रूप में दर्ज करने के लिए स्वतंत्र होगा. यदि अधिकारी किसी फैसले पर नहीं पहुंच पाता, तो वह मामले को भूमि प्राधिकरण के तहत नियुक्त भूमि विवाद समाधान अधिकारी (एलडीआरओ) के पास भेज सकता है.
- इसके बाद भूमि टाइटल का रिकॉर्ड अधिसूचित किया जायेगा. अगले तीन वर्षों तक एक अपीलीय न्यायाधिकरण, जिसमें सेवानिवृत्त या सेवारत जिला न्यायाधीश शामिल होंगे, जमीन, टीआरओ और एलडीआरओ द्वारा पारित आदेशों के विरुद्ध अपील सुनेगी. न्यायाधिकरण के फैसले के तीन साल बीतने के बाद टाइटल को अंतिम माना जायेगा. इसे केवल उच्च न्यायालयों में रिट याचिकाओं के माध्यम से चुनौती दी जा सकेगी.
- लैंड टाइटल एक्ट में नये कृषि कानूनों के समान ही एक प्रावधान है, जिसकी काफी आलोचना हो रही है. यह प्रावधान किसान-कॉरपोरेट विवादों पर अधिकारियों को तो अधिकार देता है, लेकिन निचली अदालतों को कोई अधिकार नहीं देता. हालांकि लैंड टाइटलमेंट प्रस्ताव के विपरीत कृषि कानूनों में न्यायिक अभिकरणों का कोई प्रावधान नहीं है.
- जिन प्लॉट पर अदालती मामले चल रहे हैं, वे निर्णायक टाइटलिंग प्रक्रिया के दायरे से बाहर रहेंगे. एक अधिकारी ने कहा कि यह किसी संदिग्ध दावेदार को दावा करने से पहले लंबित कानूनी मामले को जल्द से जल्द निबटाने का एक मौका देगा.
कैसा होगा प्रभाव
एक बार मालिकाना हक मिल जाने के बाद टाइटल धारक किसी भी उद्देश्य के लिए भूमि का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र होंगे. इसमें बिक्री, उपहार या किसी कंपनी या प्रमोटर के साथ डेवलपमेंट एग्रीमेंट शामिल है.

- रांची के एक सिविल वकील रश्मि कात्यायन कहते हैं कि मेरी समझ में प्रस्तावित कानून का उद्देश्य जमीन तक निजी डेवलपर्स की पहुंच को आसान बनाना है. अगर यह प्रस्ताव लागू हो जाता हो, तो गरीब लोगों को अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ सकता है.
- वे कहते हैं, उदाहरण के लिए कोई प्रमोटर या कंपनी प्रवासी मजदूरों के किसी समूह के एक रिश्तेदार को पैतृक जमीन का मालिकाना हक हासिल करने के लिए प्राधिकरण में आवेदन करने का लालच दे सकती है. बाहर गये प्रवासियों को तीन साल की अवधि बीतने से पहले इसके बारे में जानकारी मिलने की उम्मीद भी काफी कम है.
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- कात्यायन कहते हैं कि ऐसी उम्मीद बहुत कम है कि काम के लिए अन्य राज्यों में पलायन करनेवाले गरीब लोग निर्धारित अवधि में अपने अधिकारों के लिए दावा कर सकें. और एक बार मालिकाना तय हो गया, तो बाद उनके सामने अपना हक लेने के कानूनी अधिकार बहुत सीमित हो जायेंगे.
- उन्होंने कहा कि वर्तमान में भूमि के मालिकाना अधिकार ट्रांस्फर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट, 1882, और नागरिक प्रक्रिया संहिता-1908 के तहत दिये जाते हैं. कोई भी विवाद दीवानी अदालत में लड़ा जाता है.
- जमीन के मुद्दों के विशेषज्ञ सेवानिवृत्त नौकरशाह एनसी सक्सेना मालिकाना हक का समर्थन इसलिए करते हैं, क्योंकि कई बार असल हकदार अपनी जमीन का कब्जा ले पाने में असमर्थ रहते हैं. लेकिन वह कहते हैं कि केंद्र का यह प्रस्ताव सभी लोगों से अपना दावा रखने और आवेदन करने की उम्मीद करता है. जो कि भारत के 18 करोड़ भूस्वामियों को देखते हुए अव्यावहारिक लगता है.
- उन्होंने सरकार को ब्रिटिश प्रणाली के समान उपाय अपनाने का सुझाव दिया है, जिसमें राजस्व अधिकारी गांवों जाकर भूमि रिकॉर्ड की जांच करते थे. दावेदारों की बातें सुनते थे और रिकॉर्डों को दुरुस्त करते थे. सक्सेना ने प्रस्ताव के बारे में अपनी चिंताओं से अवगत कराते हुए नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार को पिछले मंगलवार को एक मेल भी भेजा है. बुधवार रात तक कुमार ने उनके ईमेल पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी.