Asit Nath Tiwari
भारत सरकार ने भारत की अर्थव्यवस्था की मजबूत होने के दावे किए हैं. सरकार के इस दावे की कई अर्थशास्त्रियों ने पुष्टि भी की है. लेकिन, सीएमआईई ने जो रिपोर्ट जारी की है, वह रिपोर्ट सरकार के दावे पर संदेह खड़े करती है. सीएमआईई की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में रोजगार वृद्धि, जनसंख्या वृद्धि के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रही है. इतना ही नहीं अर्थव्यवस्था की वृद्धि रोजगार के लिए कोई नए आयाम खोलती नहीं दिख रही है. मतलब, सरकार के दावे को सच मान भी लें तो यह विकास रोजगारविहीन विकास है. मतलब भले ही सरकार का खजाना भर रहा हो आम आदमी के लिए रोटी आज भी मुहाल है. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक, जनसंख्या के मामले में भारत अब चीन से आगे निकलने वाला है. दुनिया की सबसे बड़ी आबादी अब भारत में होगी. लेकिन चिंता यह है कि अभी ही दुनिया के सर्वाधिक बेरोजगार भारत में हैं, जब आबादी और बढ़ेगी तब क्या होगा! सीएमआईई की रिपोर्ट बता रही है कि मौजूदा भारतीय अर्थव्यवस्था रोजगार के नए अवसर उपलब्ध कराने में असमर्थ है. कार्यबल में नए जनसांख्यिकीय वृद्धि से रोजगार सृजन लगातार पिछड़ रहा है. बैलूनिंग बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है. तमाम आंकड़े यह बता रहे हैं कि 2017 से 2022 के बीच 2 करोड़ 10 लाख महिलाएं कार्यबल से गायब हो गईं. 2017 से पहले जितनी महिलाएं कामकाजी थीं, उनमें से अब मात्र 9% को ही काम मिल पा रहा है. इस आंकड़े में वे लोग शामिल नहीं हैं जिन्होंने कोरोना महामारी की वजह से अपनी नौकरी खो दी या फिर स्वेच्छा से कार्यबल से बाहर हो गए. ये वह लोग हैं, जिन्हें लाख कोशिशों के बावजूद काम नहीं मिल रहा है. कार्यबल में शामिल इन 9 प्रतिशत महिलाओं में बड़ी संख्या में महिलाओं को जनवरी 2021 के बाद लगातार काम नहीं मिला है. उन्हें बीच-बीच में बेरोजगार रहना पड़ा है.
2019 में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने एक अध्ययन किया था, उसमें डी त्रेहान ने एक अध्ययन रिपोर्ट पेश की थी और उस रिपोर्ट में कहा गया था के अवसरों की कमी के कारण भारत में 15 से 29 आयु वर्ग की महिलाएं किसी भी तरह की शिक्षा और रोजगार से नहीं जुड़ पा रही हैं. मतलब श्रम शक्ति में महिलाओं की इतनी कम भागीदारी के कारण भारत में समग्र श्रम शक्ति भागीदारी कम है.
नए आंकड़े यह बता रहे हैं कि भारत के युवाओं में बेरोजगारी चिंताजनक तौर पर बढ़ी है. युवाओं में श्रमबल की भागीदारी लगातार घट रही है. 2016-17 और 2021-22 के बीच सभी आयु वर्गों के लिए औसत श्रम शक्ति भागीदारी 42.6% थी. जबकि, 15 से 24 आयु वर्ग के युवाओं के लिए यह 22.7%. मतलब साफ है कि 5 में से सिर्फ एक भारतीय युवा को कोई काम मिल सका. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बचे बाकी चार कोई अच्छा काम कर रहे हैं. बचे बाकी चार दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं और बेहद मुफलिसी में जीने को मजबूर हैं.
सीएमआईई की यही रिपोर्ट बता रही है कि युवाओं के लिए बेरोजगारी दर पिछले महीने 34% थी और यह दर बहुत ही तेजी से आगे बढ़ रही है.
भारत में कृषि सर्वाधिक रोजगार देने वाला सेक्टर है. इसमें खेतिहर मजदूर, किसान और कृषि आधारित ग्रामीण मजदूर बड़ी संख्या में रोजगार पाते हैं. 2014 से पहले देश में कुल कार्यबल में इनका हिस्सा 65% से ज्यादा हुआ करता था, लेकिन 2018-19 में यह 41.4% हो गया. 2019-20 और 2020-21 में जब महामारी का असर रहा और प्रवासी मजदूर संकटों में घिरे तब देश के कुल कार्यबल में कृषि मजदूरों की हिस्सेदारी खूब तेजी से बढ़ी. हालांकि यह संकटकालीन रोजगार था.
विद्या म हांबरे ऐट ऑल ने एक अध्ययन रिपोर्ट दुनिया के सामने रखी है. यह रिपोर्ट बता रही है कि केरल में 20 से 59 वर्ष के कामकाजी वर्ग को कृषि क्षेत्र में रोजगार मिलना कम हुआ है. किसानों के रूप में या कृषि मजदूरों के रूप में कृषि में इनकी भागीदारी 20.3% से गिरकर 7.9% रह गई है. जबकि मध्यप्रदेश में 51.7% से घटकर 32.8% हो गई है. पंजाब और हरियाणा में भी इसी तरह के चौंकाने वाले आंकड़े हैं.
कुल मिलाकर कृषि क्षेत्र बड़ी संख्या में अब लोगों को रोजगार देने की स्थिति में नहीं है. भारत में औपचारिक नौकरियों के अवसर तकरीबन खत्म होते जा रहे हैं. सरकार जिस ईपीएफओ सब्सक्रिप्शन की संख्या दिखाकर रोजगार के आंकड़े बताती है, दरअसल वह बड़ा धोखा है. क्योंकि ये जरूरी नहीं कि ईपीएफओ का विस्तार रोजगार का विस्तार हो या वह नई नौकरियां हों. क्योंकि औपचारिक क्षेत्र के उद्यमों में नियोक्ताओं द्वारा श्रमिकों को ईपीएफओ ग्राहकों के रूप में नामांकित किया जाता है.
24 फरवरी को प्रेस सूचना ब्यूरो ने एक डेटा जारी किया, जिसके अनुसार ईपीएफओ सदस्यता में वृद्धि और रोजगार वृद्धि के आंकड़े आपस में मेल नहीं खा रहे हैं. ये रिपोर्ट ये भी बता रही है कि औचारिक क्षेत्र में जितना रोजगार सृजित हुआ, उससे कई गुना अधिक श्रम बल देश में तैयार हुआ. इसी अध्ययन रिपोर्ट में ये कहा गया है कि भारत एक ऐसे देश के रूप में सामने आ रहा है, जो अपने युवाओं और कार्यबल की चिंता नहीं करता बल्कि राजनीतिक हितसाधन के लिए आस्था को औजार के तौर पर इस्तेमाल करता है. ये रिपोर्ट एक जिम्मेदार नागरिक की चिंताएं बढ़ाने वाली है, लेकिन इसके लिए जिम्मेदार नागरिक होना जरूरी है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.