Faisal Anurag
क्या ममता बनर्जी भाजपा विरोधी तमाम विपक्षी दलों को एकजुट कर सकेंगी. बिखरे हुए विपक्षी दलों को एकमंच पाल लाने के मकसद को लेकर ममता बनर्जी की दिल्ली यात्रा का महत्व बढ़ गया है. ममता बनर्जी ने इस काम के लिए प्रशांत किशोर के साथ मिल कर एक रणनीति बनायी है. नरेंद्र मोदी की सरकार को दिल्ली से बेदखल करने के लिए ममता बनर्जी कांग्रेस के तीन नेताओं के साथ विपक्ष के अनेक नेताओं से मुलाकत करेंगी. मई में बंगाल में नरेंद्र मोदी और अमित शाह को करारी मात देने के बाद से ममता बनर्जी ने केंद्रीय राजनीति में रूचि दिखाना शुरू कर दिया है. वैसे दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी से भी उनकी मुलाकत तय है. लेकिन चुनाव में जीत के बाद यह औपचारिकता मात्र है. सोनिया गांधी से ममता बनर्जी की मुलाकात के अनेक राजनीतिक मायने हैं.
कांग्रेस विपक्षी दलों को एकजुट करने की केंद्रीय भूमिका नहीं निभा पा रही है. इस समय कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व बेहद कमजोर दिख रहा है. लेकिन जिस तरह पंजाब में अमरेंद्र सिंह और नवजोत सिद्धू के मामले को सुलझाया है और राजस्थान में गहलोत पायलट विवाद को हल करने का प्रयास दिख रहा है, वह इस कमजोर नेतृत्व की दृढ़ता का परिचायक है.
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कहा जा सकता है राहुल-प्रियंका क्षत्रप के ब्लैकमेल राजनीति के खिलाफ कमर कसने लगे हैं. 2024 अभी दूर है लेकिन ममता बनर्जी उसके पहले तमाम विपक्षी दलों के बीच एक समन्वय चाहती हैं ताकि नरेंद्र मादी सरकारी की नीतियों के खिलाफ राष्ट्र सतर पर एक व्यापक आंदोलन शुरू किया जा सके. ममता बनर्जी ने पेगासस जासूसी मामले में रिटायर जजों से जांच कराने का आदेश दे कर भी भाजपा सरकार को एक तरह की चुनौती दे दी है. पेगासस विवाद के उभरने के साथ ही केंद्र सरकार उसकी जांच कराने की मांग को नकार रही है. केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी ने तो क्लासीफाइड दस्तावेज बता कर उसे सार्वजनिक करने से इंकार किया है.
पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच के लिए छत्तीसगढ़ सरकार भी आगे आयी है. लेकिन ममता बनर्जी ने बंगाल कैबिनेट से फैसला ले कर केंद्र के जांच न कराने के प्रयास को एक बड़ी चुनौती दी है. बंगाल सरकार सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज और कलकत्ता हाईकोर्ट के रिटायर चीफ जस्टिस को इस जांच आयोग की जिम्मेदारी दी है. पेगासस जासूसी प्रकरण आने वाले दिनों में विपक्ष की राजनीति का एक बड़ा मृद्दा बन गया है.
ममता बनर्जी जब विपक्षी नेताओं से मुलाकात करेंगी तब पेगासस जासूसी प्रकरण के साथ 2024 के पहले तमाम विवादों को हल करने की रणनीति पर भी चर्चा होगी.पेगासस प्रकरण भारतीय लोकतंत्र की परीक्षा है. जब केंद्र पूरे प्रकरण पर जांच और चर्चा से भाग रहा हो तब एक मुख्यमंत्री का यह एलान राजनैतिक तौर पर मायने रखता है.
अभी पिछले ही महीने ममता बनर्जी के दूत के रूप में प्रशांत किशोर ने एनसीपी के नेता शरद पवार से लेगी बात की थी. यह बातचीत ममता बनर्जी के उस अभियान का ही हिस्सा है जिसमें केंद्र सरकार के खिलाफ एक विकल्प तैयार करना है. ममता बनर्जी ने अप्रैल-मई में बंगाल चुनाव के समय ही अपना इरादा जता दिया था कि वे चुनाव जीतने के बाद भाजपा को चुनौती देंगी. ऊपरी तौर पर भले ही भाजपा इस कवायद को नजरअंदाज कर दे. लेकिन राजनैतिक प्रेक्षक समझ रहे हैं कि ममता बनर्जी भले ही बंगाल की नेता हैं लेकिन उन के संघर्ष की क्षमता भाजपा के लिए एक राष्ट्रीय चुनौती है. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की नीतियों और रणनीति के खिलाफ जिस कुशलता से ममता बनर्जी ने बंगाल में अभेद्य दुर्ग बनाया उससे उनके लड़ने और मकसद हासिल करने की जिद पूरे देश में चर्चा का विषय है.
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ममता बनर्जी न केवल छोटे दलों बल्कि एक दूसरे के विरोधी तमाम दलों के साथ संवाद बना रही हैं. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, दक्षिण में डीएमके, वाइएसआर कांग्रेस और तेलंगाना राष्ट्र परिषद से उनके संपर्क बने हैं. ममता बनर्जी के सूत्रों के अनुसार यूपी में बसपा और पंजाब में अकाली दल को भी साथ लाने की योजना है. लेकिन वामपंथी दलों के लिए अभी तक कोई संकेत नहीं दिया गया है. वैसे विपक्ष का कोई भी बड़ा गठबंधन की कामयाबी के लिए वामपंथी दलों की भी जरूरत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. किसान आंदोलन के नेताओं का साथ भी ममता बनर्जी को मिल सकता है. बंगाल के चुनाव में किसान नेताओं ने भाजपा को हराने के लिए खुल कर ममता बनर्जी के पक्ष में प्रचार किया था. किसान आंदोलन एक राजनैतिक हकीकत है जो आने वाले दिनों की राजनीतिक भविष्य तय करने में बड़ी भूमिका निभाएगा.
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ममता बनर्जी के सामने सबसे बड़ी चुनौती एक ऐसे आर्थिक और सामाजिक नीति की भी है जो भाजपा की नीतियों को चुनौती देती प्रतीत हो. अब तक गठबंधनों की राजनीति में साझा न्यूनतम कार्यक्रम तो बने हैं लेकिन आर्थिक विकल्प नहीं प्रस्तुत किया गया है. राहुल गांधी कई बार कह चुके हैं कि 1991 के आर्थिक सुधार से जितना लाभ मिलना था मिल चुका है.
आज की चुनौतियों को अब 1991 की नीतियों से आगे जाना होगा. इसमें सार्वजनिक क्षेत्रों की बड़ी भूमिका तय करने की जरूरत होगी.1991 के बाद से ही जिस तरह सार्वजनिक क्षेत्र कमजोर किए गए हैं उससे आर्थिक क्षेत्र में भारी असंतुलन देखने को मिल रहा है. भारतीय राजनीति की त्रासदी यह है कि आमतौर पर क्षेत्रीय दलों के पास कोई वैकल्पिक नजरिया नहीं होता है. नरेंद्र मोदी की सरकार ने जिस करह आर्थिक सुधारों के लिए कदम उठाए हैं उसका नतीजा आर्थिकी पर देखा जा सकता है. भारतीय राजनीति की पेचीदगी राजनैतिक मैनेजर हल नहीं कर सकते. विपक्ष की एकजुटता के लिए जरूरी है कि वह आर्थिक और समाजिक न्याय के लिए नयी रणनीति बनाए.
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