Manoharpur (Ajay Singh) : मनोहरपुर, आनंदपुर में महाप्रभु जगन्नाथ की भव्य रथ यात्रा मंगलवार को धूमधाम से निकाली गई. मनोहरपुर मुनी आश्रम स्थित जगन्नाथ मंदिर परिसर से भगवन जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र व बहन सुभद्रा के साथ रथ पर सवार होकर लाइनपार दुर्गाबाड़ी स्थित मौसी बाड़ी के लिए निकले. रथ यात्रा शहर के मुख्य बाजार, थाना चौक, गणेश मंदिर, इंदिरा नगर रेलवे क्रासिंग लाइनपार, रामधनी चौक, फॉरेस्ट चेक नाका इत्यादि विभिन्न चौक चौराहों से होते हुए दुर्गाबाड़ी स्तिथ मौसी बाड़ी पहुंचकर संपन्न हुई. इस दौरान महाप्रभु के भारी संख्या में भक्त भजन कीर्तन व जयघोष के साथ रथ की रस्सी खींचते दिखाई दिए. देर शाम तक महाप्रभु जगन्नाथ को उनके भ्राता व बहन के संग मौसी बाड़ी पहुंचाया गया. इस दौरान जगह-जगह श्रद्धालुओं ने महाप्रभु जगन्नाथ, भाई बलभद्र व बहन सुभद्रा की पूजा अर्चना कर उनका आशीर्वाद लिया. विदित हो कि रथ यात्रा जगन्नाथ पुरी समेत देश के विभिन्न शहरों में निकाली जाती है. इस दौरान भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ मौसी के घर जाते हैं. वहां पहुंचकर विश्राम करते है. आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि पर हर वर्ष भगवान जगन्ननाथ की रथ यात्रा निकाली जाती है. भगवान जगन्नाथ को विष्णु का अवतार माना जाता है.
इसे भी पढ़ें : जमशेदपुर : भगवान जगन्नाथ के श्रद्धालुओं को मिल सकती है राहत, शहर में अगले दो घंटे में हो सकती है वर्षा
गुंडीचा मंदिर में जाते हैं भगवान
दरअसल, गुंडिचा देवी को भगवान जगन्नाथ की मौसी के रूप में पूजा जाता है. यही वजह है कि रथ यात्रा के अगले दिन भगवान जगन्नाथ गुंडीचा मंदिर में एक हफ्ते के लिए जाते हैं. इस दौरान भगवान की पूजा इसी मंदिर में होती है. हफ्ते भर के दौरान यहां पर अलग-अलग उत्सवों का आयोजन किया जाता है. साथ ही भगवान को कई तरह के व्यंजनों का भोग भी लगता है.
इसे भी पढ़ें : चाकुलिया : तुलसीबनी शिवराम आश्रम से धूमधाम से निकली रथयात्रा
इस दिन लौटते हैं वापिस
आषाढ़ शुक्ल दशमी को महाप्रभु जगन्नाथ की वापसी यात्रा शुरू होती है. इसे बाहुड़ा यात्रा कहते हैं. इसमें शाम तक रथ अपने मूल स्थान जगन्नाथ मंदिर पहुंच जाता है और फिर एक दिन के लिए महाप्रभु रथ में रहते हैं, ताकी भक्त उनके दर्शन कर सकें. फिर अगले ही दिन प्रतिमाओं को मंत्रोच्चार के साथ मंदिर के गर्भगृह में फिर से स्थापित कर दिया जाता है. मान्यताओं के अनुसार मानें तो काष्ठ की बनी इन प्रतिमाओं को कुछ सालों बाद बदलने की परंपरा है. यह अवसर भी उत्सव के रूप में मनाया जाता है. वहीं पुरानी मूर्तियों को मंदिर परिसर में ही समाधि दी जाती है.