Mukesh Aseem
अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य ने चुनाव से कुछ पहले कानून बना दिया कि किसी तरह का कोई जुर्माना अदा न करने वालों का नाम वोटर लिस्ट से हटा दिया जाये. इस तरह साढ़े सात लाख गरीब लोग मतदाता सूची से बाहर निकाल दिये गये. अन्य राज्यों में भी ऐसे ही कई नियम पहले से हैं या पिछले दिनों बनाये गये. विभिन्न अनुमानों के अनुसार, ऐसे करीब तीन करोड़ वयस्कों को मताधिकार से वंचित कर दिया गया. समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि ये संपत्तिहीन मजदूर, नस्ली अल्पसंख्यक, आदि ही होंगे.
दुनिया का सबसे बडा जनतंत्र बताये जाने वाले अमेरिका में ऐसे कानूनों का लंबा इतिहास है, जिसका मूल व्हाइट एंग्लो सैक्सन प्रोटेस्टेंट (वैस्प) प्रभुत्वशाली समुदाय द्वारा अफ्रीकी, लैटिन, आइरिश, इटालियन लोगों और सभी किस्म के संपत्तिहीनों को अधिकारों से वंचित रखने की कोशिशों में है. हर राज्य और काउंटी स्तर तक का प्रभुत्वशाली तबका इसीलिए चुनाव कायदे-कानूनों को स्थानीय और अलग रखना चाहता है. हालांकि इसे स्वायत्तता के जनवादी लगने वाले तर्क के लबादे में पेश किया जाता है. वयस्क नागरिकों को मताधिकार से वंचित करने वाला कानून देश स्तर पर बनाना मुश्किल है, क्योंकि उससे अमेरिकी जनतंत्र की समानता-स्वतंत्रता की नौटंकी की पोल खुल जाने की आशंका खड़ी हो जाती है.
याद रहे कि सार्वत्रिक वयस्क मताधिकार जिसे पूंजीवादी संसदीय जनतंत्र की प्रशंसा में सबसे बड़े तर्क के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है वह अधिकार पूंजीवाद का दिया हुआ है ही नहीं. 1917 तक किसी पूंजीवादी देश में सभी वयस्क स्त्री पुरुषों को मताधिकार प्राप्त नहीं था, बल्कि यह संपत्ति से जुड़ा अधिकार था. समाजवादी क्रांति के बाद रूस में यह अधिकार दिये जाने के बाद अगले कुछ दशकों में यह अधिकार पूंजीवादी देशों में भी क्रमशः विस्तारित हुआ.
परंतु अमेरिका में आज भी अलग राज्यों की अलग परंपरा के नाम पर मेहनतकश जनता की एक बड़ी संख्या को सार्वत्रिक वयस्क मताधिकार वास्तव में हासिल नहीं है. वैसे तो पूंजीवादी व्यवस्था में चुनाव के वास्तविक अधिकार होने के बजाय उसे पूंजीपति वर्ग के नियंत्रण में रखने के बहुत सारे तरीक़े मौजूद हैं पर ‘सबसे बड़े और शक्तिशाली जनतंत्र’ में बड़े पैमाने पर सीधे-सीधे मताधिकार से ही वंचित कर देने का तरीका भी प्रयोग में है.
कई लोग अचंभे में हैं कि सिर्फ चार साल में ही ट्रंप ने अमेरिका के शक्तिशाली स्वतंत्र संस्थाओं वाले जनतंत्र को घुटने टिका फासीवादी राह पर इतना आगे कैसे बढ़ा दिया. दरअसल यह ‘शक्तिशाली स्वतंत्र संस्थाओं’ वाली बात ही खाली भ्रम है. अमेरिकी समाज अपनी स्थापना से ही पैसे और हथियारों की ताकत से संचालित समाज रहा है, यही वहां के संविधान जनतंत्र और न्याय की बुनियाद है. 20वीं सदी के दो बड़े युद्ध में विनाश से बचने और विशाल प्राकृतिक संसाधनों के कारण साम्राज्यवाद का सिरमौर बन जाने से समृद्धि की जो चकाचौंध वहां आयी थी, उसने इस असली दृश्य पर एक सुनहरा पर्दा डाल दिया था. पर अब गहराते आर्थिक संकट से तीव्र होते द्वंद्व यशपाल की मशहूर कहानी की तरह उस परदे को तार-तार कर असली दृश्य को जाहिर कर दे रहे हैं.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.