Sunil Badal
गुजरात के मोरवी के झूलते पुल के रस्से के टूटने की दुखद घटना में मारे गए लगभग 143 लोगों के अलावा अन्य लोगों द्वारा कुछ दिनों में भुला दी जाएगी. पर इससे सीख लेकर देश भर के प्राचीन रजवाड़ों, मुगलकालीन या अंग्रेजों के जमाने के पुलों और रस्से आधारित रोप वे आदि का ऑडिट विशेषज्ञों की टीम से कराना समय की मांग है. इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर मॉनिटरिंग सेल का गठन करना चाहि, जो इसकी रिपोर्ट रखे और राज्यों को गाइडलाइन जारी करे. ऐसा नहीं किया गया, तो जंग खाए पुलों और रस्सों से हर साल कितने ही घर उजड़ते रहेंगे.
हरिद्वार, राजगीर और कश्मीर में भी हो चुका है. झारखंड के देवघर जैसा हादसा, रस्सा टूटकर 75 फीट नीचे गिर गया था रोपवे और मोरवी में भी रस्सा ही टूटा. इसमें कितनों को दोषी माना गया और नहीं तो क्यों? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं.
पुराने पुल जो आयु पूरी कर घातक बन गए और रोपवे के रस्सों की समीक्षा तब तक नहीं की जाती जब तक कोई बड़ा हादसा न हो जाए. मुंबई-गोवा हाइवे पर बना ब्रिटिश कालीन पुल टूटकर गिरने से बड़ा हादसा हुआ था. गौरतलब है कि इस पुल का निर्माण करने वाली ब्रिटिश कंपनी ने 1974 में पत्र देकर हाईवे अथॉरिटी को यह जानकारी दे दी थी कि इस पुल का निर्माण 1874 में हुआ था. पुल अपनी 100 साल की उम्र पूरी कर चुका है. लेकिन इसके बाद भी 40 साल तक लगातार इस पुल का इस्तेमाल किया जाता रहा और ये हादसा हुआ. कुछ वर्षों पूर्व भागलपुर के पास एक दुर्घटना घटी थी, जब ट्रेन के गुजरने के समय ही पुल धंस गया था. आज भी ऐसे ही और भी पुल हैं, जो अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं, फिर भी उनका इस्तेमाल किया जा रहा है, जहां कभी भी हादसा दोबारा हो सकता है.
नर्मदा नदी के पुराने पुल- नर्मदा नदी के इस पुराने पुल को गढ़-मण्डला के राजा नरेन्द्र शाह ने सन 1680 के आसपास बनवाया था, पुल पर दोनों तरफ कोई सुरक्षा रेलिंग नहीं है. इसपर बड़े-बड़े गड्ढे हो गए हैं, जिससे खतरा बना रहता है.
कोरोनेशन पुल- पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग का यह कोरोनेशन पुल भी अंग्रेजों ने 1937 में बनवाया था. पम्बन पुल- तमिलनाडु के रामेश्वरम में स्थित पम्बन आइलैंड को जोड़ने वाला यह पुल भी 1914 में ब्रिटिश सरकार ने बनवाया था.
पुराना नैनी पुल- उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में यमुना नदी पर बना यह पुराना नैनी पुल अंग्रेजों ने 1865 में बनवाया था.
कोईलवर पुल- बिहार की सोन नदी वाला यह पुराना पुल कोईलवर पुल के अलावा अब्दुल बारी पुल के नाम से भी जाना जाता है. यह 1862 में बना था, जो सबसे पुराने पुलों में से एक है.
गोदावरी पुल- आंध्र प्रदेश की गोदावरी नदी पर बना यह पुल 1897 में बनना शुरू हुआ और 30 अगस्त 1900 में बना. ये पुल लगभग 116 सालों से इस्तेमाल में लाया जा रहा है.
जुबली पुल- यह पुल पश्चिम बंगाल के नैहाटी और बंदेल को जोड़ता है. हुगली नदी पर स्थित इस पुल को भी अंग्रेजों ने 1885 में बनवाया था.
एलिस पुल- अहमदाबाद में साबरमती नदी पर बना यह पुल 1892 में आम जनता के लिए बनवाया गया था.
हावड़ा पुल- पश्चिमी बंगाल की हुगली नदी पर स्थित हावड़ा पुल को 1942 में अंग्रेजों ने बनवाया था.
देहरादून के निकट जौनसार बावर की लाइफलाइन कालसी चकराता मार्ग पर यूं तो ब्रिटिश कालीन कई पुल हैं, लेकिन सैया अमला नदी पर बना ब्रिटिश कालीन पुल अब आवाजाही के लिए सुरक्षित नहीं है और यह पुल अपना सुरक्षित जीवन पूरी कर चुका है. ऐसे में लोक निर्माण विभाग इस पुल को तोड़ने जा रहा है. इस साथ ही इस स्थान पर नए पुल का निर्माण होना है. पर ऐसे उदाहरण कम हैं. मोटी कमाई और भ्रष्टाचार के कारण आंख मूंदने की प्रवृत्ति भविष्य के लिए घातक है. दोषी व्यक्तियों को सजा देकर भी इसपर रोक लगाई जा सकती है.
इस मामले में भारत के सभी विभागों में तदर्थवाद देखा जाता है. जब तक कोई बड़ी घटना न घट जाए या राजनीतिक हंगामा न मच जाए या न्यायपालिका या मीडिया का दबाव न पड़े तब तक चुप्पी साधे रहो. जबकि विदेशों में इसका ठीक उल्टा होता है. वहां हर चीज कालबद्ध, शोध परक और बाकायदा लिपिबद्ध किया हुआ है कि कब किसका निर्माण हुआ, उसकी समाप्ति की अवधि क्या होगी और उसकी क्षमता क्या है, इसी प्रकार मोरवी वाले मामले में या अन्य दुर्घटनाओं के मामले में भी एक सामान्य सी बात है, कॉमन है. रंग दिया पेंट कर देने से देखरेख नहीं होती, जिन मिश्र धातुओं से रस्से का निर्माण होता है, उसकी कालावधि तय होती है. उसके बाद उसका क्षरण होने लगता है. होना यह चाहिए कि अगर हम मोटे रस्से के सहारे या पुलों के मामले में बड़े-बड़े स्तंभों के सहारे अगर कोई निर्माण करते हैं तो उसकी कालावधि के समाप्त होते-होते उसका पुनरीक्षण होना चाहिए और यदि वह उतना लोड, उतना दबाव नहीं ले पा रहा है, तो उसको बदल देना चाहिए. अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो कहीं ना कहीं अपने नागरिकों के जीवन के साथ खिलवाड़ करते हैं.
अभी तक भारत के किसी भी विभाग में एक मिलिट्री को छोड़ दिया जाए तो इस प्रकार का कोई भी रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है. मिलिट्री के तीनों अंगों में जितने वाहन चलते हैं, जितने हथियार हैं या उसके उपकरण हैं उसकी समाप्ति की अवधि भी लिखी रहती है. समय आ गया है कि हम अपने निर्दोष नागरिकों की सुरक्षा के लिए उसी प्रकार के मानकों का इस्तेमाल करें और धीरे-धीरे उनको बदलने की प्रक्रिया शुरू करें या वैकल्पिक व्यवस्था करें. अगर झूले वाले पुल की आवश्यकता है तो उससे भी आधुनिक तकनीक आज के दिन कई देशों में आ चुकी है, जो उससे भी अधिक आकर्षक है. उसको अपनाना चाहिए. अब 140 साल पुराने पुल को हम दर्शनीय स्थल के रूप में मान्यता दे सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक उपयोग के लिए उसका उपयोग करना ना सिर्फ घातक है, बल्कि मूर्खतापूर्ण भी है. इसी प्रकार हम देखते हैं कि रेलवे या राजमार्गों में जो पुल होते हैं, उनके निचले भागों की छोटी मोटी मरम्मत या देखरेख नहीं की जाती. सिर्फ ऊपर सड़कों को चमका दिया जाता है, लेकिन नीचे के पायों या ढांचे की कभी भी देखभाल नहीं होती, जिससे अनेकों बार रेल दुर्घटनाएं हुई हैं.
रोपवे के मामले में भी यही स्थिति है, जो रस्से प्रयुक्त होते हैं. उनकी एक काल अवधि होती है और उसके बाद अगर वह कंपनी निजी भी है तो उसको अनापत्ति पत्र तभी दिया जाना चाहिए, जब विशेषज्ञ द्वारा यह सुनिश्चित कर दिया जाए कि यह सर्वथा सुरक्षित है और इसके टूटने की कोई संभावना नहीं. लेकिन थोड़े बहुत लालच में और स्पष्ट नीति नहीं बनने के कारण इस तरह की घटनाएं घट रही हैं. अगर एक आयोग या नीति निर्धारक सेल बना दिया जाए, जो लगातार इन पर नजर रखें राज्यों से फीडबैक ले, केंद्र सरकार के अधीन जितने निजी या सरकारी पुल पुलिया या पुराने रोपवे हैं, उनके रखरखाव संबंधी जानकारियों का बीच-बीच में निरीक्षण करें तो हम दुर्घटनाओं को रोक सकते हैं. अन्यथा निर्दोष मारे जाते रहेंगे और समाचार पत्रों में या कुछ दिनों तक टीवी चैनलों में चर्चा होगी उसके बाद हम भूल जाएंगे. आम जनता अपनी रोजी-रोटी में उलझी होने के कारण बहुत सी बातों को भूल जाती है, लेकिन व्यवस्था में लगी सरकारों को इसे भूलना नहीं चाहिए. नहीं तो कभी न कभी न्यायालय तक यह बात जाएगी और संभव है कि कोई न्यायालय इस पर हस्तक्षेप करे और कड़े निर्देश दे तभी संभवतः सुधार हो पाएगा.
अभी मोरबी वाले मामले में बुकिंग क्लर्क, चौकीदार जैसे मामूली लोगों को दोषी बताकर उन्हें सजा देने से कुछ नहीं होगा. इसके असली दोषी वे लोग हैं, जो नाजायज तरीके से इस तरह के सार्वजनिक स्थलों का संचालन करते हैं और बिना उनके आदेश के कोई बुकिंग क्लर्क कोई चौकीदार क्षमता से अधिक लोगों को उसमें नहीं भेज सकता. इसमें राजनीतिक व्यक्तियों का हस्तक्षेप भी रोका जाना चाहिए और स्पष्ट दिशानिर्देश तय कर दिया जाए कि इसका निर्माण इस साल में हुआ है. इतने सालों के बाद इस रस्से को या इस पाए को या इस लोहे के स्तंभ को निरीक्षण के बाद बदलना पड़ेगा तो हो सकता है कि बहुत सारी घटनाएं ना घटें.
इसमें सबसे बड़ी कमी शोध की है. भारत में किसी भी कार्य के लिए शोध करने की परंपरा नहीं है. विदेशों में दुर्घटना क्यों घटी, उसके कारण क्या थे, भविष्य में ना घटे और कम से कम दुर्घटनाएं कैसे हों या नागरिक सुरक्षा को अंतिम बिंदु तक उसे कैसे सुरक्षित या निरापद किया जाए, इन सब बातों पर गहन चिंतन और गहन शोध किया जाता है और उस शोध का महत्व होता है. सरकार उसी के आधार पर नीतियां बनाती है. समय आ गया है कि गलती करो और सीखो के बजाय न्यूनतम असुरक्षा सुनिश्चित हो.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.