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आजादी के तीन वर्ष बाद मेरा जन्म हुआ. होश संभाला, तब देश जवाहर लाल नेहरू पर मोहित था. 1962 में एक बार बस एक झलक देखने का मौका मिला. उनके निधन के समय देश के साथ मैं भी गमगीन हुआ, रोया. हालांकि तब नेहरू की आभा धूमिल हो रही थी. किशोरावस्था में भगत सिंह, आजाद और बिस्मिल आदि के प्रति आकर्षण बढ़ा. डॉ लोहिया की चमक और वैचारिक प्रखरता से प्रभावित हुआ. इस हद तक कि कालेज में राजनीति विज्ञान के एक शिक्षक ने जब यह कह दिया कि लोहिया को नेहरू से निजी खुन्नस थी, उनसे उलझ गया. हालांकि बाद में महसूस हुआ कि तब मैं नेहरू को ठीक से नहीं जान सका था.
1974 में हजारों लाखों युवाओं के साथ मैं भी आंदोलन में शामिल हो गया
जो भी हो, तब तक नेहरू जी की बेटी इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन चुकी थीं. उन्होंने राजाओं का प्रिवी पर्स छीना, बैंकों और कोयला उद्योग आदि का राष्ट्रीयकरण किया, अच्छा लगा. उनकी मंशा जो भी रही हो, लगा कि अब ये इस (समाजवादी) रास्ते से पीछे नहीं हट सकेंगी. पार्टी के अंदर के उनके विरोधी खल पात्र ही लगे. ’71 में बांग्लादेश प्रकरण में तो पूरा देश उनके साथ था. मगर.. मगर अचानक स्थिति बदलने लगी. उनके अंदर अहंकार बढ़ने लगा. निरंकुश होती गयीं. और 1974 में हजारों लाखों युवाओं के साथ मैं भी आंदोलन में शामिल हो गया. नतीजा भुगता- बारंबार जेल. फिर ’77 में कांग्रेस और इंदिरा गांधी के पराभव का गवाह बना. संतोष का अनुभव हुआ कि उसमें मेरा भी कुछ योगदान था. 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी से मन खट्टा हुआ. ’84 में उनकी हत्या से झटका लगा, साथ में यह अफसोस भी कि उन नृशंस हत्यारों की इस करतूत से इंदिरा गांधी, जिनको पसंद नहीं करता था, को शहीद का दर्जा मिल गया.
वीपी सिंह का विद्रोह करना अच्छा लगा
फिर उस परिवार की तीसरी पीढ़ी के राजीव गांधी को सत्ता मिली. अच्छा नहीं लगा. यह कांग्रेस के एक परिवार की पार्टी बन जाने का ही प्रमाण था. वैसे राजीव गांधी को नापसंद करने का और कोई ठोस कारण नहीं था. मगर तब तक हम जैसे बहुतेरे लोग कांग्रेस विरोधी मानसिकता से लैस और ग्रस्त थे. वीपी सिंह का विद्रोह करना अच्छा लगा. ’89 के चुनावों में कांग्रेस का हारना भी. उसी दौर में अयोध्या को सुलगाने का प्रयास रंग दिखाने लगा था. धर्म और राम के नाम पर हो रहे उस अभियान को धतकर्म मानते हुए भी गैर कांग्रेसवाद की मानसिकता से हम मुक्त नहीं हो पाये थे.
1991 राजीव गांधी की हत्या से दहल गया, उसे शहादत मानने को लेकर दुविधा थी
1991 राजीव गांधी की हत्या से दहल गया. उसे शहादत मानने को लेकर दुविधा थी, प्रधानमंत्री के रूप में उनके अनेक फैसलों से असहमति थी. मगर तब तक यह एहसास भी हो गया था कि इस शख्स ने भरसक ईमानदारी से देश को आगे बढ़ाने का प्रयास किया. ’89 के चुनावों के बाद सबसे बड़े दल का नेता होते हुए भी सरकार बनाने के प्रस्ताव को विनम्रता से नकार देना उनकी शालीनता का एक उदाहरण था. 1991 के चुनावों में उनकी वापसी की संभावना प्रबल थी. उनकी आकस्मिक मौत के बाद कांग्रेस की जीत और सुनिश्चित हो गयी. वह फिर सत्ता में आयी. उसी दौर में देश की अर्थव्यवस्था में व्यापक बदलाव हुआ. पूंजीवाद नये सिरे से स्थापित हुआ. हमारी समझ से वह सही नहीं था, मगर आज कांग्रेस के विरोधी भी उसे युगांतरकारी बदलाव मानते हैं. फिर भी कांग्रेस ’96 में सत्ता से बाहर हो गयी. उसी दौरान 1992 घटित हो चुका था और 74 आंदोलन में साथ रही उस जमात से हमारा पूरी तरह मोहभंग हो गया.
अब बीच के समय को छोड़ कर उस परिवार की चौथी पीढ़ी पर आते हैं.
शुरुआती दौर में राहुल गांधी मुझे अपरिपक्व और अगंभीर लगते थे
शुरुआती दौर में राहुल गांधी मुझे अपरिपक्व और अगंभीर लगते थे. राजनीति के प्रति अनिच्छुक भी. मगर 2014 के बाद देश के हालात देख कर लगा कि इस निरंकुश, असहिष्णु और कम्युनल जमात को रोकने में कांग्रेस की ही मुख्य भूमिका हो सकती है, कि उसका पुनर्जीवित होना जरूरी है. वही ऐसी अखिल भारतीय प्रभाव वाली और मध्यमार्गी पार्टी है, जिसकी बुनियाद में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता है, और जो इस जमात को कारगर चुनौती दे सकती है. मगर कांग्रेस का संगठन एकदम लचर हो चुका था, जिस पर घिसे हुए निस्तेज क्षत्रपों का कब्जा था.
तभी, 2019 में नरेंद्र मोदी की दोबारा ताजपोशी के बाद राहुल गांधी में विलक्षण बदलाव आता दिखा. देश व समाज की समझ, साहस, राजनीति और देश के ऊबड़- खाबड़ रास्तों पर चलने का जज्बा और विरोधियों के हमलों की परवाह किये बिना लक्ष्य हासिल करने की जिद. नतीजा-आज कांग्रेस नयी ऊर्जा से लैस दिखने लगी है. यह राहुल का कारनामा है. मैं कायल हुआ, लगता है अंततः देश भी कायल हो रहा है.
अपनी उम्र की इस सांध्य बेला में उन्हीं इंदिरा गांधी के पौत्र से उम्मीद बांध रहा हूं
अजीब विडंबना है- जिस नेहरू को उनकी किंचित कमियों के बावजूद हम दिलो जान से पसंद करते थे, करते हैं, राजनीति का ककहरा उनकी पुत्री इंदिरा गांधी का विरोध करते हुए पढ़ा! और आज अपनी उम्र की इस सांध्य बेला में उन्हीं इंदिरा गांधी के पौत्र से उम्मीद बांध रहा हूं. हालांकि इंदिरा गांधी के दामन पर वह दाग तो लगा ही रहेगा, फिर भी यदि आज राहुल गांधी को लोकतंत्र और संविधान बचाने के इस पुनीत संग्राम में सफलता मिलती है, तो इतिहास में इसे एक उपलब्धि के रूप में याद रखा जायेगा कि वह अपनी दादी के राजनीतिक जीवन पर लगे निरंकुश अलोकतांत्रिक होने के दाग को एक हद धो सकेगा.
जवाहर लाल नेहरू पर परिवारवाद का आरोप या दाग इंदिरा गांधी के कारण लगा. मगर एक तरह से उसी ‘परिवारवाद’ की उपज एक नौजवान आज अपने कृत्य से उस परिवार की प्रतिष्ठा को बढ़ा रहा है. शुभकामनाएं!
आज देश फिर एक ‘गांधी’ की ओर उम्मीद से देख रहा है
इत्तेफाक से राहुल के नाम में गांधी लगा है, और आज देश फिर एक ‘गांधी’ की ओर उम्मीद से देख रहा है, उसे सफल होते देखना चाहता है. और अजीब विडंबना है कि देश के ‘गोडसेवादी’ एक बार फिर एक ‘गांधी’ को हिंदू विरोधी, मुसलिम परस्त साबित करने की मुहिम चला रहे हैं. ये उस गांधी को मार कर भी नहीं मार पाये, आशा है कि इस गांधी का भी शायद कुछ बिगाड़ नहीं सकेंगे. सवाल एक व्यक्ति के सफल या विफल होने का है भी नहीं- यह है कि देश बचेगा या पराजित हो जायेगा. रात कितनी भी अंधेरी हो, सुबह होती ही है. हमें आशावादी होना चाहिए.
देश के प्रथम और हरदिल अजीज प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उनकी पुण्यतिथि पर आदरांजलि के साथ.