राजा पटेरिया
राहुल गांधी के नेतृत्व में चल रही भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने का अवसर मिला, यात्रा में शामिल होकर एक लंबे समय के बाद जीवंतता का भाव मन में आया. लगा कि राजनीति में भूख, गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, साम्प्रदायिक सौहार्द, राष्ट्रीय एकता जैसे मुद्दे अभी भी बाकी हैं. क्योंकि समाजवादी आंदोलन के पराभव के कारण ये मुद्दे कहीं नेपथ्य में चले गये थे. इनके स्थान पर जनता को भ्रमित करने वाले मामले अपनी जड़ें जमा चुके थे. बीजेपी नीत एनडीए की वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार हो या पूर्व की वाजपेयी सरकार, सभी जनता को भ्रमित कर शासन करती रही है. अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति पर काम किया तो बीजेपी की सरकार ‘भटकाओ और राज करो’ की नीति पर काम कर रही है. यानी जनता का ध्यान असल मुद्दों से भटका दो तो शासन करना आसान हो जाता है.
गरीबी के हालात यह हैं कि सरकार खुद कहती है कि वह देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन बांट रही है. दूसरे शब्दों में कहें तो सवा सौ करोड़ की आबादी में से 80 करोड़ लोगों को खाने तक के लाले पड़े हैं. यदि सरकारी सहायता नहीं मिली तो देश में भुखमरी फैल जायेगी. देश में धार्मिक सद्भाव और सहिष्णुता के बारे में बोलने की आवश्यकता नहीं है. उसकी क्या स्थिति है हम सभी जानते हैं. दूसरी ओर देश में खरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. हमारे उद्योगपति गौतम अडानी दुनिया के तीसरे सबसे रईस आदमी बन चुके हैं. मुकेश अंबानी पहले ही दुनिया के शीर्ष दस रईसों में शामिल हैं. अब अडानी भी आ गये हैं. दुनिया के सौ शीर्ष रईसों में राधाकृष्ण दमानी का नाम भी आ गया है. लेकिन हैरानी है कि इतनी विषम परिस्थितियों में भी कोई जनांदोलन नहीं छिड़ा! जनता सड़कों पर नहीं उतरी, कोई प्रदर्शन नहीं हुआ. सरकार और उद्योग घरानों के गठजोड़ हमेशा ही चर्चा का विषय रहे हैं. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि हर राजनीतिक दल के अपने उद्योगपति होते हैं. लेकिन इस देश में उद्योगपतियों का केवल एक ही राजनीतिक दल है और वह है बीजेपी.
यह बिलकुल ऐसा है कि जैसे दुनिया में हर एक देश के पास अपनी फौज होती है. लेकिन, पूरी दुनिया में फौज के पास अपना केवल एक देश है और वह पाकिस्तान है. यहां फौज ही सर्वेसर्वा है, वह अपनी मर्जी से लोकतंत्र चलाती है, अपनी मर्जी से चुनाव करवाती है और अपनी मर्जी का प्रधानमंत्री बनाकर बिठाती है. जैसे अभी इमरान खान चुनाव जीते थे, लेकिन उन्हें हटाकर प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ बना दिये गये. बिलकुल ऐसा ही बीजेपी में है. यहां भी कॉरपोरेट घरानों की पसंद से नेता चुने जाते हैं और वह उस समय तक नेता रह सकता है, जब तक कॉरपोरेट घरानों की कृपा उन पर है. उनकी मर्जी के बिना किसी राज्य में कोई दूसरी पार्टी चुनाव जीत जाये तो पैसे के बल पर निर्वाचित सरकार गिरा दी जाती है और बीजेपी की सरकार बनवा दी जाती है. राहुल गांधी की यात्रा को लेकर बीजेपी आरोप लगा रही है कि वे मंदिर, मस्जिद समेत सारे धार्मिक स्थलों पर सिर झुका रहे हैं. लेकिन, इसमें गलत भी क्या है! आज देश जिस हालत में पहुंच चुका है, उसके लिए धर्मस्थलों पर धोक देना कहां से गलत है! मरणासन्न की स्थिति में पहुंचे किसी बीमार बच्चे की मां अपने बच्चे की रक्षा के लिए हर चौखट पर शीश झुकाती है. फिर वह मंदिर हो, मस्जिद हो, गुरुद्वारा हो या फिर पीर-फकीर या साधु-संत का दर हो! उसकी मंशा किसी तरह बच्चे को बचाने की होती है और आज राहुल गांधी बीमार देश के लिए उसी मां की भूमिका में हैं. बीजेपी ने देश को जिस हालत में ला दिया है, समझा जा सकता है कि भविष्य किस तरह का होगा.
हीरा उत्खनन के लिए यहां 2.15 लाख पेड़ काटे जा रहे हैं. एक ओर तो ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए जंगलों के संरक्षण की बात की जाती है, दूसरी ओर आर्थिक हितों के लिए हजारों हेक्टेयर के प्राकृतिक जंगल का नाश करने में सरकार को कोई आपत्ति नहीं है. सरकार से जुड़े खनन माफिया पहाड़ काट रहे हैं. नर्मदा समेत दूसरी नदियों से अवैध रेत उत्खनन की खबरें आम हो चली हैं. बुंदेलखंड में गरीबों के मवेशियों के लिए आरक्षित चरनोई की जमीनों पर कब्जे हो रहे हैं, लेकिन सरकार का ध्यान इस ओर नहीं है. क्योंकि सरकार से जुड़े व्यापारी और उद्योगपतियों को इससे फायदा है. बीजेपी के बीस साल के शासन में आज प्रदेश किन हालात में पहुंच चुका है, यह किसी से छिपा नहीं है, फिर भी हम हालात से लड़ने की बजाय उनसे समझौता करना सीख गये हैं.
बीजेपी नेताओं का चरित्र ऐसा है कि हर आलोचना में उन्हे अपना विरोध दिखाई देता है. उन्हें लगता है कि उनकी योग्यता और अहमियत पर सवाल उठ रहे हैं. भूख, गरीबी और बेरोजगारी का मुद्दा उठाने पर उन्हें साजिश नजर आती है और अपनी नाकामियों से परदा उठता दिखता है. इसीलिए वे हरसंभव प्रयास करते हैं कि रोजगार, भूख और गरीबी जैसे मूलभूत सवाल अपनी आवाज खो दें. अमीरों द्वारा गरीबों की आवाज दबा दी जाती है और यहीं समता और समानता का संवैधानिक उद्देश्य अपना दम तोड़ देता है. एक देश के रूप में हमारी पहचान किसी महानायक के आगे खत्म हो जाती है. राहुल इसी गैरबराबरी और इसी जड़ता के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. वे सत्ता की तानाशाही के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. क्योंकि तानाशाही कोई सत्ता के जोर पर नहीं आती वह एक मानसिकता होती है, जो अक्सर घमंड से जन्म लेती है. इसी मानसिकता के खिलाफ राहुल गांधी नरेंद्र मोदी से लड़ रहे हैं. सरकार को भी अब यह समझना चाहिए कि इस यात्रा के दूरगामी परिणाम बहुत गहरे होंगे. ऐसी यात्राओं और आंदोलनों के प्रभाव समुद्र के भूकंप की तरह होते हैं, जिनका असर सतह पर तुरंत नहीं दिखता, लेकिन कुछ समय के बाद यह सुनामी बनकर लौटते हैं और बड़ी-बड़ी सत्ता को उखाड़ फेंकते हैं.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.