Anand Kumar
झारखंड कभी धरती के सबसे शानदार और रहस्यमयी परभक्षी बाघों के लिए जाना जाता था. देश में बाघों की गणना भी पहली बार पलामू में ही सन 1932 में हुई थी. साल 1974 में व्याघ्र परियोजना के तहत बनाये गये भारत के नौ टाइगर रिजर्व में पलामू टाइगर रिजर्व (पीटीआर) भी एक था. स्थापना के समय यहां कुल 50 बाघ थे.
पलामू टाइगर रिजर्व 1,026 वर्ग किमी क्षेत्र में स्थित है. इसमें पलामू वन्यजीव अभयारण्य का क्षेत्रफल 980 वर्ग किमी है. अभयारण्य के 226 वर्ग किमी कोर क्षेत्र को बेतला राष्ट्रीय उद्यान के रूप में अधिसूचित किया गया है. भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून से मिले आंकड़ों के अनुसार 1974 में पलामू टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या 50 बाघ थी. उसके बाद हुए टाइगर सेंसस के अनुसार 2005 तक 38 बाघ बेतला के जंगलों में थे.
उसके बाद बाघों का घटने का क्रम शुरू हो गया जो साल 2018 में शून्य पर जाकर खत्म हो गया. टाइगर सेंसस के अनुसार 2006 में 17, 2008 में 06, 2010 में 06, 2014 में 03 तथा 2018 में शून्य था. हालांकि साल 2019 में बाघों की संख्या 3 बतायी गयी. इसमें एक बाघिन व दो बाघ शामिल थे. फरवरी 2020 में बेतला में एक बाघिन का शव पाया गया. इसके बाद यहां किसी भी बाघ के देखे जाने का कोई प्रमाण नहीं मिला है.
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वहीं दूसरी ओर बिहार के वाल्मिकी टाइगर रिजर्व में वर्तमान में आधिकारिक तौर पर 30 से अधिक बाघ हैं. झारखंड के पूर्व मंत्री तथा पर्यावरण संरक्षण को लेकर कई अभियान चलाने वाले सरयू राय ने इसे लेकर एक ट्वीट भी किया है. उन्होंने कहा है कि झारखंड अलग होने के समय पलामू में एक दर्जन से अधिक बाघ थे, जबकि वाल्मिकी में मात्र तीन थे. आज पलामू में बाघों की संख्या शून्य है. एक साल में यहां एक बाघिन कई हाथी गौर-सांभर-चीतल मरे.
राय ने लिखा है कि वह दिन दूर नहीं जब पीटीआर की अधिसूचना रद्द करनी पड़े. राय भले ही पीटीआर को लेकर चिंतित हों लेकिन सरकार के स्तर पर इस लेकर कोई चिंता नजर नहीं आती. इस हालत में पहुंच जाने के बाद भी पीटीआर को किसी सार्थक पहल का इंतजार है.
पलामू टाइगर रिजर्व में बाघों के संरक्षण के लिए रिजर्व एरिया को 7 जोन में बांटा गया है. इन रेंजों की देखभाल का जिम्मा विशेष अधिकारियों और वनकर्मियों पर है. एक डायरेक्टर के अधीन दो डीएफओ (कोर और बफर एरिया के लिए) सात अलग-अलग क्षेत्रों के लिए सात रेंजर्स की विशेष नियुक्ति है. 120 फॉरेस्टर्स भी तैनात हैं. चप्पे-चप्पे पर बाघों के ट्रैक करने के लिए 300 ट्रैकरों को अनुबंध पर रखा गया है. इन ट्रैकरों का मानदेय 2,88,000 रुपये है. छह लाख प्रति टावर की लागत से 94 वाच टावर भी बनाये गये. कुल 5.64 करोड़ खर्च किये गये. इन टावरों पर तीन पाली में निगरानी करने के लिए 427 अतिरिक्त ट्रैकरों को रखा गया. इससे पलामू टाइगर रिजर्व पर मजदूरी मद में अतिरिक्त खर्च बढ़ गया.
इतना बड़ा अमला रखने का कोई फायदा तो पीटीआर को नहीं हुआ, उलटे नुकसान ही हुआ. टाइगर रिजर्व के जंगलों में मानवीय दखल बढ़ने से एकाकीपन पसंद टाइगर समेत अन्य जीव-जंतु पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ के जंगलों की तरफ शिफ्ट कर गये. बाघ देखने की आस में बेतला आनेवाले स्थानीय लोग और पर्यटक वर्षों से यहां आते और निराश लौटते रहे हैं. टाइगर रिजर्व के अधिकारी कभी 3 तो कभी 5 बाघों के होने की बात तो करते हैं, लेकिन नर-मादा बाघों की सही संख्या कोई नहीं बताता.
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पीटीआर के अधिकारी कभी हजारीबाग, कभी सारंडा और कभी छत्तीसगढ़ के जंगली इलाकों में बाघों के पलायन की बात कह कर लोगों को बरगलाते आ रहे हैं. साल में कभी-कभार बाघों के पद चिन्ह, मल या फिर धुंधली ट्रैप तस्वीर दिखाकर अधिकारी बाघों के होने का दावा करते हैं, लेकिन आज तक उनसे किसी ने यह नहीं पूछा कि पीटीआर में बाघ और बाघिन हैं, तो उनके शावक क्यों नहीं दिखते कभी. क्या बाघ यहां प्रजनन नहीं करते. हकीकत यह है कि बेतला में बाघ बचे ही नहीं हैं.
यहां जंगलों में मानवीय दखल और शिकार एक अलग समस्या है. हाथियों और घास चरनेवाले दूसरे जानवरों की मौत के कारणों की वैज्ञानिक जांच होनी चाहिए, लेकिन होती नहीं. जानवरों की शिकार की बात दबी जुबान होती है. इसमें स्थानीय ग्रामीण और पेशेवर शिकारी दोनों शामिल हैं. और यह बिना वन विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत के संभव नहीं है.
यह संभव है कि पलामू टाइगर रिजर्व के बाघ इसकी सीमा से सटे छत्तीसगढ़ के गुरु घासीदास नेशनल पार्क में चले गये हों, जहां उनके लिए पर्याप्त भोजन, सुरक्षा तथा पर्यावास उपलब्ध है. अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि बेतला में बाघों की वापसी हो. और देश के सबसे पुराने टाइगर रिजर्व में से एक पीटीआर को इस हालत तक लाने के जिम्मेदार अधिकारियों की गर्दन पकड़ी जाये.
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