गांव की कहानी
(Ramsahai Tuti,sanika Tuti,sameer topno)
ओमटो गाँव के पश्चिम सीमान पर सिनी दुल नामक एक जगह है. यह जोरद का भी सीमान है यानि सिनी दुल जोरद और ओमटो गाँव के बीच है. मुण्डारी भाषा में दुल उस जगह को कहते है, जहाँ से पानी गिरता हो. इस जगह पर नदी किनारे एक चट्टान है. उस चट्टान पर धान या चावल कूटने का सेल बना हुआ है. इसके पीछे एक ऐतिहासिक कहानी छिपी हुई है. उस कहानी के बारे में चर्चा करते हुए ग्राम प्रधान ने बताया सिनी दुल की कहानी ही इस इलाके तमाम गांवों के बसने की स्मृति अपने में समेटे हुए है.
“बुण्डू राजा के तीन बेटे थे. जिसमें से एक का नाम नरसिंह मुण्डा था. एक दिन वह अन्य बच्चों के साथ खेल रहा था. खेलते-खेलते कुछ बच्चे बैल बनकर फोंके हुए पुआल के ऊपर धान मिसने के लिए घूमने लगे. कुछ देर में ही पुआल के बीच में धान के बीजों का कुद्दा: ढेर लग गया. उस ढेर के देखकर वहाँ उपस्थित बच्चे आश्चर्यचकित हो गए. उन्होंने कहा कि इस चमत्कार की पूजा करनी चाहिए और बकरे की बलि देनी चाहिए. उन बच्चों ने आपस में चर्चा किया कि बकरा कौन बनेगा, चर्चा के दौरान खेल-खेल में बुण्डू राजा का बेटा नरसिंह ने एक लड़के को कोंयद के पत्तों से काट दिया. उसका सिर धड़ से अलग हो गया. नरसिंह डर गया कि बुण्डू राजा या गाँववाले उसे मारेंगे. वह डरकर जंगल की तरफ भाग गया और वहीं रहने लगा. जंगल में रहते हुए उसने एक रिची चेंड़े: बाज पक्षी को पाला था.
जो उसे पानी और भोजन की तलाश करने में मदद करता था. नरसिंह पहाड़ की गुफा में रहता था. इसलिए आज भी उस स्थान को चोपांग : चोल्पांग गुफा जैसा कहते हैं. वहाँ से पश्चिम में एक बड़ा सा गुफा स्थित है जहाँ पर नरसिंह बैठा करते थे. जो आज भी वैसा ही है. उस जगह को आज भी दुनुब ओड़ा गुफा के नाम से जाना जाता है. मुण्डारी में दुनुब का अर्थ होता है बैठने का स्थान.
नरसिंह का बाज एक दिन उड़ता हुआ सिनी दुल जलप्रपात के पास पहुँच गया. सिनी नाम की एक सुन्दर लड़की जल प्रपात के बगल के चट्टान पर बने सेल में धान कूट रही थी. सिनी ने उस बाज के एक सूप से ढँक दिया. जब बाज बहुत देर तक नहीं लौटा तो नरसिंह उसकी तलाश में पश्चिम दिशा की ओर निकल पड़ा. सिनी दुल जल प्रपात के पास पहुँचकर उसने सिनी से अपने बाज के बारे में पूछा. सिनी उसकी जटाओं को देखकर डर गई थी.
सिनी ने नकारात्मक जवाब दिया. नरसिंह की आवाज सुनकर उसका बाज सूप के अन्दर से चिल्लाने लगा. उसकी आवाज सुनकर नरसिंह ने अपनी चिडि़या को सूप में ढँके होने की बात कही और उसे वापस करने को कहा. उसी दिन दोनों की जान पहचान हुई. उस दिन के बाद से दोनों दुनुबओड़ा गुफा में मिलने लगे. सिनी के रोज पूरब दिशा की ओर जाते देख लोग तरह-तरह की चर्चा करने लगे और सिनी से उसके बारे में पूछने लगे. एक दिन उसके माता-पिता ने उसका पीछा किया और गुफा में एक साथ दोनों को देख लिया.
नरसिंह जिस तरह देखने में हट्टा-कट्टा और विशाल था सिनी शारीरिक बनावट में बिल्कुल वैसी ही थी. नरसिंह के सिर में लम्बी-लम्बी जटाएँ थी इसलिए उसे जटा भी कहते थे. गाँव के लोग बाद में नरसिंह से हिलमिल गए और सिनी से उसकी शादी तय कर दी गई. नरसिंह ने भी यह शादी मंजूर कर ली. शादी तय होने के बाद इसे दुनुब ओड़ा से जोरदा गाँव लाया गया. उसके पैर धुलवाए गए और नहलाया गया. जिस जगह पर उसके पैर धुलवाये गये थे और उसे नहलाया गया था उस जगह को आज अबुदिरी पीडि़ के नाम से जाना जाता है.
उसकी जटाओं को जब साफ किया जा रहा था तो उसकी जटाओं से सात साँप निकले थे. जटाओं के साफ करने के बाद सात छोटे-छोटे घड़ों: चुक्का के तेल से सिर की मालिश की गयी थी. इसके बाद दोनों की शादी कर दी गई. दोनों के विवाह सूत्र में बाँधने के बाद उन्हें दान के रूप में जमीन दी गयी. जिसका नाम हकाडुआ पड़ा. मुण्डारी में हका का अर्थ होता है टाँगना और डुआ का अर्थ होता है छोटा चुक्का. जोरद के लोगों ने उसे दामाद के रूप में स्वीकार किया और इसके गाँव के हकाडुआ नाम दिया.
साथ ही साथ गोत्र के रूप में टुटी किलि दिया गया और उसे उस गाँव का मुण्डा भी बना दिया गया. सिनी के नाम से आज भी सिनी दूल प्रसिद्ध है. सिनी दुल की कथा गांवों के बसने के पीछे की अनेक परतों को खोलता है.
ओमेटो गांव में यह कहानी अब भी कही जाती है. ओमटो गाँव खूँटी जिला के तिलमा पंचायत में स्थित है. जहाँ 50 मुण्डा परिवार रहते हैं. इस गाँव की कुल जनसंख्या 300 से अधिक है. यहाँ सोले किलि के मुण्डा रहते हैं. ओमटो गाँव खूँटी से 21 किण्मीण की दूरी पर और मारंगहादा से 6 किण्मीण की दूरी पर पूर्वेतर दिशा में स्थित है. राँची-चाईबासा मुख्य सड़क में खूँटी से पूर्व दिशा में बुण्डू जाने वाली सड़क से यहाँ पहुँच सकते हैं या फिर राँची जमशेदपुर मार्ग से तैमरा के पास दक्षिण दिशा की ओर मुड़कर डाड़ीगुटु के पास पहुँचने के बाद पूर्व दिशा में मुड़कर इस गाँव में पहुँचा जा सकता है.
गाँव का नामकरण और पहला होडो
खूटकट्टी क्षेत्र में सभी गाँवों के बसने के बाद ओमटो गाँव बसा था. क्षेत्र के लोग बोलने लगे कि ओकोया ओमाआः कोआः अर्थात सभी गाँवों के बीच में इन लोगों को जगह किसने जगह दी. चिलका तेके ओम टोओअः जनः अर्थात कबसे और क्यों दिया. यह सवाल बार-बार पूछा जाता है. सवाल पूछने के कारण ओम टोओः शब्द आपस में मिल गये और इस जगह का नाम ओमटो हो गया.
सबसे पहले इस जगह पर बुण्डू के डाड़ुहातु गाँव के लोग आकर बसे. इस गाँव से जुड़ी एक लोक कथा प्रचालित है जो कथा इस गाँव के बसने की कहानी को बताता है. इस कथा के सुनाते हुए लोगों ने बताया कि यहाँ के जंगल में एक बाघ रहता था. बाघ एक-एक करके गाँव के लोगों को खाने लगा था. लोगों के खाने के बाद उनके शरीर का एक टुकड़ा : हाथ या पैर के दरवाजा के सामने रख देता था.
इस घटना से डाड़ुहातू के लोग बहुत डर गए और ओमटो से भाग गए. उसके बाद सुकरी सेरेंग के लोग ओमटो में आकर बसने लगे. उन लोगों को भी बाघ खाने लगा इसलिए ये भीयभीत होकर वहाँ से भाग गए. सुकरी सेरेंग का एक व्यक्ति यहाँ से भागने के बाद तमाड़ चला गया और बाउगुटु में रहने लगा. वहीं पर उसे बाघ ने मार दिया. उसकी लाश को सुकुरी सेरेंग लाया गया. सुकरी सेरेंग के लोग जिस ससन में अपने प्रियजनों के मृत शरीर को दफनाते थे, उसी में उस व्यक्ति की लाश को भी दफन कर दिया गया.
उस रात ससन से एक आवाज सुनाई दी इलायाः दोलाया निरेबुआः अर्थात आओ जी भागो जी. रात में आवाज सुनने के बाद सुबह गाँव में ग्राम सभा की बैठक हुई और यह निर्णय लिया गया कि उस व्यक्ति को बाउगुटु से लाकर दफनाने से एक बहुत बड़ी गलती हुई है. उसके बाद दफनाए हुए मृत शरीर को निकालकर सुकरीसेरेंग ग्राम का रंगरूड़ी नदी से दक्षिण कुछ दूर में उसको जला दिया गया. जिस स्थान पर उसे जलाया गया था, वहाँ अभी भी घास नहीं उगती है.
सुकरीसेरेंग गाँव में लोगों ने जो खेत बनाया था, उस खेत में पत्थर के ऊपर पत्थर रखकर आड़ : खेत की मेड़ बनाया.
उस स्थान को सुकुरी तिरींग नाम से जाना जाता है. सुकरीसेरेंग गाँव के पूर्वज सायको गाँव में रहा करते थे. इस गाँव को बसाने वाले व्यक्ति का नाम गोगा मुण्डा था. गोगा मुण्डा की मृत्यु के बाद उन्हें सायको ग्राम के ससन में ही दफनाया गया. गोगा मुण्डा को जहाँ दफनाया गया था वह पत्थर आज भी वहाँ स्थित है. सायको बाजार के दिन में कुम्हार लोग जिस जगह घड़ा बेचने के लिए बैठते हैं उसी जगह पर गोगा मुण्डा की ससन दिरि है.
गोगा मुण्डा के दो लड़के थे.दुगा मुण्डा और जगदेव मुण्डा. वे लोग गाँव बसाने के लिए जमीन की तलाश में इधर-उधर धाँगर के रूप में काम कर रहे थे. बहुत दिनों तक वे धांगर के रूप में चामडी ग्राम के मुण्डा के घर में रहे. एक दिन दोनों शिकार : सेंदरा पर निकले. शिकार करते-करते एक जगह काटिया उर : चूहे का बिल कोड़ने लगे. दिन भर काटिया उर: चूहे का बिल कोड़ना करने के बाद शाम को दो घड़े में उन्हें चाँदी का सिक्क गड़ा हुआ मिला. रात में दोनों घड़े के सागड़ : बैलगाड़ी से दूसरी जगह पर ले जाने लगे. चलते-चलते डाड़ीगुटु गाँव में सवेरा हो गया.
उसी गाँव में पेड़ के नीचे कुछ दिन रहने के बाद हातु मुण्डा : डाड़ीगुटु गाँव के मुण्डा से बात की और उन्हीं के यहाँ धांगर के रूप में रहने लगे. डाड़ीगुटु में रहते हुए उन्होंने ओमटो ग्राम की जगह की तलाश किया और यहाँ खेती करने लगे. ओमटो में उगाए गए अनाज-धान, कुसुम, महुआ का फल बैलगाड़ी से डाड़ीगुटु ले जाया करते थे.
ओमटो का जो बाघ लोगों को खाया करता था उसे भी धीरे-धीरे इन्होंने अपना दोस्त बना लिया और समय-समय पर उसकी पूजा की जाने लगी. उसके बाद यहाँ पर गाँव बसना शुरू हुआ. इस गाँव में सोले किलि के लोग रहते हैं. बाद में पतड़ाडीह, तिलमा, बानाबुरू, बुन्डू और अयुबहातू गाँव के लोग इस गाँव में आकर रैयत के रूप में बस गए.
हातु बोगां का इतिहास
जितना पुराना इस गाँव का इतिहास है, उतना ही पुराना इस गाँव के ग्राम देवता का भी इतिहास है. ये लोग शुरू से ही प्रकृति यानि नदी, पहाड़, जंगल को ईश्वर के रूप में पूजते आ रहे हैं. क्योंकि इनका जीवन मुख्यतः प्रकृति पर ही निर्भर है. सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से ये प्रकृति पर ही निर्भर है, इसलिए इसके अलग-अलग रूपों के ईश्वर के रूप में पूजते हैं.
गाँव के पूरब में तोवन बुरू देवता की पूजा की जाती है. गाँव के दक्षिण में सयद्बा इकिर और उलि इकिर की पूजा होती है. गाँव के उतर दिशा में माईलचंडि़ स्थित है जहाँ चंडि़ देवी की पूजा करते हैं. इस गाँव के पश्चिम दिशा में गगरी आडु गड़ा नामक पूजा स्थान स्थित है. गाँव के पूरब दिशा में दिबि स्थान हैं. जहाँ दिबि पूजा की जाती है. यहाँ पर वर्ष में एक बार काला बकरा, लाल मुर्गा, काला मुर्गा, सिरनी, सुपारी एवं अन्य चीजों से पूजा करते हैं. दिबि पूजा करने को लेकर इनका यह विश्वास है कि दिबि स्थान में पूजा करने से गाँव में किसी प्रकार का रोग नहीं घुसता है. वज्रपात या ओला वृष्टि नहीं होती है.
तेवन बुरू
ओमटो गाँव के पूरब दिशा में स्थित तेवन बुरू स्थित है. यहाँ वर्ष में एक बार लाल बकराए,सफेद मुर्गा और तपन हँडि़या से पूजा की जाती है. वैसे पूजा का महीना तथा तारीख तय नहीं होता है परन्तु यह पूजा प्राय माघ महीने में होती है. कहा जाता है कि गाँव वाले जिस बाघ की पूजा करते आ रहे हैं, उसकी आत्मा आज भी तेवन बुरू में बसी हुई है. तेवन बुरू में जब टांगी से पेड़ों को काटा जाता है, तो बाघ के गरजने की आवाज सुनाई पड़ती है. इसलिए अब इस पहाड़ में टांगी या दौली से पौधों को नहीं काटा जाता है.
ग्रामीणों के अनुसार, यदि गाँव वालों से कुछ गलती होती है तो वहाँ पर विशालकाय आदमी दिखाई देते हैं. आग लगाने पर भी उस स्थान में आग नहीं लग सकता है. गाँव के लोगों का मानना है कि जब भी शादी विवाह में कुछ सामान की जरूरत होती थी तो वहाँ से मांगने पर मिलता था. शादी-विवाह में रुपये-पैसे बर्तन अथवा किसी भी प्रकार की जरूरत की चीजों के लिए यहाँ पर प्रार्थना करने से किसी न किसी रूप में पूरी होती रही है.
सयद्बा इकिर
इस गाँव के दक्षिण दिशा में सयद्बा इकिर स्थित है. यहाँ वर्ष में एक बार काला मुर्गा और मलि: चितकबरा मुर्गा के साथ-साथ तपन हँडि़या से पूजा की जाती है. यह पूजा आषाढ़ महीने में की जाती है. गाँव के दक्षिण दिशा में सरना स्थान है. यहाँ पर बहा पर्व :सरहुल के अवसर पर पहान पूजा करते हैं. सरना पूजा करने के लिए पहान को जमीन दी गयी है. सरना स्थान में तपन हँडि़या से पूजा करते हैं और लाल मुर्गा, सुकड़ा मुर्गा, मलि मुर्गा एवं काला मुर्गा की बलि दी जाती है. इस गाँव में माड़ाबुरू देशाऊलि स्थित है. माड़ाबुरू देशाऊली की पूजा 20 साल में एक बार की जाती है. वैसे पहाड़ पूजा के समय माड़ाबुरू के नाम से पूजा कर दी जाती है.
जलप्रपात
उत्तर दिशा में ही ओमटो और तिलमा के बीच में पायद जलप्रपात स्थित है जो दशम जल प्रपात से भी ऊँचा है. इस जलप्रपात के बारे में लोग नहीं जानते हैं. यह अभी तक लोगों से छिपा हुआ है. केवल आसपास गाँव के लोग ही इस जलप्रपात के बारे में जानते हैं. ओमटो के दक्षिण दिशा में हकाडुआ गाँव स्थित है. गाँव के पश्चिम में गगरी नदी बहती है. इस नदी का पानी लांदुप, चोन्डोर,जोजोहातू से होते हुए हेन्देबा, गड़ामड़ा, लोबोदा, कुरकुटा, हकाडुआ, सलगाडीह, जोरदाग, ओमटो तिलमा गाँव का पायद जल प्रपात होते हुए कांची नदी में मिल जाता है.
खान-पान
ओमटो वासियों के भोजन में मुख्यतः खुद के द्वारा उगाए गए अनाज, दलहन, तेलहन के साथ-साथ अनेक तरह के जंगली साग, कंद-मूल फल सब्जी शामिल होते हैं. इनके खान-पान में माटा साग, चाकोंड़ा साग, कटई साग,बेंग साग, पालक, कोयनार साग, कुदरूम साग, उरद दाल, कुरथी, अरहर, मूली, बोदी, कद्दू, कुंदरी, करेली, केउन्द, चार, भेलवा, बैर, पपीता, तीता कंद-मूल, पेचकी टुटी, ओल, जंगली ओल, सकरकंद, कंदा, बाँस की सब्जी, अम्बड़ा,शरीफा इत्यादि शामिल होते हैं.
लोगों का मानना है कि बैर खाने से कोप :कफदूर हो सकते हैं. पपीता खाने से खून बढ़ता है. मुनगा साग खाने से बात रोग दूर होता है. मुचुरी साग से खून साफ होता है. इसके साथ-साथ इमली, फुटकल साग, महुआ का फूल,: सिझाकर, डाची का तेल, राई का फूल, सेंबी, मकई, गंगई, कोदो, मड़ुआ गुंडलु, गरन्डि साग, बटरा, मूंग, चना, आम, कब्था बाँस को सुखाकर खाया जाता है.
ओमटो गाँव में सरहुल, करमा, सोहराई, मागे पर्व एवं त्योहारों के अवसर पर नाच-गान में मांदर, नगाड़ा,ढोलकए,झांझ, बांसुरी तथा करताल वाद्ययंत्रों के रूप में प्रयोग किया जाता है.