Tundi : धनबाद के अति नक्सल प्रभावित टुंडी प्रखंड के ठेठाटांड में भगवान शिव का प्राचीन शिवलिंग है, जिसे नंढा महादेव के नाम से जाना जाता है. यहां मथ्था टेकने वाले श्रद्धालुओं की हर मनोकामना पूरी होती है. लेकिन इस मंदिर में आदिवासियों एवं दलितों का प्रवेश वर्जित था. 1973 में जब महाजनी प्रथा का विरोध कर रहे आदिवासियों के सबसे बड़े नेता व झामुमो के अध्यक्ष शिबू सोरेन ने झारखंड आंदोलन की शुरुआत की तो पंडा समाज के घोर विरोध के बीच सैकड़ों आदिवासियों व दलितों को शिव मंदिर में न सिर्फ प्रवेश दिलाया, बल्कि पूजा भी कराई थी.
हर साल 15 जनवरी को खिचड़ी मेला
धनबाद एवं गिरिडीह की सीमा पर बराकर नदी के तट पर स्थित नंढा महादेव मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है. प्रत्येक साल 15 जनवरी को बराकर नदी के किनारे यहां खिचड़ी मेला लगता है. धनबाद एवं गिरिडीह के हजारों लोग यहां जुटते हैं. बराकर नदी में स्नान कर सभी लोग नंढा महादेव मंदिर में पूजा करते हैं. इस मंदिर में आदिवासियों एवं दलितों को पूजा करने की अनुमति नहीं थी. इस बार भी अहले सुबह मेले में जबरदस्त भीड़ उमड़ी. जानकारी मिलते ही स्थानीय सीओ और थाना प्रभारी पहुंचे और मेला नहीं लगाने की अपील कर लोगों को शान्ति पूर्ण तरीके से घर वापस भेज दिया.
बंदिश की बात सुनते ही भड़के दिशोम गुरु
राजा-महाराजा के जमाने से ही नंढ़ा महादेव के दरबार मे दलितों एवं आदिवासियों का प्रवेश वर्जित था. 1973 में शिबू सोरेन टुंडी में महाजनों व सामंतों के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे. झामुमो के स्थापना दिवस पर बैठक करने शिबू सोरेन इस इलाके में पहुंचे तो लोगों ने उन्हें बताया कि नंढा महादेव मंदिर में आदिवासियों व दलितों के पूजा करने पर प्रतिबंध है. सामूहिक खेती व रात्रि पाठशाला चलाने वाले शिबू राजनीति के साथ सामाजिक परिवर्तन की भी लड़ाई लड़ रहे थे. तब तक उनकी पहचान आदिवासियों के बीच दिशोम गुरु के रूप में हो चुकी थी. मंदिर में प्रतिबंध की बात सुनते ही वह भड़क गए. बैठक में ही एलान किया कि खिचड़ी मेला के दिन 15 जनवरी को वह हजारों दलितों व आदिवासियों के साथ पहुंचेंगे और नंढा महादेव मंदिर में पूजा करेंगे.
डुगडुगी बजाते मंदिर पहुंचे थे आदिवासी
शिबू टुंडी थाना में बैठे रहे और इधर आदिवासी व दलित समाज के सैकड़ों लोग डुगडुगी बजाकर मंदिर पहुंच गए. एक ओर आदिवासियों का जुटान था तो दूसरी ओर पंडा समाज प्रवेश नहीं करने देने की जिद पर डटा रहा. अंत में आदिवासियों के बागी तेवर देखकर पंडा समाज के लोग पीछे हट गए. इसके साथ ही इस ऐतिहासिक मंदिर में पहली बार आदिवासियों व दलितों ने पूजा की. अब मंदिर में नियमित रूप से दलित व आदिवासी समाज के लोग पूजा कर रहे हैं. शिबू की इस मुहिम को टुंडी के तत्कालीन थानेदार बीके कीजिंगिया, बराकर नदी किनारे स्थित डीवीसी कैंप कार्यालय के कर्मी नरेश झा व एक डीवीसी कर्मी के पुत्र विजय अधिकारी ने खुलकर समर्थन दिया था.
धरा रह गया था पंडा समाज का विरोध
पंडा समाज के अध्यक्ष एवं अन्य ब्राह्मणों के साथ मुखिया माया देवी ने बताया कि पुरानी परंपरा थी कि इस मंदिर में दलित व आदिवासी समाज के लोग पूजा नहीं कर सकते थे. शिबू सोरेन को जब जानकारी मिली तो उन्होंने दलितों व आदिवासियों को भेजकर पूजा कराई थी. पंडा समाज के लोगों ने इसका विरोध किया था लेकिन, फिर सब कुछ शांतिपूर्वक हो गया था. तभी से सभी समाज के लोग यहां मिलजुल कर पूजा करते हैं.
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