Shyam Kishore Choubey
सारधा चिट फंड वाले पूरब के हिमंत बिस्वा सरमा ने 23 अगस्त 2015 को कांग्रेस त्याग भाजपा का दामन थाम लिया था. अब वे असम में भाजपा सरकार चला रहे हैं. वे कांग्रेस के प्रति किसी भी भाजपाई से अधिक तीखे वचन बोलने में कोई लिहाज नहीं करते. मध्य जनवरी में पश्चिम वाले मिलिंद देवड़ा कांग्रेस को गुडबाय कर शिंदे सेना में शरीक हो गए थे. आदर्श हाउसिंग सोसाइटी वाले अशोक चह्वाण 13 फरवरी को भाजपा से जा मिले और राज्यसभा का टिकट पा लिया. वे कांग्रेस के अच्छे दिनों में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. दो साल पहले यूपी विधानसभा चुनाव के समय झारखंड कांग्रेस का प्रभारी पद त्याग राजा पडरौना आरपीएन सिंह भाजपा में चले गए थे. लंबे समय तक प्रतीक्षा सूची में रहने के बाद अब वे अपने गृह प्रदेश यूपी से भाजपा द्वारा राज्यसभा प्रत्याशी बना दिये गये. भाजपाई वाकई बेहद अनुशासनप्रिय हैं, जो टॉप लीडरशिप के समक्ष टिकट-फिकट के लिए चूं-चां हरगिज नहीं करते. पार्टी की सेवकाई ही उनका परम लक्ष्य होता है. इसलिए उनको ईडी-उडी का भय नहीं सताता.
सवा छह महीने पहले 18 जुलाई 2023 को इंडिया नामक विपक्षी गठबंधन का जिस सूरते हाल में गठन किया गया था, उसके विश्वकर्मा एक तरह से नीतीश कुमार थे. उसी नीतीश कुमार ने 28 जनवरी को इंडिया से कट्टिस कर ली और उस पाले से इस पाले में कूदकर भी मुख्यमंत्री बने रहे. पाला बदलने में उनकी कोई सानी नहीं. इसी करतब के भरोसे उन्होंने एक ही कार्यकाल में तीसरी मर्तबा मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड अपने नाम कायम कर लिया. बिहार विधानसभा का कार्यकाल अभी 20-21 महीने बाकी है. क्या पता वे चौथा करिश्मा भी दिखा ही दें. भारत जोड़ो यात्रा की दूसरी पाली में राहुल गांधी पूरब से पश्चिम की ओर बढ़ने लगे तो राजद और कांग्रेस के हाथों से नीतीश ने बिहार फिसला दिया. प्रायः इसी समय इंडिया की एक प्रमुख पार्टनर ममता बनर्जी ने न केवल पश्चिम बंगाल में किसी पार्टनरशिप से मना कर दिया, अपितु 24 जनवरी को यह भी कह दिया कि अबकी बार कांग्रेस को 40 सीटें मिल जाएं तो बहुत है.
उनकी ही जुबान राज्यसभा में 7 फरवरी को उचारते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बोले, प्रार्थना करता हूं कि कांग्रेस 40 सीटें बचा पाए. आप वाले अरविंद केजरीवाल भी पंजाब और दिल्ली में कांग्रेस को शायद ही भाव दें. मायावती पहले से अपनी माया समेटे हुई हैं. अखिलेश भी बड़ा शेयर नहीं देनेवाले. छोटे से झारखंड की सत्ता संकट से जैसे-तैसे उबरी. ईडी द्वारा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन 31 जनवरी को गिरफ्तार कर लिये गये. नये निजाम चंपाई सोरेन का कला-कौशल देखना बाकी है. यूं, उन्होंने पहले दिन ही खुद को हेमंत सरकार पार्ट-2 घोषित कर दिया था. यहां बड़ा शेयर मिल भी जाए तो कांग्रेस कितना जोड़ लेगी?
2022/23 में हिमाचल और कर्नाटक जीतकर कांग्रेस हौसलामंद हुई ही थी कि दिसंबर आते-आते छत्तीसगढ़ और राजस्थान गंवाने और अच्छी-खासी परिस्थितियों के बावजूद मध्यप्रदेश जीत नहीं पाने का पहाड़ जैसा गम झेलने को उसे मजबूर होना पड़ा. तेलंगाना जीत लेने से इन तीनों राज्यों की भरपाई नहीं हो जाती न! अब लोकसभा चुनाव सिर पर सवार हुआ जा रहा है. क्या होगा? कांग्रेस 2019 की 52 सीटों से ऊपर जाएगी या 40 तक सिकुड़-सिमट जाएगी? चुनाव की कौन कह सकता है? बड़े-बड़े नजूमी और सर्वेयर, अंदाजक फेल कर जाते हैं. रायबरेली छोड़कर सोनिया गांधी का राज्यसभा के लिए राजस्थान चला जाना सामान्य राजनीतिक घटना नहीं हो सकती. तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कांग्रेस को राजनेता बनने की ख्वाहिश पाले गणनाकार प्रशांत किशोर की बातें हौसला दे सकती हैं. प्रशांत ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि लगातार दस साल चुनाव हारने के बाद मोदी हाशिये पर चले जाएंगे, वह तो राहुल ही हैं, जो दस साल में 90 प्रतिशत चुनाव हारने के बावजूद पॉजीटिव हैं. 2019 के आंकड़े देखिए. 37.36 प्रतिशत वोट पाकर भाजपा 303 सीटें और 45 प्रतिशत वोट लाकर एनडीए 353 सीटें जीतने में कामयाब रहा था. 19.5 प्रतिशत वोट पाने के बावजूद कांग्रेस 52 सीटों पर सिमट गई थी. 2014 में भी कांग्रेस को लगभग इतने ही मत मिले थे, जबकि 2019 में भाजपा छह प्रतिशत मतों का इजाफा करने में सफल रही.
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984-85 में 414 सीटें पानेवाली कांग्रेस 1989 में 197 सीटों पर सिमटने के बावजूद सबसे बड़ी पार्टी थी. राजीव गांधी ने बहुमत न होने की बात कह सरकार बनाने से मना कर दिया था. फलतः 143 सीटों वाले जनता दल ने अस्वाभाविक गठबंधन खड़ा कर सरकार बना ली थी. गठजोड़ के मसले पर आज की कांग्रेस क्या वही गलती नहीं दोहरा रही? एक तो ‘इंडिया’ का ताना-बाना पूरी तरह से खड़ा होने के पहले ही दरक रहा है, दूसरे पुराने कांग्रेसी नेता एक-एक कर भाजपा के पाले में चले जा रहे हैं. मोदी-शाह के जमानेवाली भाजपा को किसी से परहेज नहीं है, बशर्ते वह बड़ा नाम हो और प्रतिपक्षी को किसी हद तक नुकसान पहुंचाने की कूवत रखता हो. बेहद अनुकूल ग्रह-नक्षत्रों के बावजूद वह छोटे से छोटे दल को भी समेटे चलती है. जो कोई चुनौती देता प्रतीत होता है उसमें तोड़-फोड़ करने या उसका नाश करने में हर हथकंडा अपनाने में बाज नहीं आती. दूसरी ओर प्रतिकूल परिस्थितियां झेल रही कांग्रेस ‘सरमा, देवड़ा की कोई जरूरत नहीं’ कहने में देर नहीं करती. राहुल की यात्रा में उमड़ती भीड़ वोट में कितना तब्दील होगी? थोड़ा इंतजार कर लीजिए.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.