Faisal Anurag
इसी साल मई में तृणमूल कांग्रेस की भारी जीत के बाद बंगाल की राजनैतिक हिंसा के लिए क्या प्रतीक और शब्दावली के प्रयोग नहीं हुए. लेकिन 2018 के मार्च में भारतीय जनता पार्टी की त्रिपुरा में मिली अप्रत्याशित जीत के बाद की हिंसा पर बेचैनी तो छोड़ दीजिए परेशानी तक नहीं दिखती है. मीडिया का शोर भी सुनायी नहीं देता है. दो राज्यों की राजनैतिक हिंसा को देखने का नजरिया इतना अलग क्यों हैं. भाजपा के नेता राम माधव का 2018 का ट्वीट किस तरह हिंसा को न्यायसंगत ठहराता है को याद किया जा सकता है. अंतर यह है कि त्रिपुरा हिंसा में भाजपा के लोग शामिल थे और हैं, बंगाल में आरोप तृणमूल के खिलाफ है. केंद्र सरकार भी इन दोनों में ””मेरी हिंसा उचित और तुम्हारी हिंसा”” गलत की लाइन अपनाती दिखती है. कोविड की दूसरी लहर जिस समय देश भर में लाखों लोगों को निगल रहा था उसी समय उत्तर प्रदेश में जिला पंचायतों के चुनाव हुए. उस चुनाव की हिंसा की चर्चा भी नहीं की गयी जिसमें भाजपा विरोधियों को नमांकन केंद्र तक पहुंचने ही नहीं दिया गया और खुले आम हिंसा का नंगा खेल हुआ.
बंगाल की हिंसा के समय केंद्रीय दल ने दौरा किया, लेकिन त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश कोई केंद्रीय दल हिंसा की भयावहता के बावजूद क्यों नहीं भेजा गया. तो क्या मान लिया जाना चाहिए कि हिंसा का राजनैतिक इस्तेमाल उसके शिकार हुए लोगों की राहत और न्याय से ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिया गया है. आमतौर पर एक जुमला अक्सर सुनने को मिल जाता है कि लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है. लेकिन लोकतंत्र में ही हिंसा को न्यायसंगत ठहराने और उसमें शामिल समूहों पर कोई कार्रवाई न हो तो भुक्तभोगी आखिर करें तो क्या करें.
बंगाल,यूपी, त्रिपुरा तीनों ही राज्यों में हिंसा के शिकार लोगों को न तो इंसाफ मिला और न ही वह भरोसा जिसमें वे बतौर नागरिक अपने विचार के अनुकूल सरकार चुनने या वोट करने की आजादी के उपयोग के अवसर का बगैर डर-भय के इस्तेमाल कर सकें. डर का माहौल कमोवेश इसी आजादी पर बंदिश और प्रहार दोनों ही तो करता है.
बिहार को याद किया जा सकता है जहां चुनावी हिंसा और चुनाव बाद की हिंसा का बोलबाला देश में सबसे अधिक था. लेकिन एक चुनाव आयुक्त ने किस तरह इस हिंसा के माहौल को बदल दिया यह भी भारत के चुनावी इतिहास में दर्ज है. टी.एन. शेषण वह चुनाव आयुक्त थे जिन्होंने न केवल स्वतंत्र और साफ—सुथरा चुनाव कराया, बल्कि चुनावी हिंसा की जड़ ही खोद दी. बिहार के चुनाव का तरीका और प्रवृति बदल गयी. यदि एक चुनाव आयुक्त यह कर सकता है तो फिर बंगाल,यूपी और त्रिपुरा में हिंसा क्यों नहीं रोकी जा सकती है.
त्रिपुरा हिंसा के संदर्भ में याद तो तथगत राय को भी किया जाना चाहिए. जिस समय त्रिपुरा राजनैतिक हिंसा के सर्वाधिक संकट से गुजर रहा था वे वहां के राज्यपाल थे. श्री राय ने पूर्ववर्ती सीपीएम सरकार के समय की राजनैतिक हिंसा की घटनाओं का हवाला देते हुए भाजपा की हिंसा को जायज ठहराया था.. सीपीएम की हिंसा,तृणमूल की हिंसा और भाजपा की हिंसा के फर्क को संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के नजरिए ने किस तरह पाला पोसा है इस राजनैतिक हकीकत को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है.
त्रिपुरा एक संवेदनशील राज्य है. अलगाववादी आंदोलनों के कारण पहले ही वहां बहुत खून खराबा हो चुका है. इस राज्य में हिंसा का महौल आने वाले दिनों के लिए अनेक खतरानक संकेत दे रहे हैं. पोस्ट इलेक्सन हिंसा के लिए आखिर दोषी कौन है. यह कभी तय नहीं हो पाता है. जरूरत इस बात की है कि राजनीति में कुख्यात अपराधों के आरोपी जब तक राजनीति में बाहुबल प्रदर्शन के लिण् शामिल किए जाते रहेंगे शायद ही चुनाव बाद बदले की आग को धधकने से रोका जा सकता है. चुनाव आयोग के आंकड़े ही बताते हैं कि गंभीर किस्म के अपराधों में संलग्न कितने लोग संसद और विधानसभा की शोभा बने हुए है. दिलचस्प तो यह है कि भाजपा इस समय ऐसे लोगों को महत्व देने में सबसे आगे है. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे अपराधों वाले मुकदमे की तत्वरित सुनवायी निपटारे की बात लंबे समय से कर रहा है.
त्रिपुरा की हिंसा को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. वैसे भी पूर्वेत्तर के राज्यों की संवेदनशील हालात किसी से छुपे हुए नहीं हैं.आज सीपीएम के अखबार ओर दफ्तर जलाए जा रहे हैं और आदिवासियों सहित अन्य लोगों को गांवों से खदेड़े जाने की घटनाएं पिछले चार सालों में आम रही हैं तो यह बेहद चिंता की बात है. चिंता तब और गहरी हो जाती है जब हिंसा करने वालों को सत्ता संरक्षण देने लगती है. त्रिपुरा के संदर्भ में तो वहां की मीडिया यही संकेत देती है. इस संरक्षणवाद के खिलाफ देश के नागरिकों को सजग होने की जरूरत है. उम्मीद तो नागरिकों की पहल से ही पैदा होने की संभावना है क्योंकि राजनेता तो इस संदर्भ में पूरी तरह पक्षधर हो बेपर्द हो चुके हैं.