Faisal Anurag
महानायकों के विरासतों पर दावा करने ओर उसे हड़पने की होड पिछले कुछ समय से भारत की राजनीति का हिस्सा बन गया है. नेताजी सुभाष चंद्र बोस और सरदार वल्लव भाई पटेल की विरासत निशाने पर है. बंगाल के चुनाव की आहट के साथ ही नेताजी बोस की विरासत भारतीय जनता पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के बीच चरम पर है. इसके पहले सरदार पटेल को ले कर ऐसी जंग देखी जा चुकी है.
भगत सिंह की विरासत पर दावे की लडाई जारी है. इस प्रतिस्पर्धा में इन नायकों के राष्ट्रवादी रूझानों को जिस एकांगी नजरिए से देखा जाता है उसमें उनके सपने,आदर्श और विचारों को ओझल कर दिया जाता है. नेताजी बोस हों या शहीदे आजम भगत सिंह दोनों के ही क्रांतिकारी विचार थे. इन विचारों की चर्चा सबसे कम की जाती है.
आजादी के लडाई तीन महानायकों की लोकप्रयता चरम पर रही है. भगत सिंह, सुभाष बोस और जवाहरलाल नेहरू की राहें तो अलग अलग थीं. लेकिन तीनों ने गांधी दौर में अपनी अलग पहचान बनायी थी. अलग अलग राजनैतिक राह के बावजूद तीनों के सपनों में एक ऐसे भारत को महसूस किया जाता रहा है. जो स्वतंत्रता, समानता और न्याय के मूल्यों के साथ सेकुलर भारत की वकालत करता है.
आजादी के नायकों के वस्तुगत मूल्यंकन को तरजीह न के देकर उसे उन्हें राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश अंजाम दी जा रही है.
आजादी की लडाई के दौरान हिंसा बनाम अहिंसा को ले कर विवाद जरूर थे. लेकिन आजाद भारत के सपने में एक में ज्यादा मतभेद भी नहीं था. महात्मा गांधी की सबसे बडी उपलब्धि यही थी कि उन्होंने ऐसे वैचारिक ताने बाने को बुना था. जिसमें मतभेद के बावजूद उद्देश्यों को लेकर मतभेद नहीं थे. सुभाष चंद्र बोस गांधी जी की अहिंसा की नीति से असहमत थे बावजूद इसके गांधी को ही वे भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष का सूत्रधार और नेता मानते थे. कांग्रेस के नेतृत्व की लडाई में सुभाष चंद्र बोस ने महात्मा गांधी के उम्मीद्वार पटाभि सीतारमैया को पराजित किया था. गांधी ने सुभाष बोस की जीत को स्वीकार नहीं किया.
नेहरू ने मध्यस्थता का प्रयास किया लेकिन अंततः सुभाष बोस ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. उस समय सुभाष बोस केवल राष्ट्रवाद की बात नहीं करते थे. बल्कि वे समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को भारत के लिए बुनियादी आधार मानतें थे. आजाद हिंद फौज के ढांचे में वह इस विचार को महसूस किया जा सकता है. जिन तीन रजिमेंट को नेताजी ने बनाया था उसमें एक नेहरू के नाम पर भी था. आजाद हिंद फौज के तीन प्रमुख सहगल, शनवाज्श और ढिल्लों उसे सकुलर तानेबाने के प्रतीक थे. जो नेता जी के सपनों के भारत की रूपरेखा बताता है.
नेता जी ने अपने जीवन काल में जिस तरह हिंदू महासभा का विरोध किया था उसे पीछे भी यही नजरिया था कि आजादी के बाद के भारत में किसी एक धर्म का वर्चस्व नहीं रहेगा. यही नहीं नेताजी ने वैज्ञानिक चेतना पर भी जोर दिया. नेता जी न तो पुरातनपंथी थे ओर न ही वे एक पल के लिए भी भारत में किसी एक के वर्चस्व के हिमायती थे. उनके लिए भारतीय लोकतंत्र की परिकल्पा कमोवेश उन्ही मूल्यों पर आधारित है जो भारत के संविधान के मूल्यों में प्रकट हुआ है. आजाद हिंद फौज के दस्तावेज और नेताजी की आत्मकथा यही सबक देती है.
लेकिन बंगाल में जिस तरह नेता जी बोस के सहारे राजनैतिक आकंक्षाओं को पूरा करने की जुगी हो रही है वह इतिहास के तथ्यों को नकारने जैसा है. आजादी के इतिहास के पुनर्लेशान का सपना देखने वाले तत्वों को नफरत केवल जवाहरलाल नेहरू से ही रही है. इसका एक बडा कारण तो यही है कि नेहरू ने जिस लोकतांत्रिक भारत की परिकल्पना को धरती पर उतारने का प्रयास किया वह ऐसी ताकतों के बरखिलाफ है.
दुनिया के अनेक देशों में ऐसा देखा गया है कि जिनके पास अपने नायक नहीं होते हैं वे दूसरों के नायकों को हडपने का प्रयास करते हैं. लेकिन इतिहास साक्षी है कि इसमें कामयाबी नहीं मिलती है. किसी भी नायक के विचार ही लंबे समय तक जीवित रहते हैं. भारतीय राष्ट्र को हडपना किसी के लिए सामजिक तो हो सकता है लेकिन वह निर्णायक कभी साबित नहीं होगा.
एक दौर ऐसा भी देखा गया है कि भगत सिंह को कब्जा की कोशिश की गयी. लेकिन जैसे ही भगत सिंह के विचारों को ले कर चर्चा हुई उन्हें हडपना आसान नहीं रह गया. कोशिश तो यह की जाती है कि ऐसे नेताओं के विचारों को दरकिनार कर दिया जाए. लेकिन भगत सिंह के विचार हों या सुभाष बोस के इन्हें हाशिए से देखा नहीं जा सकता है.
भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आने के बाद से नेता जी की मृत्यु की छानबीन कराने और उनके दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की दिशा में कदम उठाए. माना गया था कि इन दस्तावेजों से नेहरू की छवि खराब होगी. लेकिन जैसे ही सारे दस्तावेज सार्वजनिक हुए उसमें ऐसा कोई तथ्य नहीं मिला.
बंगाल में हर हाल में सत्ता पाने की जंग जारी है और नेता जी बोस की 125वीं जयंती को भी इसी नजरिए से इस्तेमाल किया जा रहा है. नेता जी के ही एक वंशज ने दो साल पहले कहा था कि भारत की सकुलर विरासत की रक्षा है जो नेताजी का सपना था. नेताजी देशभक्तों को प्रेरित करते रहेंगे और अपने वैचारिक उर्जा से लैस भी. उनकी देशभक्ति एकांगी कभी नहीं रही और न ही वे राजनीति में वोट के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं.