Faisal Anurag
सुप्रीम कोर्ट की इच्छा के बावजूद केंद्र सरकार न तो तीनों कृषि कानूनों को डेडलॉक खत्म होने तक स्थगित करने के तैयार है और न ही किसी बातचीत के लिए पहल करने को. तो क्या केंद्र सरकार किन्हीं दबावों के वजह से ऐसा कर रही है? सुप्रीम कोर्ट ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वह किसानों का पक्ष जाने बगैर किसी नजीते पर नहीं पहुंचेगी. बहस के दौरान हरिश साल्वे और तुषार मेहता जो तर्क दिये हैं, उसके गहरे संदेश हैं. शाहीनबाग के समय भी सुप्रीम कोर्ट में इन बातों को उठाया गया था कि लोगों के विरोध के अधिकार की सीमाएं क्या हैं.
भारत का संविधान लोगों को असहमत होने और शांतिपूर्ण विरोध के अधिकार की गारंटी करता है. बावजूद इसके विरोध के अधिकार को सीमाओं में बांधने का कानूनी फैसला कराने की कोशिशें तेज हैं. केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के बतौर तुषार मेहता के तर्कों के लब्बोलुवाब भी यही है.
भारत जैसे देश में जहां आर्थिक सामाजिक विषमताओं का हर दिन विस्तार हो रहा है. आमलोगों पर अंकुश लगाने की प्रवृति भी बढ़ती जा रही है.
राजनैतिक तौर पर सरकार किसानों के आंदोलन का मुकाबला करने के लिए मैदान में उतर चुकी है. प्रधानमंत्री किसानों की सभाओं को संबोधित कर रहे हैं तो सरकार के अन्य मंत्री भी इस अभियान में सक्रिय हैं. सरकार के तमाम तर्कों के बावजूद अब सवाल उठ रहा है कि आखिर किन कारणों और दबावों से डेडलॉक के हालात बने हैं. न्यूनतम सपोर्ट प्राइस पर ही खरीद की गांरटी तक देने में कोताही की जा रही है. इसके लिए विश्व व्यापार संगठन के उन दबावों को ध्यान में रखा जाना चाहिए. केंद्र के मंत्री कह चुके हैं कि भारत विश्व व्यापार संगठन के अनुकूल नीतिया व कानून बनाने के लिए बाध्य है. कृषि कानूनों के लिए दबाव डब्लूटीओ और मल्टीलनेशनल ताकतों का है और देश के भीतर भी दो बड़े घरानों का दबाव इसके लिए बना हुआ है.
भारत में श्रम और कृषि कानूनों में जो बदलाव लाये गये हैं. वह बुनियादी तौर पर मारक्कों में हुए डब्लूटीओ की बैठक के बाद से भारत में जारी प्रक्रिया का ही हिस्सा है. मोरोक्कों सम्मेलन में भारत के कृषि संबंधों और तरीकों में बदलाव लाने का दस्तावेज तैयार किया गया था. बाद में भारत की कई सरकार ने ग्लोबलाइजेशन के युग में प्रतिस्पर्धातमक कृषि के लिए जमीन बनाना शुरू किया था जिसमें जोर छोटे और मझोले किसानों से जमीन से बेदखल करना था.
इसके लिए भारत में सरदार सिंह जौहल की अध्यक्षता में एक कमेटी ने लंबी चौड़ी सिफारिशें की थी. लेकिन भारत की राजनीति में किसानों की ताकत और महत्व को देखते हुए उस समय किसी भी सरकार के लिए इसपर आगे बढ़ना संभव नहीं था. राजनीतिक पर किसान नेताओं की भी पकड़ मजबूत रहने के कारण ऐसा संभव हो पाया. 1996 से 2014 तक भारत में गठबंधन सरकारों के हारने के कारण भी श्रम,कृषि और विद्युत क्षेत्र में बड़े सुधार संभव नहीं हो पाये.
2019 में भारी बहुमत के बाद मोदी सरकार ने आर्थिक सुधारों के लिए कमरकसा और कोविड काल में उसपर अमल लाना शुरू किया. लेकिन नीति आयोग इसकी पृष्ठभूमि पहले ही बना चुका था.
एक ओर सुप्रीम कोर्ट में आंदोलनों की सीमा तय करने का तर्क सरकारी प्रतिनिधि और साल्वे जैसे लोग दे रहे हैं दूसरी ओर मोदी सरकार राजनैतिक तौर पर आंदोलन के खिलाफ अभियान चलाने में लगी हुयी है. ऐसा संकट अभूतपूर्व हैं, जहां सरकार संवाद से भाग रही हो. केंद्र सरकार न तो किसानों की मांगों के अनुकूल कानून की समीक्षा करने को तैयार दिख रही है और न ही राजनीतिक हल के लिए. ऐसे हालात नागरिकता कानून के विरोध में हुए आंदोलन के समय भी पैदा करने की कोशिश की गयी थी.
लेकिन लॉकडाउन के कारण सरकार को ज्यादा निरंकुश अधिकार हासिल हो गये. दिल्ली में नागरिकता कानून का विरोध करने वाले तीन दर्जन नेताओं और कार्यकर्ताओं को हिंसा फैलाने के आरोप में लंबे समय से जेल में पहुंचा दिया गया है. इनमें कई पर तो यूएपीए के तहत बंद किया गया है. केंद्र के एक मंत्री ने कहा है कि किसानों के आंदोलन के बावजूद भाषा के चुनाव अभियान और जीत पर असर नहीं पड़ रहा है. बिहार चुनाव और उपचुनावों का हवाला इस संदर्भ में दिया जा रहा है. राजनीतिक गतिरोध के इस दौर में लोकतंत्र का भविष्य चिंताजनक है.